वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक-2025: मुस्लिमों की धार्मिक सम्पत्ति के प्रशासन के नाम पर साम्प्रदायिकीकरण द्वारा भाजपा व संघ परिवार का मुसलमान अल्पसंख्यकों पर एक और फ़ासीवादी हमला
वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक-2025: मुस्लिमों की धार्मिक सम्पत्ति के प्रशासन के नाम पर साम्प्रदायिकीकरण द्वारा भाजपा व संघ परिवार का मुसलमान अल्पसंख्यकों पर एक और फ़ासीवादी हमला
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भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) द्वारा जारी
वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक-2025 आख़िरकार लोकसभा और राज्यसभा में पारित हो गया है। चन्द्रबाबू नायडू की तेलुगूदेशम पार्टी और नीतीश कुमार की जनता दल (यूनाइटेड) ने निहायत ही बेशर्मी से इस विधेयक के पक्ष में मत देकर एक बार फिर फ़ासीवादियों के लिए संकटमोचक का काम किया। जिन लोगों को लगता था कि एनडीए में नायडू और नीतीश की मौजूदगी से फ़ासिस्टों की आक्रामकता में कमी आयेगी उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया है।
जहाँ एक ओर हिन्दुत्व फ़ासिस्टों की गुण्डावाहिनियाँ मुस्लिमों के धार्मिक स्थलों और उनके त्योहारों पर निशाना साधते हुए समाज में लगातार साम्प्रदायिक तनाव का माहौल बना रही हैं, वहीं दूसरी ओर फ़ासिस्ट मोदी सरकार औपचारिक तौर पर उनके अधिकारों को छीनकर उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के अपने विचारधारात्मक लक्ष्य पर बेरोकटोक ढंग से आगे बढ़ रही है। इसी के ज़रिये समाज में साम्प्रदायिकीकरण की अपनी जारी साज़िश को भी संघ परिवार आगे बढ़ाने की फ़िराक़ में है। 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा का ‘अबकी बार 400 पार’ का नारा एक चुटकुला बन गया था और वह 240 सीटों पर सिमट गयी थी। निश्चित तौर पर यह चुनावी नतीजा अपने आप में फ़ासीवादी ख़तरे के कम होने का लक्षण नहीं था। लेकिन भाजपा को निश्चित तौर पर इससे तात्कालिक झटका लगा था। इसके बाद से ही संघ परिवार ने देश में साम्प्रदायिक उन्माद की लहर को नये सिरे से बढ़ाने और व्यापक आबादी के व्यवस्थित साम्प्रदायिकीकरण की तैयारियाँ कर ली थीं। कुम्भ से लेकर ईद तक, छावा जैसी फ़ासीवादी प्रोपगैण्डा फिल्मों की बाढ़ से लेकर सोशल मीडिया पर फ़ेक न्यूज़ की लहर तक, इसी मंसूबे को असलियत में उतारने का हिस्सा है। वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक-2025 इसी फ़ासिस्ट साज़िश का अगला क़दम है। इसे समझना न्यायप्रिय व संवेदनशील, जनवादी व समतामूलक लोगों के लिए आवश्यक है।
संसद में इस विधेयक के पक्ष में बोलते हुए गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि वक़्फ़ क़ानून में किये जा रहे इस संशोधन का मक़सद मुस्लिमों के धार्मिक मामलों में राज्य की दख़लन्दाज़ी को बढ़ावा देना नहीं है बल्कि उनकी धार्मिक व धर्मार्थ सम्पत्तियों के प्रशासन को प्रभावी बनाना है। उन्होंने इसे वक़्फ़ सम्पत्तियों के प्रबन्धन को ज़्यादा पारदर्शी व जवाबदेह बनाने तथा भ्रष्टाचार को दूर करने की दिशा में उठाया गया क़दम बताया। उनका दावा है कि इस विधेयक के लागू होने का फ़ायदा ग़रीब मुसलमानों, मुसलमान औरतों, पसमाँदा मुसलमानों आदि को होगा। क्या यह दावा सच्चा है? आइये, देखते हैं।
अगर गृहमंत्री महोदय वाक़ई धार्मिक व धर्मार्थ सम्पत्तियों के प्रशासन व प्रबन्धन में फैले भ्रष्टाचार से व्यथित हैं तो धार्मिक सम्पत्तियों व मसलों के प्रबन्धन के राजकीय/सरकारी विनियमन के किसी विधेयक या क़ानून के दायरे में सिर्फ़ एक धर्म व उसके लोग ही क्यों आ रहे हैं? अगर अमित शाह सच बोल रहे होते तो उन्हें एक ऐसा विधेयक लाना चाहिए था जिसमें सभी धर्मों से सम्बन्धित सम्पत्तियों के प्रशासन को ज़्यादा पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के प्रावधान होते। आख़िर उनकी पार्टी ही तो इन दिनों ‘समान नागरिक संहिता’ और ‘एक राष्ट्र एक क़ानून’ पर इतनी चिल्ल-पों मचाती आयी है! क्या शाह को नहीं पता कि इस देश में तमाम मन्दिरों, मठों, गुरुद्वारों, गिरजाघरों और बाबाओं के तमाम आश्रमों ने लोगों की धार्मिक आस्था के नाम पर अकूत सम्पदा इकट्ठी कर रखी है और उनके प्रबन्धन में भी ज़बर्दस्त भ्रष्टाचार होता है? वास्तव में, सबसे ज़्यादा समृद्ध तो तमाम हिन्दू मन्दिरों के ट्रस्ट व न्यास आदि हैं, जिनके पास जमा अथाह सम्पत्ति व धन-दौलत पर दशकों से सवाल उठता रहा है। इसी प्रकार तमाम गुरुद्वारों व गिरजाघरों और मठों के पास जमा सम्पत्ति व धन-दौलत का कोई हिसाब नहीं है। गृहमंत्री ने वक़्फ़ सम्पत्तियों के आँकड़े तो संसद में प्रस्तुत किये लेकिन इन मन्दिरों, मठों, गुरुद्वारों, गिरजाघरों और आश्रमों की सम्पत्तियों पर शातिराना चुप्पी साधे रखी। यानी केवल इस्लाम धर्म की संस्थाओं के प्रशासन को “दुरुस्त” करने को लेकर अमित शाह के पेट में मरोड़ उठ रहा है, लेकिन उससे कहीं ज़्यादा भ्रष्टाचार व व्याभिचार में लिप्त और उससे कहीं ज़्यादा सम्पदा व धन के मालिक मठों, महन्तों व मन्दिरों की जाँच व उनकी सम्पत्तियों के विनियमन में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। यानी, एक विशिष्ट धर्म को इस मामले में सरकार ने अलग किया है और उस विशिष्ट धर्म के प्रति सरकार का रवैया भिन्न है। ज़ाहिर है, यहाँ मक़सद है मुसलमान अल्पसंख्यक आबादी को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना, उनके दमन-उत्पीड़न को तीव्र करना और देश में साम्प्रदायिक उन्माद के तन्दूर को गर्म रखना ताकि उस पर संघ परिवार व भाजपा अपनी चुनावी रोटियाँ सेंक सकें।
जहाँ तक इस विधेयक का फ़ायदा ग़रीब मुसलमानों, मुसलमान औरतों व पसमाँदा मुसलमानों को मिलने का सवाल है, तो अमित शाह के इस दावे का तथ्यों व तर्कों से कोई रिश्ता नहीं है। अगर उन्हें ग़रीबों, औरतों व दलितों से इतना ही प्रेम है, तो इसी प्रकार का “जनवादीकरण” वह हिन्दू धर्म व उसकी संस्थाओं में क्यों नहीं करते? वहाँ तो ग़रीबों, औरतों व दलितों की और भी ज़्यादा बुरी हालत है। ज़ाहिर है, यह बस एक जुमला है ताकि ‘बाँटो और राज करो’ की नीति के तहत मुसलमान आबादी को तोड़कर उनके फ़ासीवादी दमन को आसान बनाया जा सके। ऐसा कोई भी जनवादीकरण या सेक्युलराइज़ेशन तभी मायने रख सकता है जब वह सभी धर्मों व उनकी संस्थाओं पर एकसमान रूप में लागू किया जाये। वैसे भी इस विधेयक का ग़रीब मुसलमानों, मुसलमान औरतों व पसमाँदा मुसलमानों से सीधे तौर पर कोई लेना-देना नहीं है और जहाँ तक जनवादीकरण से होने वाले आम फ़ायदों से इन सामाजिक हिस्सों के लाभान्वित होने की बात है, तो अमित शाह को पहले हिन्दू धर्म और उसकी संस्थाओं और मठों-बाबाओं के बारे में चिन्तित होना चाहिए, जहाँ औरतों के बलात्कार से लेकर दलितों के मन्दिर में प्रवेश पर मनाही और नंगे भ्रष्टाचार और व्याभिचार की घटनाओं तक, जनवाद और सेक्युलरिज़्म के आदर्शों की धज्जियाँ लगातार ही उड़ायी जाती हैं।
ग़ौरतलब है कि मुसलमानों की धार्मिक व धर्मार्थ सम्पत्तियों के प्रशासन के लिए तो एक केन्द्रीय क़ानून पहले से ही मौजूद था, लेकिन हिन्दुओं व अन्य धर्मावलम्बियों की धार्मिक सम्पत्तियों के प्रशासन के लिए कोई भी केन्द्रीय क़ानून नहीं है। ऐसे में सबके लिए एकसमान क़ानून की बात करने वाली भाजपा सभी धर्मो की सम्पत्तियों के पारदर्शी प्रशासन के लिए केन्द्रीय स्तर पर कोई विधेयक क्यों नहीं पेश कर रही है? वजह साफ़ है, इन फ़ासिस्टों की मंशा धार्मिक सम्पत्तियों के प्रबन्धन में भ्रष्टाचार ख़त्म करने की है ही नहीं। इन्हें तो बस अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के तहत समाज में मुस्लिमों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने के लिए नये-नये मुद्दे सामने लाकर समाज में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़ाना है। इसलिए वक़्फ़ विधेयक को भी मुसलमानों को एक नक़ली दुश्मन के रूप में पेश करने की फ़ासिस्ट रणनीति की निरन्तरता में ही देखने की ज़रूरत है।
वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक-2025 में वक़्फ़ बोर्डों और वक़्फ़ परिषद में ग़ैर-मुस्लिमों को भी शामिल करने का प्रावधान है। भाजपा इसे वक़्फ़ निकायों को ज़्यादा वैविध्यीकृत और समेकित बनाने की दिशा में एक क़दम बता रही है। अच्छी बात है। तो फिर तमाम मन्दिरों-मठों-आश्रमों के प्रबन्धन को वैविध्यीकृत और समेकित बनाने का ख़याल उनके ज़ेहन में क्यों नहीं आया? क्या वे मन्दिरों की सम्पत्ति के प्रबन्धन में मुस्लिमों, ईसाइयों आदि को शामिल करने के लिए तैयार होंगे? ज़ाहिरा तौर पर नहीं। वहाँ तो उन्हें वैविध्यीकरण और समेकन की नहीं बल्कि हिन्दुओं की आस्था याद जायेगी और हमें बताया जायेगा कि जो संस्था हिन्दुओं के धार्मिक व आध्यात्मिक कामों के लिए है उसमें किसी अन्य धर्म के लोग भला कैसे रह सकते हैं? उनकी सम्पत्तियों व धन-दौलत की जाँच कैसे की जा सकती है? सारे फ़ासीवादी नफ़रती चिण्टू गोदी मीडिया के तमाम चैनलों पर गले फाड़-फाड़कर पूछेंगे कि “क्या अब इस देश में हिन्दू होना जुर्म है?” जी नहीं। लेकिन इस देश में मुसलमान होने को भाजपा निश्चित ही एक जुर्म बना रही है। इस संशोधन विधेयक में यह प्रावधान भी डाल दिया गया है कि कोई ग़ैर-मुस्लिम अपनी सम्पत्ति का दान वक़्फ़ सम्पत्ति के रूप में नहीं कर सकता है। इतिहास में ऐसी तमाम मिसालें हैं जिनमें ग़ैर-मुस्लिमों ने भी अपनी सम्पत्ति को वक़्फ़ सम्पत्ति के रूप में दान दिया है। अगर कोई हिन्दू अपनी मर्ज़ी से अपनी सम्पत्ति किसी क़ब्रिस्तान बनाने के लिए देना चाहे तो फिर ऐसे दान पर रोक लगाने का क्या तुक था? एक तरफ़ ग़ैर-मुस्लिमों को मुस्लिमों की धार्मिक सम्पत्ति के प्रबन्धन में शामिल किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ़ ग़ैर-मुस्लिमों को अपनी सम्पत्ति वक़्फ़ सम्पत्ति के रूप में देने से रोका जा रहा है! इस दोगलेपन की जड़ भाजपा-संघ परिवार की मुस्लिम-द्वेषी फ़ासीवादी सोच में है।
फ़ासिस्टों ने अपनी मुस्लिम-द्वेषी सोच का मुजाहिरा इस विधेयक के एक अन्य प्रावधान में भी किया है जिसके तहत उन्होंने इस्लाम में धर्मान्तरण करने वाले किसी व्यक्ति को पाँच वर्ष तक अपनी सम्पत्ति को वक़्फ़ सम्पत्ति के रूप में देने पर रोक लगा दी है। इसी प्रकार वक़्फ़ क़ानून से ‘वक़्फ़ बाय यूज़र’ के प्रावधान को हटाना भी भाजपा की घृणित साम्प्रदायिक फ़ासीवादी रणनीति का हिस्सा है। इस प्रावधान के तहत मस्जिद, इमामबाड़ा या कब्रिस्तान जैसी जगहें लम्बे समय से अपने इस्तेमाल की वजह से वक़्फ़ सम्पत्ति मानी जाती थीं भले ही उन्हें प्रमाणित करने के लिए कोई दस्तावेज़ न हो। इस प्रावधान के हटने के बाद मुस्लिमों के तमाम धार्मिक स्थलों की वैधता को समाप्त किया जा सकता है। इस प्रकार संघ परिवार को आने वाले दिनों में काशी, मथुरा, सम्भल और अजमेर जैसे नये-नये विवाद खड़ा करने की पूरी छूट दे दी गयी है।
वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक-2025 को आनन-फ़ानन में पारित कराना यह दिखाता है कि भाजपा और संघ परिवार अपनी घोर मुस्लिम-विरोधी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी रणनीति को एक नये स्तर पर ले जा रहे हैं। पिछले साल लोकसभा चुनावों में अपनी सीटों में हुई कटौती को देखकर उन्हें इतना समझ आ चुका है कि अगर समाज में लगातार नफ़रत का माहौल नहीं बना रहा तो यह मुमकिन है कि बढ़ती बेरोज़गारी, आसमान छूती मँहगाई और भीषण आर्थिक संकट की वजह से उन्हें सरकारी सत्ता से बाहर जाना पड़े। यही वजह है कि आये दिन नये-नये मुद्दे उछाले जा रहे हैं। कभी किसी मस्ज़िद का विवाद सामने आ जाता है, कभी नमाज़ का मुद्दा गरमा जाता है तो कभी किसी दरगाह का मुद्दा उछल जाता है। ईद, रमजान, होली और रामनवमी जैसे त्योहार भी इन फ़ासिस्टों के लिए अपनी साम्प्रदायिक रोटियाँ सेंकने के मौक़े बन चुके हैं।
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी वक़्फ़ (संशोधन) विधेयक-2025 का पुरज़ोर विरोध करती है। यह विधेयक मुसलमानों के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाने और धर्म के नाम पर उनके साथ भेदभाव करते हुए उन्हें दोयम दर्जे के नागरिक में तब्दील करने की हिन्दुत्ववादी रणनीति का ही एक हिस्सा है। हम देश की जनता को धर्म के नाम पर बाँटने की भाजपा-संघ परिवार के साम्प्रदायिक फ़ासीवादी साज़िश के ख़िलाफ़ आगाह करते हैं और सभी धर्मों के मेहनतकशों की फौलादी एकजुटता कायम रखने का आह्वान करते हैं। तमाम धार्मिक संस्थाओं, मठों, आदि की सम्पत्तियों की जाँच, उनका पारदर्शी ऑडिट, उनके मसलों को राजकीय विनियमन के मातहत लाना, ऐसी संस्थाओं की समितियों में सभी धर्मों के लोगों को शामिल किया जाना, आदि अपने आप में सही या ग़लत नहीं है। लेकिन इस प्रकार के राजकीय/सरकारी विनियमन के दायरे में अगर सभी धर्मों व उनकी संस्थाओं को नहीं लाया जाता है, तो यह निश्चित ही एक विशिष्ट धर्म व उसके लोगों के अधिकारों पर हमला है, उनके साथ भेदभाव का बर्ताव है, उन्हें दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की साज़िश है। एक सही मायने में सेक्युलर राज्य निश्चय ही जनवादी व समानतामूलक तरीक़े से धार्मिक संस्थाओं व उनके मसलों के राजकीय विनिमयन का प्रावधान कर सकता है, लेकिन ऐसा प्रावधान बिना भेदभाव सभी धर्मों पर लागू हो तो ही वह सही मायने में सेक्युलर व जनवादी माना जायेगा। ठीक इसी वजह से भाजपा सरकार द्वारा लाया गया वक़्फ़ विधेयक-2025 वास्तव में एक जनवादी व सेक्युलर नहीं, बल्कि एक फ़ासीवादी साम्प्रदायिक विधेयक है जिसका मक़सद है हमारे देश में लगातार साम्प्रदायिक उन्माद के माहौल को बनाये रखना और साथ ही मुसलमान आबादी को दोयम दर्जे के नागरिकों में तब्दील करना। हम इस विधेयक का पुरज़ोर विरोध करते हैं और व्यापक जनता से अपील करते हैं कि इस विधेयक के असली चरित्र और इसके पीछे छिपे असली फ़ासीवादी मंसूबों को पहचानें। इसके निशाने पर सिर्फ़ मुसलमान अल्पसंख्यक आबादी ही नहीं आयेगी, बल्कि आम तौर पर मेहनतकश व आम मध्यवर्गीय आबादी आयेगी क्योंकि इससे जो साम्प्रदायिकीकरण होगा, उसका ख़ामियाज़ा देश की आम जनता को ही भुगतना पड़ेगा।