RWPI का लोकसभा चुनाव घोषणापत्र 2024
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी
Revolutionary Workers’ Party of India – RWPI
लोकसभा चुनाव घोषणापत्र 2024
आगामी लोकसभा चुनावों में मेहनतकश जनता का अपना स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष तैयार करो!
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दो!
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साथियो,
18वीं लोकसभा के लिए आम चुनाव सिर पर हैं। ये आम चुनाव तब हो रहे हैं जब देश एक अभूतपूर्व संकट से गुज़र रहा है। इस अभूतपूर्व संकट के दो पहलू हैं। पहला है देश में जनता के जनवादी अधिकारों पर फ़ासीवादी मोदी सरकार द्वारा किये जा रहे भयंकर हमले। दूसरा है मोदी सरकार की अमीरपरस्त नीतियों के नतीजे के तौर पर जनता के ऊपर टूट रहा बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता का ऐसा क़हर जिसकी मिसाल हमारे देश के इतिहास में मौजूद नहीं है। हमारे देश में इस समय एक फ़ासीवादी शासन है। अब इस बात पर शायद ही कोई एतराज़ करे। निश्चित तौर पर, हिटलर या मुसोलिनी के दौर के समान आज मोदी सरकार ने देश में चुनावों को, संसद-विधानसभाओं को खुले तौर पर भंग नहीं किया है। कहने के लिए कुछ नागरिक अधिकार भी बेहद सीमित और काग़ज़ी तौर पर मौजूद हैं। लेकिन अन्दर से इस देश के पूँजीवादी लोकतन्त्र की संस्थाओं, प्रक्रियाओं आदि को फ़ासीवादी मोदी सरकार खा गयी है। राज्यसत्ता (state) की समूची मशीनरी पर संघ परिवार और भाजपा ने अन्दर से क़ब्ज़ा कर लिया है, यानी उन्हें टेक-ओवर कर लिया है। इनफ़ोर्समेण्ट डाइरेक्टोरेट (ईडी), केन्द्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई), आयकर विभाग, चुनाव आयोग, न्यायपालिका आदि के समूचे ढाँचे पर आज संघ परिवार व भाजपा का कमोबेश नियन्त्रण है। पुलिस, सेना, अर्द्धसैनिक बलों तक में संघ परिवार ने पिछले कई दशकों के दौरान एक लम्बी प्रक्रिया में घुसपैठ की है और वहाँ भी अपने लोगों को बिठा दिया है।
ईवीएम के ज़रिये चुनाव स्वयं एक विशालकाय घपला है, जो देश की जनता को अपनी सामूहिक इच्छा को अभिव्यक्त करने, यानी स्वतन्त्र और पारदर्शी तरीके से अपने नुमाइन्दे चुनने के अधिकार का मख़ौल बनाता है। ताज्जुब की बात है कि देश की न्यायपालिका इस विशिष्ट मुद्दे पर, यानी ईवीएम के मुद्दे पर बेहद वाजिब सवाल उठाने वाले और सौ प्रतिशत वीवीपैट मिलान की माँग करने वालों की याचिका पर लम्बे समय से सुनवाई तक नहीं कर रही है। कहने को 100 प्रतिशत वीवीपैट मिलान की याचिका पर सुनवाई की प्रक्रिया शुरू तो हो गयी है, लेकिन चुनावों से पहले उसपर कोई निर्णय आने की गुंजाइश काफ़ी कम है। यह प्रक्रिया इतनी देर से शुरू करने पर यही हो सकता था। कहने के लिए चुनाव आयोग को जवाब देने के लिए समय-समय पर कुछ नोटिस सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी किये जाते हैं। चुनाव आयोग कह देता है कि ईवीएम सुरक्षित है और न्यायपालिका हर दफ़ा मान लेती है! वह भी तब जबकि ईवीएम घपले के विचारणीय प्रमाण मौजूद हैं!
यह सब क्या दिखला रहा है? यह दिखला रहा है कि हमारे देश में आज उस लोकतन्त्र का भी बस खोल ही बचा है, जिसे समाज-वैज्ञानिक ‘पूँजीवादी जनवाद’ और आम लोग ‘लोकतन्त्र’ कहते हैं। ‘पूँजीवादी जनवाद’ का अर्थ होता है एक ऐसा जनवाद जिसमें समाज में सबसे अमीर वर्गों यानी पूँजीपतियों, धनी ठेकेदारों, धनी व्यापारियों, कुलकों व पूँजीवादी किसानों, उच्च मध्यवर्ग के लोगों को तो जनवादी अधिकार प्राप्त होते हैं, लेकिन जैसे ही हम समाज की सीढ़ी पर नीचे उतरते हैं, वैसे–वैसे जनवाद अधिक से अधिक सीमित, औपचारिक और बेमानी होता जाता है। यानी जब हम आम मध्यवर्ग तक आते हैं, निम्न मध्यवर्ग तक आते हैं, हम अर्द्ध–मज़दूर आबादी तक आते हैं, ग़रीब व निम्न–मँझोले किसानों तक आते हैं, और खेतों, खानों–खदानों और कल–कारख़ानों में काम करने वाले और शहरों व गाँवों में अनौपचारिक मज़दूरी करने वाले विशाल मज़दूर वर्ग तक आते हैं, तो ये जनवादी अधिकार बेहद सीमित और औपचारिक होते जाते हैं। एक आम मेहनतकश इन्सान के लिए क़ानून, न्याय, बराबरी का कोई ख़ास मतलब नहीं रह जाता है। उसके लिए तो उसके लोकल थाने का इंस्पेक्टर या कांस्टेबल देश के संविधान, क़ानून, दण्ड-प्रणाली को अपनी जेब में रखकर घूमता है। लेकिन इस पूँजीवादी जनवाद में जो सीमित जनवादी अधिकार भी जनता को मिलते थे, उनका कोई विशेष मतलब आज नहीं रह गया है। चुनने और चुने जाने के बुनियादी जनवादी अधिकार का क्या अर्थ रह जाता है अगर ईवीएम घपले के ज़रिये फ़ासीवादी भाजपा सरकार चुनावों में हेर–फेर करती है?
जनता के पास मेहनतकशों की एक क्रान्तिकारी पार्टी का विकल्प आज भी पूरे देश के पैमाने पर नहीं है। लेकिन आज तो चुनावों में मालिकों, ठेकेदारों, दलालों, व्यापारियों की सेवा करने वाली अन्य पूँजीवादी पार्टियों का ‘विकल्प’ भी भाजपा द्वारा केवल औपचारिक बनाया जा रहा है। यानी, तमाम पूँजीवादी चुनावी पार्टियों के चुनावी विकल्प भी अब व्यावहारिक तौर पर समाप्त करने की कोशिशें भाजपा व संघ परिवार द्वारा की जा रही हैं। जब चुनावों से ठीक पहले भाजपा की मोदी-शाह सरकार ही चुनाव आयोग के दो चुनाव आयुक्तों को नियुक्त करे, ईडी-सीबीआई-आईटी विभाग के छापों के ज़रिये विपक्ष की सभी पार्टियों को तोड़ दे, उनके नेताओं को जेल में डाल दे, प्रमुख विपक्षी पार्टी के खातों को सील कर दे, तो चुनावों में बराबरी का मुक़ाबला ही सम्भव नहीं रह जायेगा। ऐसे में, जनता के चुनने के अधिकार का क्या बचा रह जायेगा?
सच है कि अगर जनता कांग्रेस, सपा, बसपा, आप, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, जद (यू), जद (सेकू), तृणमूल कांग्रेस, राजद, शिवसेना, राकांपा, भाकपा, माकपा, भाकपा (माले) लिबरेशन आदि को भी चुनती है, तो ये पार्टियाँ भी जनता की सच्चे मायने में नुमाइन्दगी नहीं कर सकतीं क्योंकि ये भी पूँजीपति वर्ग के ही किसी न किसी हिस्से से मिलने वाले चन्दों व अनुदानों पर चलती हैं और इसलिए पूँजीपति वर्ग के हितों की ही नुमाइन्दगी करती हैं। लेकिन पहले जनता के पास सत्तासीन पार्टी की जनविरोधी नीतियों के लिए उसे दण्डित करने का अधिकार और मौक़ा था, हालाँकि यह दीगर बात है कि इस अधिकार से जनता की वास्तविक समस्याओं व माँगों का कोई स्थायी व ठोस समाधान सम्भव नहीं होता। वह पाँच साल के कुकर्मों के लिए सत्तासीन पार्टी को सत्ताच्युत कर सकती थी और किसी और पार्टी या गठबन्धन को चुन सकती थी। लेकिन आज यह अधिकार भी भाजपा की मोदी-शाह सत्ता द्वारा तरह-तरह से छीनने का प्रयास किया जा रहा है। नतीजतन, पूँजीवादी जनवाद का आज केवल खोल ही बाकी रह गया है। वास्तव में, हम एक फ़ासीवादी दौर में जी रहे हैं। यह एक गुणात्मक परिवर्तन है जिसे समझे बग़ैर आज देश की मेहनतकश जनता अपने हितों की हिफ़ाज़त के लिए संघर्ष नहीं कर सकती है। 2014 में मोदी सरकार के सत्ता में आने के साथ फ़ासीवादी ताक़तों की लहरों में जारी सत्ता पर चढ़ाई गुणात्मक रूप से एक नयी मंज़िल में पहुँच गयी। पिछले 10 सालों में पूँजीवादी जनवाद की सभी संस्थाओं और प्रक्रियाओं का जिस व्यवस्थित तरीके से मोदी-शाह की सत्ता ने ध्वंस किया है, वह इस बात का जीता-जागता प्रमाण है।
ऐसे में, यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि तमाम विपक्षी पूँजीवादी पार्टियाँ भाजपा के फ़ासीवादी शासन के विरुद्ध प्रभावी ढंग से नहीं लड़ सकती हैं। उनके पास अभी न तो पूँजीपति वर्ग के भारी आर्थिक समर्थन की ताक़त है, न उनके पास संघ परिवार जैसा सांगठनिक कैडर ढाँचा है और न ही वह विचारधारात्मक आधार है, जो कि भाजपा व संघ परिवार के पास है। ऊपर से, केन्द्रीय एजेंसियों पर क़ब्ज़ा कर उनका इस्तेमाल करके भाजपा ने सभी विपक्षी पूँजीवादी दलों की आर्थिक व राजनीतिक रीढ़ पर हमला किया है। इसके अलावा, व्यापक पैमाने पर जनता में उतर जाने की ताक़त इन पूँजीवादी पार्टियों के पास नहीं है। अगर आने वाले लोकसभा चुनावों में जनता के बीच मोदी सरकार की भारी अलोकप्रियता के कारण और ईवीएम में किये जाने वाले हेर-फेर के बावजूद, विपक्षी पार्टियों का गठबन्धन ‘इण्डिया’ जीत भी जाये, तो भाजपा और संघ परिवार की देश के समाज और राजनीति में पकड़ बनी रहेगी और आर्थिक संकट के फलस्वरूप व्यापक निम्न मध्यवर्गीय व टुटपुँजिया आबादी में मौजूद आर्थिक व सामाजिक असुरक्षा का लाभ उठाकर, किसी नक़ली दुश्मन, मसलन, मुसलमानों का भय पैदा करके वह फिर से और भी ज़्यादा आक्रामक तरीके से फिर से सरकार बनाने तक पहुँचेगी। क्या पिछले 26 वर्षों में यही नहीं होता रहा है? इसलिए कांग्रेस, सपा, आप, तृणमूल, शिवसेना, राकांपा , द्रमुक, राजद, भाकपा, माकपा आदि पार्टियाँ भाजपा व संघ परिवार को निर्णायक रूप से शिकस्त देने का काम नहीं कर सकतीं। यह काम केवल जनता कर सकती है, बशर्ते कि वह पूरे देश के पैमाने पर अपनी एक क्रान्तिकारी पार्टी को खड़ा करे, जो किसी भी रूप में पूँजीपति वर्ग के चन्दे व सहयोग पर नहीं बल्कि व्यापक मेहनतकश जनता के बूते चलती हो और जो बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार व साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर अपने जुझारू जनान्दोलन खड़ा कर मौजूदा सत्ता की चूलें हिला दे। केवल और केवल इन दो क़दमों के ज़रिये अन्तत: भाजपा व संघ परिवार के फ़ासीवादी प्रोजेक्ट को शिकस्त दी जा सकती है।
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‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ एक ऐसी ही पार्टी है। यह सभी मेहनतकशों की पार्टी है जो किसी और के श्रम का शोषण नहीं करते, अपनी मेहनत के बूते अपनी रोज़ी–रोटी कमाते हैं, जो कल–कारख़ानों में, खेतों में, खानों–खदानों में, सरकारी और निजी कार्यालयों में काम करते हैं, शहरों–गाँवों में अनौपचारिक कामगार के रूप में मेहनत करते हैं। यह मेहनत मुख्य तौर पर मानसिक हो सकती है या मुख्य तौर पर शारीरिक हो सकती है। दोनों ही प्रकार के श्रमिकों के श्रम के बूते ही समाज के पूँजीपति वर्ग यानी मालिकों, ठेकेदारों, जॉबरों, दलालों, कुलकों-धनी किसानों आदि का मुनाफ़ा आता है। किसी का मुनाफ़ा छोटा हो सकता है, मँझोला हो सकता है तो किसी का बड़ा। मालिक चाहे छोटा हो, बड़ा हो, या मँझोला, लेकिन अगर वह दूसरों की मेहनत का फल हड़पता है, तो वह पूँजीपति ही है, वह शोषक ही है।
इन लोकसभा चुनावों में ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ (यहाँ से RWPI) छह लोकसभा क्षेत्रों से अपने उम्मीदवारों को उतार रही है : दिल्ली उत्तर-पूर्व, दिल्ली उत्तर-पश्चिम, मुम्बई उत्तर-पूर्व, पुणे, अम्बेडकरनगर और कुरुक्षेत्र। हम इन सभी लोकसभा क्षेत्रों के समस्त आम मेहनतकश लोगों से अपील करते हैं और उनका आह्वान करते हैं कि भारत के मेहनतकश वर्गों की स्वतन्त्र राजनीतिक पार्टी यानी RWPI को वोट करें और एक ऐसे जन प्रतिनिधि को चुनें जो सही मायने में आपके हितों की नुमाइन्दगी कर सकता हो और जिसकी आपके प्रति जवाबदेही हो। केवल RWPI का उम्मीदवार ही जीतने पर संसद में आपके हितों के लिए संघर्ष कर सकता है और मौजूदा व्यवस्था के दायरे के भीतर सम्भव हक़ों को हासिल करने के लिए लड़ सकता है। निश्चित ही, यह लड़ाई भी तभी अर्थपूर्ण होती है जब वह समूचे समाज और समूची व्यवस्था के मज़दूरों-मेहनतकशों के इंक़लाब द्वारा क्रान्तिकारी रूपान्तरण की लम्बी लड़ाई का एक हिस्सा हो, उसे आगे बढ़ाने का काम करती हो और मौजूदा व्यवस्था के बारे में विभ्रम पैदा करने के बजाय वह उसकी सीमाओं को उजागर करती हो। केवल RWPI ही एक ऐसी पार्टी है जो आम जनता के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष को मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के चुनावों के क्षेत्र में निर्मित कर सकती है और उसके राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक हितों की नुमाइन्दगी कर सकती है और इस या उस पूँजीवादी पार्टी का पिछलग्गू बनने की विभीषिका से आम मेहनतकश जनता को बचा सकती है। क्योंकि यही एकमात्र पार्टी है, जो अपने समस्त संसाधनों, नीति-निर्माण और गतिविधियों के लिए मेहनतकश वर्गों पर निर्भर करती है और ठीक इसीलिए मेहनतकश वर्गों के हितों की सेवा करती है।
बाक़ी सभी लोकसभा क्षेत्रों में हम जनता से यह कहना चाहते हैं कि आज देश में मेहनतकश जनता की सबसे बड़ी दुश्मन मोदी–शाह की फ़ासीवादी सरकार है। निश्चय ही, कांग्रेस, सपा, राजद, द्रमुक, शिवसेना (उद्धव), तृणमूल, आप, भाकपा, माकपा आदि सभी चुनावबाज़ दल पूँजीपति वर्ग के ही किसी न किसी हिस्से की नुमाइन्दगी करते हैं। लेकिन मालिकों के वर्ग की फ़ासीवादी पार्टी और मालिकों के ही वर्ग की अन्य पूँजीवादी पार्टियों में फ़र्क़ करना ज़रूरी होता है। फ़ासीवादी पार्टी पूँजीवादी लोकतन्त्र को या तो औपचारिक तौर पर रद्द कर देती है (जैसा कि हिटलर की नात्सी पार्टी ने जर्मनी में और मुसोलिनी की फ़ासीवादी पार्टी ने इटली में किया था) या फिर दीर्घकालिक संकट से ग्रस्त पूँजीवाद के दौर में उसे अन्दर से कुतर जाती है और उसका महज़ खोल बचा रह जाता है। कांग्रेस समेत अन्य पूँजीवादी पार्टियाँ आज बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध या उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध जितना भी जनवादी चरित्र नहीं रखती हैं, लेकिन फिर भी भाजपा जैसी फ़ासीवादी पार्टी और अन्य सभी मालिकों व धनपतियों के वर्ग की पार्टियों में निश्चय ही अहम फ़र्क़ है, जो पिछले दस वर्षों में हरेक नागरिक ने महसूस किया है। इसलिए तात्कालिक तौर पर जनता को अगर कुछ राहत भी चाहिए, अपने आपको एक राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र मेहनतकशों की पार्टी में संगठित करने के लिए कुछ मोहलत भी चाहिए, तो अन्य सभी लोकसभा क्षेत्र में उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भारतीय गणराज्य के इतिहास की सबसे तानाशाहाना, फ़ासीवादी, फ्रॉड, भ्रष्टाचारी, फ़िरकापरस्त, धर्म के नाम पर लड़ाने वाली साम्प्रदायिक शक्ति, यानी भाजपा को चुनाव में हराएँ। यह सर्वप्रथम जनता की एक जीत होगी। महज़ चुनावी हार से निश्चय ही फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार की निर्णायक पराजय नहीं होगी। जो लोग सरकार और राज्यसत्ता में अन्तर नहीं करते, वही भाजपा की चुनावी हार को फ़ासीवाद की निर्णायक हार समझ सकते हैं।
राज्यसत्ता कोई अस्थायी निकाय नहीं जो हर पाँच वर्ष में बदलती हो; उसकी नौकरशाही, उसकी पुलिस, सेना, अर्द्धसैनिक बल, उसकी न्यायपालिका आदि स्थायी निकाय होते हैं और पूँजीपति वर्ग की सेवा करते हैं। यदि उस निकाय पर ही फ़ासीवादी शक्तियाँ अन्दर से क़ब्ज़ा जमा लें, यानी अन्दर से उसका टेकओवर कर लें, तो यह सम्भव है कि आपवादिक स्थिति में पूँजीवादी लोकतन्त्र के खोल को बरक़रार रखने से पैदा होने वाले अन्तरविरोधों के कारण न्यायपालिका के कुछेक फ़ैसले भी फ़ासीवादी सरकार के ख़िलाफ़ जा सकते हैं, यहाँ तक कि फ़ासीवादी पार्टी भारी अलोकप्रियता के कारण चुनाव हारकर सरकार से बाहर भी जा सकती है। लेकिन ऐसा होने पर भी पूँजीवाद के दीर्घकालिक मन्दी का शिकार होने पर वह फिर से और भी अधिक आक्रामक तरीके से सत्ता में पहुँचेगी क्योंकि किसी अन्य पूँजीवादी दल की सरकार भी पूँजीवादी व्यवस्था को उसके संकट से निजात नहीं दिला सकती है। ऐसे में, फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय आज के दौर में एक नयी समाजवादी क्रान्ति के साथ ही सम्भव है। यह नयी समाजवादी क्रान्ति ही हमारा दूरगामी लक्ष्य है। लेकिन ऐसी क्रान्ति को अंजाम देने की क्षमता रखने वाली, यानी आम मेहनतकश वर्गों के क्रान्तिकारी कोर की भूमिका निभाने की ताक़त रखने वाली सर्वहारा वर्ग की एक देशव्यापी हिरावल पार्टी अभी मौजूद नहीं है। अभी जनता की ताक़तें बिखरी हुई हैं। बेरोज़गारी, महँगाई, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता से जनता त्रस्त है लेकिन उसके ख़िलाफ़ संगठित नहीं है। ऐसे में, एक फ़ासीवादी सरकार का चुनाव हारना जनता की शक्तियों को निश्चय ही एक सीमित ही सही, लेकिन तात्कालिक राहत देगा। वह उन्हें गोलबन्द और संगठित होने का एक सीमित अवसर देगा।
इसलिए हम जनता से अपील करेंगे कि उपरोक्त उल्लिखित छह लोकसभा क्षेत्रों में RWPI को वोट दें, यह आपकी अपनी पार्टी है जो 12 राज्यों में काम कर रही है, जिसने ज़मीन पर रहकर जनता के कई आन्दोलनों को नेतृत्व दिया है, मार्गदर्शन दिया है और इसके ज़रिये कई आन्दोलनों को जीत के मुक़ाम तक पहुँचाया है, जो हमेशा ‘जनता की सेवा करो’ के उसूल पर अमल करती है, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता के बीच से ही अपने संसाधनों को जुटाती है; आप केवल एक ऐसी पार्टी पर ही भरोसा कर सकते हैं।
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दूसरा, अन्य सभी चुनाव क्षेत्रों में वोट करते समय याद रखें कि भाजपा और संघ परिवार आम मेहनतकश जनता के यानी मज़दूरों, ग़रीब किसानों, निम्न व आम मध्यवर्गीय लोगों, स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों व मुसलमानों के सबसे बड़े और सबसे ख़तरनाक दुश्मन हैं। मोदी राज के 5 और वर्ष जनता के जीवन में अभूतपूर्व तबाही लायेंगे, जनता के जनवादी अधिकारों के बचे-खुचे खण्डहर पर भी फ़ासीवादी तानाशाही का बुलडोज़र चलायेंगे और जनता की प्रतिरोध करने की क्षमता पर हर सम्भव हमला करेंगे। वैसे भी इलेक्टोरल बॉण्ड महाघोटाले ने यह हम सबके सामने साफ़ कर दिया है कि मोदी सरकार पूरी तरह से पूँजीपति वर्ग के हितों के लिए ही काम करती है, इसके लिए हर सम्भव घपले-घोटाले करती है, और अपने इन्हीं कुकर्मों को रामनामी दुपट्टे और धर्मध्वजा में छिपाने की कोशिश करती है। देश के बड़े-बड़े अमीर बेवकूफ़ तो हैं नहीं कि भाजपा को अरबों-खरबों रुपये का चुनावी चन्दा भेंट कर रहे हैं और न ही वे समाज-सेवा के लिए ऐसा कर रहे हैं! अब तो सबूत भी मिल चुका है कि इन्हीं अरबों-खरबों रुपये के चन्दे के बदले में भाजपा इन धनपशुओं को बड़े-बड़े सरकारी ठेके दे रही है, हज़ारों करोड़ रुपये की टैक्स छूट दे रही है, सारे भ्रष्टाचार करने की आज़ादी दे रही है, घोटालों को लेकर इन कम्पनियों और पूँजीपतियों पर चले रहे केसों और मुक़दमों को बन्द कर रही है। अब तो ये सब बातें बिल्कुल सामने हैं। इसके बाद भी कोई धर्म और जाति के नाम पर या अन्धराष्ट्रवादी उन्माद में बहकर बेवकूफ़ बनता है, भाजपा के “सदाचार, नैतिकता, धर्मध्वजाधारिता, राष्ट्रवाद, चाल-चेहरा-चरित्र” के ढोंग और नौटंकी में फँसता है, तो उसे मानसिक चिकित्सक की आवश्यकता है। स्पष्ट है कि आज मोदी-शाह सरकार की हार तात्कालिक तौर पर देश की मेहनतकश आम जनता के लिए ज़रूरी है। यह फ़ासीवादी ताक़तों की निर्णायक हार नहीं होगी, लेकिन यह जनता की बिखरी शक्तियों को अपने आपको गोलबन्द और संगठित करने का एक सीमित ही सही पर अवसर अवश्य देगा।
ज़ाहिरा तौर पर, आम मेहनतकश आबादी का बहुलांश सच्चाई को देख और समझ रहा है और मन ही मन फ़ैसला भी ले रहा है। जिन लोगों ने आपकी नोटबन्दी की, जीएसटी लगाकर और पेट्रोलियम उत्पादों पर अन्यायपूर्ण कर लगाकर महँगाई बढ़ायी, धर्म के नाम पर आपको बेवकूफ़ बनाया, इलेक्टोरल बॉण्ड में हज़ारों करोड़ का घोटाला कर आपको लूटा, ईवीएम घपले के ज़रिये आपके जनवादी अधिकार को छीनने का प्रयास किया, अब आप उनकी वोटबन्दी करें।
मौजूदा राजनीतिक स्थिति और हमारे कार्यभार
हमारे देश में मौजूदा राजनीतिक स्थिति यह है कि एक फ़ासीवादी पार्टी ने राज्यसत्ता के निकायों पर एक दशकों लम्बी चली प्रक्रिया में अन्दर से क़ब्ज़ा जमाया है। चाहे हम नौकरशाही की बात करें, पुलिस व सेना की बात करें, या फिर न्यायपालिका व चुनाव आयोग, इनफोर्समेण्ट डाइरेक्टोरेट, आयकर विभाग व सीबीआई जैसी केन्द्रीय संस्थाओं की बात करें, सबके भीतर संघ परिवार व भाजपा के लोग बड़े पैमाने पर घुसाये जा चुके हैं। इसी प्रकार समूची शिक्षा व्यवस्था का व्यवस्थित तौर पर साम्प्रदायीकरण जारी है। मीडिया के बारे में तो जितना कहा जाय, उतना कम है। गोदी मीडिया का नाम, जो कारपोरेट मीडिया को आज दिया गया है, वह बिल्कुल सटीक है। मीडिया में बैठे एंकरों व पत्रकारों से ज़्यादा नैतिकता की उम्मीद आप एक वेश्यालय के दलाल से कर सकते हैं।
पहले इलेक्टोरल ट्रस्टों के घोटाले के ज़रिये हज़ारों करोड़ का चन्दा बटोर रही भाजपा अब इलेक्टोरल बॉण्ड के महाघोटाले के ज़रिये हज़ारों करोड़ रुपये का चन्दा बड़ी-बड़ी कम्पनियों व पूँजीपतियों से पा रही है। बदले में वह उन्हें लाखों करोड़ का मुनाफ़ा पीटने के लिए मेहनत और कुदरत, यानी हमारी श्रमशक्ति और प्राकृतिक संसाधनों को जमकर लूटने की छूट दे रही है, टैक्सों से हज़ारों करोड़ की छूट दे रही है, उनके हज़ारों करोड़ के क़र्ज़ माफ़ कर रही है, जनता के संसाधनों से खड़े किये गये सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों को उन्हें औने-पौने दामों पर बेच रही है और तमाम भ्रष्टाचारी धन्नासेठों को तमाम मुक़दमों से आज़ादी दे रही है। सीधा मामला भ्रष्टाचारी तरीके से लेन–देने का है: हज़ारों करोड़ का चन्दा दो, लाखों करोड़ का मुनाफ़ा लो! अब इसके अकाट्य प्रमाण देश की जनता के सामने हैं।
इलेक्टोरल बॉण्ड महाघोटाले में जिन कम्पनियों का मुनाफ़ा ही 2 करोड़ का था, उन तक ने सैकड़ों करोड़ से ज़्यादा का चन्दा दिया है! ऐसा कैसे हुआ? दरअसल ये कम्पनियाँ अम्बानियों, अडानियों की शेल कम्पनियाँ, यानी दिखावटी कम्पनियाँ हैं, जिनके ज़रिये ये बड़े–बड़े धन्नासेठ अपने काले धन को सफ़ेद कर रहे हैं। पहले मोदी सरकार ने नोटबन्दी के ज़रिये देश के लुटेरे अमीरज़ादों को काले धन को सफ़ेद धन को बनाने का अवसर दिया था और इलेक्टोरल बॉण्ड के महाघोटाले के ज़रिये और भी बड़े पैमाने पर यह काम करने का मौक़ा दिया गया है।
ईडी (एनफ़ोर्समेण्ट डाइरेक्टोरेट) मोदी सरकार के इशारे पर तमाम विपक्षी नेताओं व पार्टियों को पंगु बनाने के लिए तो तत्परता से छापे मार रही है, उन्हें जेलों में डाल रही है, ख़ास तौर पर इस इरादे से कि इन भ्रष्टाचारियों को डराकर भाजपा में शामिल कर लिया जाये लेकिन इलेक्टोरल बॉण्ड से उजागर हुए अब तक के सबसे बड़े महाघोटाले के आरोपी अमीरज़ादों व धन्नासेठों पर और उनसे हज़ारों करोड़ का फण्ड लेने वाली भाजपा के नेताओं पर अभी तक ईडी ने कोई कार्रवाई नहीं की है और सर्वोच्च न्यायालय भी इसके बारे में चुप्पी साधे हुए है। इस बात की कोई जाँच नहीं की जा रही है और न ही सर्वोच्च न्यायालय इसका संज्ञान ले रहा है कि कम्पनियों पर छापों के फ़ौरन बाद उन्होंने इलेक्टोरल बॉण्ड ख़रीदकर भाजपा को क्यों दिये? इलेक्टोरल बॉण्ड के ज़रिये हज़ारों करोड़ रुपये देने वाली कम्पनियों को बॉण्ड देने के बाद ही सरकारी ठेके क्यों मिले, क़ानूनी मुक़दमों से छूट क्यों मिली, या सम्पत्ति कर आदि से हज़ारों करोड़ की छूट कैसे मिली? पूँजीवादी जनवाद के खोल की लाज बचाने के लिए और उसके विभ्रम को बनाये रखने के लिए इलेक्टोरल बॉण्ड सम्बन्धी सूचना को सर्वोच्च न्यायालय ने ज़रूर सार्वजनिक करवाया, लेकिन अगर इसके आधार पर कोई कार्रवाई ही नहीं होती है, तो इसका क्या अर्थ रह जायेगा?
इसी प्रकार चुनावों से ठीक पहले, आचार संहिता लागू होने के बाद, मोदी सरकार के इशारे पर विपक्षी नेताओं पर छापे डाले जा रहे हैं, उन्हें जेल में डाला जा रहा है, कांग्रेस के खातों को सील कर दिया गया है और उसे हर रोज़ आयकर विभाग के नये-नये नोटिस थमाये जा रहे हैं। लेकिन चुनाव आयोग इसका कोई संज्ञान नहीं ले रहा है। वजह साफ़ है : चुनावों से ठीक पहले मोदी सरकार ने नये असंवैधानिक क़ानून के तहत आनन-फ़ानन में दो नये चुनाव आयुक्तों को नियुक्त किया है। इस पर सर्वोच्च न्यायालय भी कोई संज्ञान नहीं ले रहा। नियुक्ति के लिए चुने गये नामों को चुनने वाली कमेटी में प्रधानमन्त्री, सरकार का एक अन्य मन्त्री और विपक्ष का नेता है। ज़ाहिर है, कमेटी का बहुमत भाजपा के लोगों से बनता है और चुनाव आयुक्त भी उन्हीं के अनुसार चुना जायेगा और फिर उन्हीं के अनुसार काम करेगा। यह समझने के लिए महाज्ञानी होने की कोई आवश्यकता नहीं है।
ईवीएम का मसला कोई छोटा-मोटा मसला नहीं है। पिछले 10 साल में हुए दो लोकसभा चुनावों और तमाम विधानसभा चुनावों में ईवीएम घोटाले पर दर्जनों सवाल उठ चुके हैं। एक इंजीनियर हरिप्रसाद ने ईवीएम को मैनीपुलेट करके, यानी उसमें गड़बड़ करके एक दशक से भी पहले दिखा दिया था। तब उसके साथ क्या हुआ था? उसे अनधिकृत स्रोत से असली ईवीएम मशीन प्राप्त करने के आरोप में जेल में डाल दिया गया था! किसी ने उसके द्वारा यह साबित किये जाने पर कोई बात नहीं की कि ईवीएम पर भरोसा नहीं किया जा सकता है, किसी भी इलेक्ट्रॉनिक मशीन के समान इसे मैनीपुलेट किया जा सकता है। उसके बाद जेल से आने पर उसने फिर से चुनाव आयोग को चुनौती दी और बार–बार चुनौती दी कि वह नये मॉडल की ईवीएम मशीन को भी मैनीपुलेट करके दिखा देगा। लेकिन चुनाव आयोग उसकी कोई बात नहीं सुन रहा है। इसी प्रकार अन्य कई व्यक्तियों व समूहों ने चुनाव आयोग को चुनौती दी है कि वह ईवीएम में गड़बड़ करके नतीजे बदलकर दिखा सकते हैं। लेकिन चुनाव आयोग उन्हें मिलने का वक़्त तक नहीं दे रहा है और न ही सर्वोच्च न्यायालय लोकतान्त्रिक प्रक्रिया की विश्वसनीयता को सुनिश्चित करने के लिए हस्तक्षेप कर रहा है।
सुप्रीम कोर्ट के कई वकील भी चुनाव आयोग को ऐसी ही चुनौती दे रहे हैं, लेकिन चुनाव आयोग सुनने को तैयार नहीं है। ईवीएम मैन्युफ़ैक्चर करने वाली कम्पनियों के निदेशक मण्डल में भाजपा के लोग बिठाये जा चुके हैं। स्पष्ट है कि ऐसी ईवीएम पर भरोसा किया ही नहीं जा सकता। खुद भाजपा सत्ता में आने से पहले ईवीएम के भरोसेमन्द न होने पर अभियान चला रही थी, किताबें छाप रही थी। इसके नेता जीवीएल नरसिंह राव ने इस पर किताब लिखी थी, जिसकी प्रस्तावना भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने लिखी थी। लेकिन अब ईवीएम पर कोई सवाल नहीं है, क्योंकि ईवीएम की पूरी व्यवस्था भाजपा के नियन्त्रण में आ चुकी है।
इसी प्रकार 19 लाख ईवीएम मशीनें ग़ायब हैं। ऐसा सरकारी मशीनरी की मिलीभगत के बिना कैसे सम्भव है? दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने, जो वोटिंग की प्रक्रिया के विशेषज्ञ हैं, दिखला दिया है कि ईवीएम वोटिंग को कोई भी सत्तासीन सरकार अपने अनुसार मैनीपुलेट कर सकती है। कोई तो वजह होगी कि दुनिया के लगभग सभी देश जो ईवीएम वोटिंग पर गये थे, वे बैलट पेपर से चुनाव कराने पर वापस आ गये। कुछ देशों में तो सर्वोच्च न्यायलय ने ईवीएम को हटाकर बैलट पेपर की व्यवस्था पर जाने का आदेश दे दिया। लेकिन हमारे यहाँ चुनाव आयोग ईवीएम मशीन के साथ 100 प्रतिशत वीवीपैट मिलान की माँग को भी नहीं स्वीकार रहा है! चुनावों के ठीक पहले सर्वोच्च न्यायालय ने वीवीपैट मिलान के बारे में चुनाव आयोग को अपना पक्ष रखने का नोटिस दिया है। ज़ाहिर है, इस मसले पर कुछ भी हो पाये, इससे पहले चुनाव ही सम्पन्न हो जायेंगे! हमारा सर्वोच्च न्यायालय आम तौर पर ईवीएम की विश्वसनीयता पर अब कोई याचिका तक सुनने को तैयार नहीं है! पहले की याचिकाओं में उसने चुनाव आयोग को अपनी दलील पेश करने को कहा और जब चुनाव आयोग ने बोल दिया कि ईवीएम के साथ “सब चंगा सी” तो सर्वोच्च न्यायालय ने बस “ओके” बोल दिया और याचिकाएँ रद्द कर दीं। न तो वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों द्वारा कोई जाँच हुई, न 19 लाख लापता ईवीएम मशीनों की कोई जाँच हुई, न 100 प्रतिशत वीवीपैट मिलान की एकदम जायज़ माँग की कोई सुनवाई हुई। यह भी ग़ौरतलब है कि ईवीएम सम्बन्धी ताज़ा याचिकाओं की सुनवाई से चीफ़ जस्टिस चन्द्रचूड़ ने अपने आपको अलग कर लिया था। जो लोग सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इलेक्टोरल बॉण्ड के फ़ैसले पर तालियाँ पीट रहे हैं, वे पेड़ को देख पा रहे हैं, जंगल को नहीं।
कुल मिलाकर, भारत की पूँजीवादी राज्यसत्ता के समस्त निकायों, संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर आन्तरिक रूप से क़ब्ज़ा जमाने का काम संघ परिवार गुणात्मक रूप से नयी मंज़िल में ले जा चुका है। ऐसे में, पूँजीवादी विपक्ष के अधिकांश दलों को, जो चुनावी मैदान में भाजपा के विरुद्ध लड़ रहे हैं, उन्हें दन्त-नखविहीन बनाने की कार्रवाई मोदी सरकार लगातार बेशर्मी और नंगई के साथ कर रही है। ‘लेवल प्लेइंग फ़ील्ड’ यानी समान अवसरों की व्यवस्था का मख़ौल हर दिन बनाया जा रहा है।
निश्चित तौर पर, मेहनतकश आबादी केवल पूँजीवादी जनवाद को अपना लक्ष्य नहीं बनाती क्योंकि वह जानती है कि यह धनाढ्य वर्गों के लिए वास्तव में जनवाद होता है और मज़दूरों, ग़रीब किसानों, निम्न व मँझोले मध्यम वर्ग लिए यह बहुत सीमित जनवादी अधिकार देता है और मूलत: अमीरों की तानाशाही होता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इस पूँजीवादी जनवाद द्वारा प्रदत्त जो भी सीमित अधिकार हैं, उन्हें एक फ़ासीवादी सत्ता द्वारा रद्द किये जाने पर वह तमाशबीन बनी रहती है या तालियाँ बजाती है। सच है कि व्यवस्थागत परिवर्तन हमेशा क्रान्ति के ज़रिये होते हैं, चुनावों के ज़रिये नहीं। लेकिन इस सच्चाई को समझने का यह अर्थ नहीं होता कि चुनावों को भंग किये जाने या चुनावों की प्रक्रिया को ही बरबाद कर देने का मेहनतकश वर्ग समर्थन कर सकते हैं। अमीरों के लोकतन्त्र की आलोचना करने का यह अर्थ नहीं कि वे किसी फ़ासीवादी तानाशाही, सैन्य तानाशाही या राजतन्त्र की स्थापना का समर्थन करने लगते हैं! उनका लक्ष्य पूँजीवादी लोकतन्त्र से प्रगतिशील दिशा में आगे जाना होता है, समाजवाद और सर्वहारा जनवाद की ओर जाना होता है। वे समझते हैं कि उसके वास्तविक अधिकारों की लड़ाई और एक नयी न्यायपूर्ण सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था को स्थापित करने का क्रान्तिकारी संघर्ष इस जनवाद की ज़मीन पर कहीं बेहतर तरीके से लड़ा जा सकता है।
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निश्चय ही, कांग्रेस, आप, तृणमूल, द्रमुक, राजद, आदि मेहनतकश वर्गों के हितों की नुमाइन्दगी नहीं करती हैं। कई पूँजीवादी पार्टियों की मौजूदगी जनता को बस एक ही अधिकार देती है: सत्तासीन पार्टी की जनविरोधी नीतियों व कुकर्मों के लिए अगले चुनावों में उसे दण्डित करना और किसी और पार्टी को चुनना। यह बेहद सीमित अर्थों में पूँजीवादी दलों को भी जनता को कुछ अधिकार देने और कुछ कल्याणवाद करने के लिए मजबूर कर सकता है। राजनीतिक तौर पर एक तानाशाहाना फ़ासीवादी पार्टी और अन्य पूँजीवादी दलों में अन्तर होता है, हालाँकि जहाँ तक आर्थिक नीतियों का प्रश्न है, आज के नवउदारवादी दौर में उनके बीच एक ही अन्तर है : फ़ासीवादी भाजपा निजीकरण व उदारीकरण की नीतियों को सबसे तानाशाहाना, बर्बर, नग्न और जनवादी अधिकारों को फ़ासीवादी तरीके से रौंदते हुए कहीं तेज़ रफ़्तार से लागू करती है, तो अन्य पार्टियाँ उन्हीं नीतियों को थोड़े दिखावटी कल्याणवाद के साथ मिश्रित कर, थोड़ा जनवाद का दिखावा करते हुए और अपेक्षाकृत कम रफ़्तार से लागू करती हैं, क्योंकि उनका राजनीतिक चरित्र ही ऐतिहासिक तौर पर ऐसा रहा है।
समय-समय पर अपना ग़ैर-जनवादी चेहरा दिखाने वाली अन्य सभी पूँजीवादी पार्टियाँ वह सबकुछ नहीं कर सकती हैं, जो भाजपा और संघ परिवार कर सकते हैं, क्योंकि फ़ासीवाद टुटपुँजिया वर्गों का एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन होता है जो पूँजीपति वर्ग और विशेष तौर पर बड़े पूँजीपति वर्ग की सेवा करता है। मालिकों व अमीरों के वर्ग की अन्य पार्टियों से भिन्न संघ परिवार व भाजपा के पास एक काडर-आधारित संगठन है, उसके पीछे एक प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन खड़ा है और उसकी राज्यसत्ता के निकायों में गहरी पैठ है। इसलिए वह अन्य सभी पार्टियों से गुणात्मक रूप से भिन्न रूप में जनवादी अधिकारों पर हमला कर सकती है, उन्हें निरस्त कर सकती है और वह भी इस तरीक़े से कि औपचारिक तौर पर लोकतन्त्र का बस खोल बचा रहे। राजनीतिक जनवाद का मसला देश की जनता के लिए कोई छोटा–मोटा मसला नहीं है। राजनीतिक जनवाद पर होने वाले हर हमले पर जवाब देना जनता के लिए बेहद ज़रूरी होता है। इसलिए यह समझना आज अनिवार्य है कि देश की जनता की सबसे ख़तरनाक और सबसे बड़ी शत्रु फ़ासीवादी भाजपा और समूचा संघ परिवार है।
जैसा कि हमने ऊपर बताया, फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय आज मेहनतकशों की नयी समाजवादी क्रान्ति के ज़रिये ही हो सकती है। लेकिन चुनावों में हार के साथ सरकार से बाहर जाना, उनके लिए एक तात्कालिक झटका होगा। यह झटका जनता को अपने आपको गोलबन्द और संगठित करने और एक देशव्यापी क्रान्तिकारी पार्टी को संगठित करने का कुछ मौक़ा और मोहलत देगा, जो समूची मेहनतकश जनता के क्रान्तिकारी कोर की भूमिका निभा सकती है। साथ ही, यह जनता को रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा व आवास के अधिकारों के लिए अपने संघर्ष को भी व्यापक पैमाने पर संगठित करने का मौक़ा देगा।
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मुसलमानों को दुश्मन के तौर पर पेश करना फ़ासीवादी संघ परिवार की एक चाल है। वास्तव में, मुनाफ़ा–केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था और मुनाफ़ाखोर पूँजीपति वर्ग के सारे कुकर्मों का ठीकरा फोड़ने के लिए उसे एक नक़ली दुश्मन चाहिए। जो मुनाफ़ा–केन्द्रित व्यवस्था व्यापक आम मेहनतकश जनता को रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा, आवास, महँगाई से मुक्ति और सामाजिक–आर्थिक सुरक्षा मुहैया नहीं करा सकती, वह अमीरज़ादों की मुनाफ़ाखोरी और हवस का ठीकरा किसी न किसी अल्पसंख्यक आबादी पर फोड़कर बहुसंख्यक समुदाय की आम मेहनतकश जनता के समक्ष अपने आपको दोषमुक्त करने का प्रयास करती है। इसीलिए किसी न किसी अल्पसंख्यक आबादी को फ़ासीवादी शक्तियाँ दुश्मन के तौर पर और सारी समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार के तौर पर पेश करने की चाल चलती हैं।
जर्मनी में हिटलर ने यहूदियों को दुश्मन बनाकर सारी जर्मन जनता की राजनीतिक चेतना भ्रष्ट की थी और जर्मनी के अमीरज़ादों व धन्नासेठों को बचाया था। उसी प्रकार, संघ परिवार यह काम हमारे देश में मुसलमानों को दुश्मन बताकर करता है। उनके ख़िलाफ़ अफ़वाहों को फैलाकर, जनता की धार्मिक भावनाओं का इस्तेमाल करके, साम्प्रदायिक राजनीति का प्रचार-प्रसार करके वह उन्हें निशाना बनाता है। इसके लिए वह ‘लव जिहाद’, ‘गोरक्षा’ आदि की नौटंकियाँ करता है, जिसकी पोल अब जनता के बीच खुल चुकी है। ख़ुद भाजपा नेताओं ने और उनके बेटे-बेटियों ने अन्तर्धामिक शादियाँ की हैं, चाहे वह शाहनवाज़ हुसैन हो, मुख़्तार अब्बास नकवी हो, सिकन्दर बख़्त हो, या फिर सुब्रमन्यम स्वामी की बेटी। क्या आपने कभी सोचा है कि संघ परिवार के लम्पट कभी इनके घरों पर हमला क्यों नहीं करते? साफ़ है : यह आपको और हमको बाँटने की साज़िश है। प्रेम और विवाह दो लोगों का निजी मसला है, उसमें सरकार या किसी पार्टी को दख़लन्दाज़ी करने का कोई हक़ नहीं है। उसी प्रकार, भाजपा उत्तर भारत में गाय को ‘माता’ बताती है लेकिन केरल, गोवा और उत्तर-पूर्व के राज्यों में भाजपा के नेता बीफ़ की सप्लाई को बढ़ाने के वायदे करते हैं। अभी तो भाजपा को इलेक्टोरल बॉण्डों के ज़रिये बीफ़ कम्पनियों से 55 करोड़ का चन्दा मिला है! अब आप ख़ुद इनकी नौटंकी को समझ लीजिए। इसके अलावा समय-समय पर कभी पाकिस्तान तो कभी चीन के ख़िलाफ़ अन्धराष्ट्रवादी युद्धोन्माद भड़काकर भी भाजपा देश की जनता को मूर्ख बनाने का काम करती है। इनके “राष्ट्रवाद” की पोल तो कारगिल युद्ध के दौरान ताबूत की ख़रीद में हुए घोटाले से लेकर पुलवामा हमले की असलियत तक ने खोल दी थी। अग्निवीर योजना के ज़रिये मोदी सरकार अब ठेके पर देश के नौजवानों से “राष्ट्रभक्ति” भी करवाना चाहती है! ये सच्चाइयाँ जानकर भी जो इनके द्वारा फैलाये गये उन्माद में बहेगा, वह अपने ही पाँव पर कुल्हाड़ी मारेगा, हर मेहनतकश को यह बात अपने दिमाग़ में बिठा लेनी होगी।
भाजपा ने साम्प्रदायिक राजनीति की सिगड़ी गर्म रखने के लिए फिर से सीएए-एनआरसी का मुद्दा उछाल दिया है। आप एक बार इस क़ानून को पढ़ें। यह सीधे-सीधे धार्मिक आधार पर भेदभाव करने वाला, विशेष तौर पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ भेदभाव करने वाला एक साम्प्रदायिक क़ानून है। हाल में मोदी सरकार द्वारा नागरिकता संशोधन क़ानून (सीएए) को लागू करने की घोषणा भी की गयी। यह घोषणा 2024 के चुनावों से ऐन पहले करने के पीछे का असली मक़सद वोटों का साम्प्रदायिक आधार पर ध्रुवीकरण है। “हिन्दू ह्रदय सम्राट” की छवि बनाने के लिए नरेन्द्र मोदी और भाजपा ने अनुछेद 370 को निरस्त करने से लेकर राम मन्दिर के उद्घाटन तक और बार-बार समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को लागू करने के प्रयास (हालाँकि फ़िलहाल विरोध के चलते मोदी सरकार इसे लागू नहीं कर सकी है) के हथकण्डे अपनाये। 2019 से ही मोदी सरकार सीएए-एनआरसी को लागू करवाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही थी। हालाँकि देशव्यापी जन प्रतिरोध के चलते वह तत्काल इस दिशा में कुछ कर नहीं पायी थी। अब चुनावों से पहले अपनी बढ़ती अलोकप्रियता को कुछ हद तक नियन्त्रित करने के लिए भाजपा और नरेन्द्र मोदी हिन्दू आबादी को सीएए के ज़रिये लुभाने की फ़िराक़ में हैं। इस क़ानून के तहत प्रावधान किये गये हैं कि अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिन्दू, सिख, पारसी, जैन, ईसाई और बौध धर्म को मानने वालों में से जो 31 दिसम्बर, 2014 के पहले भारत में प्रवेश कर चुके हैं वे भारत की नागरिकता पाने के हक़दार होंगे। इस क़ानून के अन्तर्गत न केवल इन तीन देशों के मुसलमानों को नागरिकता के अधिकार से वंचित रखा गया है बल्कि भारत के अन्य पड़ोसी देशों के सभी लोगों को भी बाहर रखा गया है। सरकार अगर धार्मिक प्रताड़ना के आधार पर नागरिकता देने को शर्त बना रही है तो फिर इस क़ानून के तहत म्यांमार के रोहिंग्या, श्रीलंका के तमिलों, चीन के उइगर व तिब्बती लोगों, पाकिस्तान के अहमदिया, बलूच व शिया लोगों और अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान से उत्पीड़ित हज़ारों लोगों को नागरिकता क्यों नहीं दी जा रही है? स्पष्ट है कि भाजपा और मोदी सरकार अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति पर अमल करते हुए साम्प्रदायिक आधार पर नागरिकता देकर देश के मुसलमानों में डर का माहौल पैदा करने का काम कर रहे हैं और देश की आम मेहनतकश आबादी को इसके ज़रिये आपस में ही बाँटने का काम कर रहे हैं। देश के मेहनतकशों को यह समझना होगा कि आज मोदी सरकार चुनावों से पहले सीएए क़ानून सिर्फ़ हिन्दू आबादी के वोट बटोरने के लिए लेकर आयी है और चुनावों के बाद इसका अगला क़दम एनआरसी रजिस्टर तैयार करना होगा। जिसका अर्थ यह होगा कि एक बड़ी आबादी नागरिकता के दायरे से बाहर कर दी जायेगी जिसमें हर धर्म के मेहनतकश और ग़रीब शामिल होंगे जैसा कि असम में हुआ भी जहाँ आवश्यक दस्तावेज़ों के अभाव में 19 लाख लोग नागरिकता के दायरे से बाहर कर दिये गये थे जिसमें बहुसंख्यक हिन्दू थे और लगभग 70 प्रतिशत स्त्रियाँ थीं। यह बात आज हमें समझनी होगी कि सीएए–एनआरसी केवल मुसलामानों के लिए ही नहीं बल्कि हर मज़हब के ग़रीबों और मेहनतकशों के लिए ख़तरनाक है और उनके ख़िलाफ़ है।
कुल मिलाकर, आज यह बिल्कुल स्पष्ट हो चुका है कि भाजपा और संघ परिवार देश की मेहनतकश जनता के सबसे बड़े दुश्मन हैं, चाहे वह हिन्दू हो, मुसलमान हो, सिख हो, ईसाई हो, दलित हो, आदिवासी हो या कुछ और। यह अमीरों के हितों की सबसे वफ़ादारी से और जनता के अधिकारों को सबसे बर्बरता से कुचलकर सेवा करने वाली पार्टी है। साथ ही, यह सबसे फ्रॉड और भ्रष्टाचारी पार्टी है जो झूठों और अफ़वाहों के आधार पर अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति का तन्दूर गर्म रखती है।
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जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो वह इस देश के पूँजीपति वर्ग की सबसे पुरानी पार्टी है। आज कांग्रेस के लिए पूँजीपति वर्ग का समर्थन अपेक्षाकृत कम दिख रहा है, तो इसके पीछे असली वजह है मौजूदा आर्थिक संकट और मन्दी।
मन्दी क्या होती है? मन्दी वह होती है जिसमें कि मालिकों के मुनाफ़े की औसत दर गिर जाती है। यानी, पहले अगर मालिक मज़दूरों व मेहनतकशों का शोषण कर, यानी उनकी श्रमशक्ति का दोहनकर, एक रुपये पर तीन रुपया कमा रहा था, तो मन्दी के दौर में वह 1 रुपये पर 1.50 रुपया ही कमा पा रहा है। मुनाफ़े की गिरती औसत दर की प्रवृत्ति की वजह होती है मालिकों के बीच की आपसी प्रतिस्पर्द्धा और मालिकों के वर्ग और मज़दूरों के वर्ग के बीच मौजूद संघर्ष के कारण उत्पादन में बढ़ता मशीनीकरण और उन्नत तकनोलॉजी के ज़रिये मज़दूरों की छँटनी। चूँकि कुल निवेश में मशीनों व तकनोलॉजी पर निवेश का हिस्सा सापेक्षिक रूप से बढ़ता जाता है और श्रमशक्ति को ख़रीदने यानी मज़दूरों को मज़दूरी पर रखने पर निवेश का हिस्सा कुल निवेश में सापेक्षिक रूप से घटता जाता है, इसलिए मुनाफ़े की दर भी प्रतिस्पर्द्धा के ज़रिये गिरती जाती है। क्यों? क्योंकि किसी भी वस्तु या सेवा के उत्पादन में नया मूल्य केवल जीवित श्रम से पैदा होता है। मशीनें या कच्चा माल नया मूल्य नहीं पैदा करती हैं। मशीनों व कच्चे मालों का मूल्य तो पहले ही पैदा हो चुका होता है और वह मज़दूरों के श्रम द्वारा ज्यों का त्यों उत्पाद में स्थानान्तरित हो जाता है। जो नया मूल्य पैदा होता है, वह मज़दूरों के जीवित वर्तमान श्रम से ही पैदा होता है और वही मज़दूरी और मुनाफ़े में बँटता है। मज़दूरों को अपने जीने की ख़ुराक लायक मज़दूरी मिलती है और वह जो मूल्य इस मज़दूरी के ऊपर पैदा करता है, वही मुनाफ़े में तब्दील होता है। इसलिए जैसे–जैसे मशीनों, कच्चे माल आदि पर निवेश बढ़ता जाता है, वैसे–वैसे मुनाफ़े की औसत दर गिरती जाती है। यही पूँजीवादी संकट का मूल है। इसके कारण बेरोज़गारी बढ़ती है, समूची आम मेहनतकश जनता की औसत आय भी गिरती है, उनकी ख़रीदने की क्षमता कम होती है और जो माल पैदा होते हैं, वे भी पूरी तरह नहीं बिक पाते। नतीजतन, एक ओर ज़रूरतमन्द लोग होते हैं जिनके पास क्रय क्षमता नहीं है, वहीं दूसरी ओर मालों से बाज़ार पट जाता है। आम मेहनतकश आबादी का अल्पउपभोग और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का अतिउत्पादन मुनाफ़े की गिरती औसत दर के संकट की ही अभिव्यक्तियाँ होती हैं, जो संकट को और भी बढ़ाती हैं। इससे पूँजीवाद कभी निजात नहीं पा सकता क्योंकि यह इस व्यवस्था के मूल तर्क यानी श्रम के शोषण, प्रतिस्पर्द्धा और मुनाफ़े के तर्क से पैदा होता है।
ऐसे संकट के दौर में अपनी मुनाफ़े की गिरती औसत दर को मालिकों का वर्ग तात्कालिक तौर पर किस रूप में गिरने से रोक सकता है या बढ़ा सकता है? वह मज़दूर वर्ग व मेहनतकश आबादी की औसत मज़दूरी को कम करके ही ऐसा कर सकता है। यह वह बहुत तरीक़ों से कर सकता है: मसलन, काम के घण्टे बढ़ाकर, श्रम की सघनता बढ़ाकर (यानी प्रति घण्टा मज़दूर जितना श्रम देता है, उसे बढ़ाकर), और साथ ही मौद्रिक तरीक़ों से, जैसे कि मुद्रास्फीति को बढ़ाकर रुपये के मूल्य को गिरा देना जिससे कि वास्तविक मज़दूरी घट जाती है। लेकिन ये सारे क़दम उठाने से मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी द्वारा प्रतिरोध की सम्भावना होती है, जिससे पूँजीपति वर्ग घबराता है। इसीलिए संकट के दौर में वह कोई धुर दक्षिणपंथी या फ़ासीवादी तानाशाह क़िस्म की सरकार चाहता है जो जनता को बर्बरता से कुचले, उनका दमन करे, उनके सभी जनवादी अधिकारों को महज़ औपचारिक बना दे और हर प्रकार के राजनीतिक विरोध को कुचल दे, जिसके दायरे में ज़रूरत पड़ने पर अन्य पूँजीवादी दल भी आ सकते हैं।
यही वजह है कि मन्दी के दौर में समूची दुनिया में मालिकों के वर्ग ने अपना दाँव धुर दक्षिणपंथी पार्टियों व नेताओं पर लगाया है, मसलन, तुर्की में एर्दोआन, ब्राज़ील में बोल्सोनारो, इटली में मेलोनी और भारत में भाजपा की जोड़ी यानी मोदी-शाह। इनमें से अधिकांश फ़ासीवादी नेता या पार्टियाँ नहीं हैं, बल्कि धुर दक्षिणपंथी तानाशाहाना नेता व पार्टियाँ हैं। लेकिन संघ परिवार व भाजपा की मोदी सरकार एक फ़ासीवादी सरकार है, क्योंकि इसके पीछे फ़ासीवादी विचारधारा है, एक काडर-आधारित संगठन है और टुटपुँजिया वर्गों का एक प्रतिक्रियावादी आन्दोलन है। इस मायने में सभी प्रकार की तानाशाह सत्ताओं में भी यह सबसे ख़तरनाक क़िस्म की सत्ता है। आज मन्दी से बिलबिला रहे भारत के पूँजीपति वर्ग के लिए फ़ासीवादी मोदी सरकार एक आवश्यकता है क्योंकि यही उसे बेरोकटोक मेहनतकश जनता के श्रम और प्राकृतिक संसाधनों (जो कि समूची जनता की साझी सम्पत्ति होते हैं) को लूटने, और सार्वजनिक उपक्रमों को औने-पौने दामों पर ख़रीदने का अवसर अभूतपूर्व रूप से दे सकती है और इसके ख़िलाफ़ उठने वाले हर प्रतिरोध को किसी भी अन्य पूँजीवादी दल से बेहतर तरीके से कुचल सकती है, जनता को धर्म के नाम पर लड़वा सकती है, ताकि वह प्रतिरोध कर ही न सके, सारे नियमों-क़ानूनों को ताक पर रखकर हर प्रकार के टैक्स, क़र्ज़ आदि से अमीरज़ादों को छूट दे सकती है। ये सारे काम जिस तरह से फ़ासीवादी भाजपा की सरकार कर सकती है, अन्य पूँजीवादी पार्टियों की सरकारें नहीं कर सकती हैं। 2014 में सत्ता में पहुँचते ही मोदी सरकार ने जो सबसे पहला काम किया था वह था चार मज़दूर-विरोधी और पूँजी परस्त लेबर कोड्स को लाने का फ़ैसला लेना जिसे 2019 में सत्ता में वापसी के बाद लागू करने के क़दम भी उठाये गये। यही वजह है कि आज भाजपा पूँजीपति वर्ग की चहेती पार्टी है, जैसा कि इलेक्टोरल बॉण्ड के पूरे मसले से एक बार फिर से ज़ाहिर हो गया है।
लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि कांग्रेस देश के मेहनतकश लोगों की पार्टी है। कांग्रेस तो देश के मालिकों के वर्ग की सबसे पुरानी पार्टी है और आज़ादी के बाद के करीब 6 दशक के दौरान इसकी सरकारों की सरपरस्ती में ही देश के पूँजीपति वर्ग को जनता को लूटने का पूरा अवसर मिला। पहले देश में ‘पब्लिक सेक्टर’ की तथाकथित ‘मिश्रित अर्थव्यवस्था’ के ज़रिये ब्रिटिश ग़ुलामी के लम्बे दौर के कारण कमज़ोर रहे पूँजीपति वर्ग को जनता के ख़र्च पर सारा अवरचनागत ढाँचा, यानी सड़कें, यातायात व परिवहन, रेलों, आधारभूत उद्योगों आदि का एक पूरा ढाँचा बनाकर दिया गया, उसे संरक्षणवादी नीतियों द्वारा विकसित देशों की कम्पनियों की प्रतिस्पर्द्धा से बचाया गया, उसे दोयम दर्जे की टिकाऊ व ग़ैर-टिकाऊ उपभोक्ता सामग्री के बाज़ार की इजारेदारी देकर पूँजी संचय करने का मौक़ा दिया गया। 1980 के दशक के अन्त तक, जब भारत के टाटा-बिड़ला, अम्बानी, हिन्दुजा, गोयनका आदि बड़े पूँजीपति मज़बूत हो चुके थे, मँझोले और छोटे पूँजीपतियों का एक वर्ग पैदा हो चुका था, गाँवों में ग्रामीण पूँजीपति यानी धनी किसानों व कुलक भूस्वामियों का एक वर्ग पनप चुका था, तब जनता की बचत और मेहनत के बूते खड़े किये गये देश के पब्लिक सेक्टर को कांग्रेस की सरकार ने ही 1991 में लायी गयी नयी आर्थिक नीतियों के तहत कौड़ियों के दाम पूँजीवादी घरानों व कम्पनियों को बेचना शुरू किया। ये जो जनविरोधी आर्थिक नीतियाँ थीं, इन्हीं को पूँजीवादी संकट के दौर में पहले 1998 से 2004 तक भाजपा की वाजपेयी सरकार ने और तेज़ गति से लागू किया और फिर 2014 से भाजपा की मोदी सरकार ने बेरोकटोक और तानाशाहाना तरीके से लागू किया है।
आज कांग्रेस एक विशिष्ट आर्थिक स्थिति और राजनीतिक स्थिति में पूँजीपति वर्ग की पहली चहेती पार्टी नहीं है। लेकिन पूँजीपति वर्ग का हित इसे भी ज़िन्दा रखने में है। इसीलिए तीसरे नम्बर पर इलेक्टोरल बॉण्ड्स द्वारा सबसे ज़्यादा चन्दा इसे ही मिला है। उसी प्रकार कांग्रेस भी भाजपा के भ्रष्टाचार की आलोचना और उस पर राजनीतिक हमले करने में इस बात का ध्यान रखती है कि वह पूँजीपति वर्ग को नाराज़ न करे। वह बार-बार श्रेय लेने की तरह से याद दिलाती है कि निजीकरण व उदारीकरण की पूँजीपरस्त नीतियों की शुरुआत तो उसी ने की थी! वह बस इतना चाहती है कि लूटने का अवसर सारे पूँजीपतियों को बराबरी से मिले, केवल मोदी के मित्रों को, मसलन, अडानी व अम्बानी को नहीं! आज भी राहुल गाँधी देश के लिए चीन की अर्थव्यवस्था को एक पैमाना मानते हैं और हमेशा उनसे आगे निकलने का ख़्वाब परोसते रहते हैं। लेकिन चीन की अर्थव्यवस्था तो मज़दूरों के भयंकरतम शोषण की आज एक मिसाल है। वहाँ मज़दूरों को कोई जनवादी अधिकार तक प्राप्त नहीं हैं, खान दुर्घटनाओं में ही हर वर्ष सैकड़ों तो कभी हज़ारों तक मज़दूर अपनी जान गँवा देते हैं, ऐसी फ़ैक्टरियाँ बनायी गयी हैं जिनमें मज़दूर काम ही नहीं करते बल्कि रहते भी हैं, ताकि उनकी श्रम सघनता को बढ़ाया जा सके। यह देश के मेहनतकशों-मज़दूरों के लिए कोई मॉडल नहीं हो सकता है। वह वास्तव में “समाजवाद” के नाम पर एक सामाजिक-फ़ासीवादी (यानी, नाम से समाजवादी लेकिन सारतत्व से तानाशाहाना) शासन है। वहीं सेक्युलरिज़्म से लेकर भ्रष्टाचार तक के मसले पर कांग्रेस की स्थिति शर्मनाक ही रही है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि धर्म को राजनीति व सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र से पूरी तरह अलग करने वाली असली धर्मनिरपेक्षता की नीति की जगह कांग्रेस सर्वधर्मसमभाव की नक़ली धर्मनिरपेक्षता (जिसे उसने कभी पूरी ईमानदारी से लागू भी नहीं किया) की नीति ही अपनाती रही है। तरह-तरह से एक नयी कांग्रेस की छवि पेश करने के प्रयासों के बावजूद राहुल गाँधी बीच-बीच में मन्दिरों का दौरा कर अपनी हिन्दू पहचान को भी रेखांकित करते रहते हैं, जबकि इससे कभी कांग्रेस को लाभ नहीं पहुँचा है, बल्कि भाजपा ने ही हमेशा इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण क़दमों का फ़ायदा उठाया है।
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इसी प्रकार, यदि इन दो प्रमुख राष्ट्रीय पूँजीवादी पार्टियों के अलावा अन्य छोटी राष्ट्रीय पूँजीवादी पार्टियों मसलन बसपा और ‘आप’ की बात करें, तो वे भी देश के पूँजीपति वर्ग के ही अलग-अलग हिस्सों की नुमाइन्दगी करती हैं। बहुजन समाज पार्टी का सितारा तो आजकल भाजपा के डर से ही गर्दिश में चला गया है। मायावती ने धुर ब्राह्मणवादी पार्टी भाजपा के कुकर्मों पर अपने मुँह में दही जमा ली है। लेकिन ‘इण्डिया’ गठबन्धन की पार्टियों को नुकसान पहुँचाने के लिए वह कोई न कोई क़दम उठाती रहती हैं। निश्चय ही, वह अपना हश्र अरविन्द केजरीवाल, संजय सिंह, मनीष सिसोदिया, हेमन्त सोरेन या के. कविता जैसा नहीं होने देना चाहती हैं! आज अगर अस्मितावाद और अम्बेडकरवादी व्यवहारवाद की राजनीति की विभिन्न धाराएँ फ़ासीवादी भाजपा के सामने आत्मसमर्पण कर रही हैं या उनके साथ मिल रही हैं, तो इसमें किसी को ताज्जुब नहीं है। बसपा वास्तव में दलित आबादी के बीच पैदा हुए एक छोटे-से पूँजीपति वर्ग, उच्च व मँझोले नौकरशाह वर्ग, मँझोले व निम्न सरकारी कर्मचारी वर्ग यानी कुल मिलाकर दलित आबादी के बीच पैदा हुए एक पूँजीपति वर्ग व मध्यवर्ग के बीच आधार रखती है और मुख्य तौर पर इसी दलित पूँजीपति वर्ग और उच्च मध्यवर्ग की नुमाइन्दगी करते हुए, वह आम तौर पर पूँजीपति वर्ग के हितों की ही नुमाइन्दगी करती है। यह दीगर बात है कि वह दलित अस्मिता का इस्तेमाल कर दलित मेहनतकश आबादी को भी गुमराह करती है और उसे दलित पूँजीपति वर्ग का पिछलग्गू बनाये रखने का काम कर उसके वोट बटोरने का प्रयास करती है।
उसी प्रकार आम आदमी पार्टी मुख्य तौर पर मँझोले व छोटे पूँजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, बिचौलियों, प्रॉपर्टी डीलरों, ट्रांसपोर्टरों तथा शहरी पढ़े-लिखे नौकरीशुदा मध्य वर्ग के बीच आधार रखती है। यह भ्रष्टाचार-मुक्त पूँजीवाद का हवाई सपना दिखाते हुए अस्तित्व में आयी थी। इसकी राजनीति भी राष्ट्रवाद, नर्म केसरिया राजनीति और राष्ट्रवाद का दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी मिश्रण है। वैसे तो इसका दावा है कि इसकी कोई विचारधारा नहीं है, लेकिन वास्तव में यह टुटपुँजिया दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, जिसका अर्थ है एक सदाचारी पूँजीवाद का सपना दिखाते हुए सभी वर्गों से तमाम वायदे करना, लेकिन वास्तव में केवल पूँजीपतियों व व्यापारियों से किये गये वायदों को निभाना। मसलन, दिल्ली में इन्होंने मज़दूरों से यह वायदा किया था कि नियमित प्रकृति के काम पर ठेका प्रथा को समाप्त कर दिया जायेगा, हर जगह सख़्ती से न्यूनतम मज़दूरी लागू की जायेगी, सभी श्रम क़ानूनों का पालन करवाया जायेगा, लेकिन इनमें से एक भी वायदा पूरा नहीं किया गया। वजह यह कि इनके फ़ण्ड का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा दिल्ली के कारख़ानेदारों, व्यापारियों, ठेकेदारों, प्रॉपर्टी डीलरों व तरह-तरह के बिचौलियों व दलालों से आता है। साथ ही, स्वयं इनकी पार्टी के ही कई नेता दिल्ली के औद्यागिक क्षेत्रों में कारख़ाने चलाने वाले छोटे या मँझोले मालिक हैं, मसलन, गिरीश सोनी, राजेश गुप्ता आदि। ऐसे में, आम आदमी पार्टी कारख़ाना-मालिकों, ठेकेदारों आदि के वर्ग यानी पूँजीपति वर्ग के हितों के विपरीत नहीं जा सकती है। उसका आर्थिक स्रोत भी यही वर्ग हैं और उनका सामाजिक आधार भी इनमें है। मज़दूरों और मेहनतकशों को आम आदमी पार्टी उन्हीं के कर से जमा धन से कुछ कल्याणकारी योजनाएँ मात्र दे देती है, जिससे कि यह दृष्टिभ्रम पैदा हो जाता है मानो वह आम जनता के लिए बहुत-कुछ कर रही है। जनता के एक हिस्से के लिए मुफ़्त शिक्षा, मुफ़्त बिजली, मुफ़्त पानी जैसी योजनाओं का अर्थ तभी होगा जबकि ऐसी योजनाएँ अमीर वर्गों पर विशेष कर लगाकर चलायी जायें। यदि इसका ख़र्च भी आम मेहनतकश जनता को ही बढ़े करों के ज़रिये उठाना होगा, तो इसका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। एक आम मेहनतकश व्यक्ति जो पैसा बिजली के बिल पर बचायेगा, वह उसे अपने बढ़े हुए औसत मासिक ख़र्च में दे देगा। इसलिए किसी भी कल्याणकारी योजना का तात्कालिक रूप में भी कोई अर्थ तभी होगा, तब वह समाज के शोषक वर्गों पर समृद्धि के साथ बढ़ते प्रगतिशील करों और विशेष करों के ज़रिये चलायी जाये।
सपा और राजद जैसी पार्टियों की बात करें तो वे भी अपने-अपने राज्यों में, यानी उत्तर प्रदेश और बिहार में, मध्य जातियों में पैदा हुए धनी किसान व पूँजीवादी ज़मींदार वर्ग की, प्रदेश के छोटे व मँझोले कारख़ाना मालिकों, बिल्डरों, ठेकेदारों के वर्ग की और मध्य जातियों के बीच से पैदा हुए शहरी व ग्रामीण उच्च मध्य व मध्यम मध्य वर्ग की नुमाइन्दगी करती हैं। साथ ही, इन्हें साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के अविरत हमले झेल रही आम मुसलमान आबादी के बहुलांश का वोट भी जाता है, क्योंकि प्रदेश के स्तर पर इस आबादी को चुनाव के क्षेत्र में और कोई विकल्प नज़र नहीं आता है। प्रदेश के क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग व ग्रामीण पूँजीपति वर्ग यानी धनी किसानों व कुलकों के अलावा सत्ता में रहने पर इन पार्टियों ने कारपोरेट बड़े पूँजीपति वर्ग को भी फ़ायदा पहुँचाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इन पार्टियों के आर्थिक संसाधन भी पूँजीपति वर्ग और उसके मध्यवर्गीय अहलकारों के उपरोक्त हिस्सों से ही आते हैं। नतीजतन, इनकी नीतियों का चरित्र भी इन्हीं वर्गों के हितों के अनुसार तय होता है।
इसी प्रकार, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की शिवसेना और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी आम तौर पर मध्य व पिछड़ी जातियों से आने वाले धनी व खाते-पीते फ़ार्मरों, मँझोले व बड़े उद्यमियों, ठेकेदारों, बिल्डरों, डीलरों की ही नुमाइन्दगी करती हैं क्योंकि इनके आर्थिक संसाधन मुख्यतः इन्हीं वर्गों से आते हैं। इनमें से उद्धव ठाकरे वाली शिवसेना में तो फ़ासीवाद के कई तत्व स्पष्ट तौर पर मौजूद हैं। इसके फ़ासीवाद का आधार मुसलमानों के ख़िलाफ़ साम्प्रदायिकता फैलाने के अलावा मराठी अस्मितावाद पर खड़े होकर प्रवासी-विरोधी राजनीति करना रहा है। आज राष्ट्रीय राजनीति के समीकरणों और विशेष तौर पर भाजपा द्वारा पार्टी को तोड़े जाने के कारण यह कांग्रेस व अन्य पार्टियों के साथ ‘इण्डिया’ गठबन्धन में अवश्य शामिल है, लेकिन इसके धुर दक्षिणपन्थी व अर्द्धफ़ासीवादी चरित्र के बारे में कोई सन्देह करना मेहनतकशों और मज़दूरों के लिए आत्मघाती होगा। बहरहाल, उद्धव ठाकरे की शिवसेना व राकांपा, दोनों ही बड़े कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग की भी सेवा करती हैं और उनसे भी चन्दे लेती हैं, लेकिन साथ ही उन वर्गों के हितों को लेकर बड़े पूँजीपति वर्ग के साथ मोलभाव भी करती हैं, जिनकी ये मुख्य रूप से नुमाइन्दगी करती हैं, यानी कि मध्य व पिछड़ी जातियों में पैदा हुए शासक वर्ग, उच्च वर्ग और मध्य वर्ग। ये किसी भी रूप में मज़दूरों, मेहनतकशों और ग़रीब किसानों के हितों की नुमाइन्दगी नहीं करतीं, हालाँकि इन जातियों के मेहनतकशों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा इन पार्टियों को वोट डालता है, क्योंकि उसकी जाति के कुलीन वर्ग इन पार्टियों को वोट करते हैं और उन्हें लगता है कि ये पार्टियाँ वास्तव में उनकी “जाति की पार्टी” है या उनके “जाति के हितों” का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह वर्ग-चेतना और अपने वर्ग-हितों के प्रति सचेतनता की कमी और किसी क्रान्तिकारी विकल्प, यानी मज़दूरों-मेहनतकशों की अपनी सच्ची पार्टी, की कमी के कारण होता है।
आन्ध्र प्रदेश में जगनमोहन की वाईएसआर कांग्रेस हो, तेलंगाना के केसीआर की भारत राष्ट्र समिति हो या फिर तमिलनाडु में द्रमुक व अन्नाद्रमुक, ये सभी पार्टियाँ उक्त प्रदेशों के बड़े खान-खदान पूँजीपति, बड़े कुलक व धनी किसानों, बड़े बिल्डरों, धनी व्यापारियों और बड़ी ठेका कम्पनियों आदि का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। जिन पूँजीपतियों ने इलेक्टोरल बॉण्ड के ज़रिये इन पार्टियों को चन्दा दिया है और उसके पहले जिन पूँजीपतियों ने इलेक्टोरल ट्रस्ट के रास्ते इन पार्टियों को चन्दा दिया है, उसे देखा जाये तो इन पार्टियों के आर्थिक संसाधनों के स्रोत साफ़ हो जाते हैं। अपने आकार के अनुसार देखें तो इन पार्टियों को अच्छा-ख़ासा चन्दा इलेक्टोरल बॉण्डों के ज़रिये हासिल हुआ है। भारत राष्ट्र समिति तो एक राज्य में सीमित छोटी पूँजीवादी पार्टी होने के बावजूद चौथे नम्बर पर सबसे ज़्यादा इलेक्टोरल बॉण्ड पाने वाली पार्टी है और इसे कालेश्वरम परियोजना में 80 हज़ार करोड़ रुपये से भी अधिक का घपला करने वाली मेघा इंजीनियरिंग एण्ड इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रा. लि. से भारी चन्दा हासिल हुआ है। इसी प्रकार तमिलनाडु के द्रमुक को फ्यूचर गेमिंग एण्ड होटल सर्विसेज़ नामक लॉटरी कम्पनी से 509 करोड़ रुपये का चन्दा हासिल हुआ है। यह दीगर बात है कि द्रमुक ने तत्काल ही यह बता दिया था कि उसे मिले लगभग 650 करोड़ रुपये में किस कम्पनी से कितना हासिल हुआ। लेकिन इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। यदि बड़े-बड़े पूँजीपति किसी पार्टी को चन्दा दे रहे हैं, तो वह धर्मादा कामों के लिए तो दे नहीं रहे हैं! या तो वे बदले में तमाम सरकारी ठेके चाहते हैं, टैक्सों से छूट चाहते हैं, कर्ज़ माफ़ी चाहते हैं या अपने ऊपर चल रहे केसों व मुक़दमों से छुटकारा पाना चाहते हैं। इसके बिना कोई मालिक, व्यापारी आदि कभी अपनी जेब से चवन्नी भी नहीं गिरने देते हैं। इस बात को हम मज़दूर-मेहनतकश जानते हैं। जो कम्पनियाँ दावा करती रही थीं कि उनके पास अपने मज़दूरों, कर्मचारियों, ऑफ़िस स्टाफ़ आदि को वेतन देने के लिए पैसे नहीं हैं, वे चुनावी दलों को हज़ारों करोड़ रुपये के चन्दे दे रहीं थीं, मुख्य तौर पर भाजपा को, और थोड़ा-बहुत कुछ अन्य पार्टियों को!
तृणमूल कांग्रेस को तो कांग्रेस पार्टी से भी ज़्यादा चन्दा इलेक्टोरल बॉण्डों के ज़रिये मिला है। यह भी अनायास नहीं है। वैसे भी पिछले 13 साल के तृणमूल कांग्रेस के शासन ने स्पष्ट कर दिया है कि पश्चिम बंगाल की जनता के बीच बंगाली अस्मितावादी राजनीति करने और आदिवासियों व आम ग़रीबों के बीच लोकरंजकतावादी जुमलों का इस्तेमाल करने के बावजूद, उसने वफ़ादारी और शिद्दत के साथ पश्चिम बंगाल के क्षेत्रीय पूँजीपति वर्ग और साथ ही देश के बड़े पूँजीपति वर्ग की सेवा की है। चाहे वह मेट्रो डेरी में सरकार के हिस्से को निजी कम्पनियों को बेचने का सवाल है, जिसके बदले उसने केवेण्टर नामक कम्पनी से सैकड़ों करोड़ के इलेक्टोरल बॉण्ड भी हासिल किये, या फिर पश्चिम बंगाल में तमाम पूँजीपति घरानों को बेहद आकर्षक शर्तों पर (यानी बेहद कम टैक्स, बेहद सस्ती ज़मीन और पानी, आदि के साथ) निवेश करने का अवसर देने का प्रश्न हो।
कुल मिलाकर कहें तो इस नियम का कोई अपवाद नहीं है : सभी क्षेत्रीय पूँजीवादी दल अमूमन प्राथमिक तौर पर मुख्यतः उस राज्य के छोटे व मँझोले पूँजीपतियों की और उसके बाद गौणत: देशी बड़े पूँजीपति वर्ग की नुमाइन्दगी करते हैं। इन छोटे व मँझोले पूँजीपतियों में शहरी व ग्रामीण छोटे व मँझोले पूँजीपति, दोनों शामिल हैं। यानी, प्रदेश के प्रमुख उद्योगपति, बड़ी व मँझोली ठेका कम्पनियाँ, बिल्डर, धनी व्यापारी, धनी किसान व कुलक भूस्वामी, इत्यादि। साथ ही, उनका बड़े कारपोरेट पूँजीपति वर्ग से भी कोई बैर नहीं है और जब सम्भव हो ये पार्टियाँ सत्ता में होने पर इन्हें भी भरपूर लाभ पहुँचाती हैं।
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इन खुले तौर पर पूँजीवादी दलों के अलावा देश में छिपे हुए पूँजीवादी दल भी हैं, जो अपने आपको मेहनतकश वर्ग का नुमाइन्दा बताते हैं, लेकिन सेवा वे भी देश के छोटे व मँझोले उद्योगपतियों, धनी व उच्च मध्यम किसानों व पूँजीवादी ज़मीन्दारों की ही करते हैं। यानी, देश की नक़ली कम्युनिस्ट पार्टियाँ। इन नक़ली कम्युनिस्ट पार्टियों को ही संसदीय वामपंथी या संशोधनवादी कहा जाता है। इनमें प्रमुख तौर पर भाकपा (भारत की कम्युनिस्ट पार्टी), माकपा (भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी) और भाकपा (माले) यानी ‘भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी-लेनिनवादी’ शामिल हैं। और भी कई दल हैं जो अलग-अलग रंग के छोटे-मोटे संशोधनवादी या सुधारवादी दल हैं, मसलन, सोशलिस्ट यूनिटी सेण्टर ऑफ़ इण्डिया, फ़ॉरवर्ड ब्लॉक, आर.एस.पी., इत्यादि। ये सारे अक्सर वाम मोर्चे के अंग ही होते हैं। ये वास्तव में देश के अलग-अलग हिस्सों में, जहाँ कहीं भी इनकी कोई उपस्थिति है, वहाँ छोटे व मँझोले मालिकों, धनी किसानों व कुलकों, संगठित क्षेत्र के मज़दूर वर्ग के विशेषकर ऊपरी हिस्से (जिसके अच्छे-ख़ासे हिस्से का पूँजीवादीकरण हो चुका है और वे उच्च मध्यवर्ग में तब्दील हो चुके हैं) के हितों की नुमाइन्दगी करते हैं। जब भी किसी राज्य में यह सत्ता में होते हैं, मसलन, केरल, कुछ वर्षों पहले तक पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा, तो वहाँ इन्होंने क्षेत्रीय शहरी व ग्रामीण पूँजीपति वर्ग, संगठित मज़दूर वर्ग के ऊपरी व मध्यम संस्तर, छोटे व मँझोले व्यापारियों की सेवा करने के अलावा, जब भी सम्भव हुआ, देश के बड़े पूँजीपति वर्ग की भी जमकर सेवा की। माकपा के नेतृत्व में वाम मोर्चे की सरकार के दौर में ही बड़ी कारपोरेट पूँजी के हितों की सेवा के लिए ग़रीब किसान आबादी व आदिवासी आबादी को उजाड़ने का बुद्धदेब भट्टाचार्या की सरकार ने जमकर काम किया था। नन्दीग्राम, सिंगूर और लालगढ़ में क्या हुआ था, वह देश की जनता अभी भूली नहीं है। इसके अलावा, आर्थिक नीतियों के मामले में ये संसदीय वामपंथी मूलत: और मुख्यत: निजीकरण व उदारीकरण की नीतियों को ही लागू करने की हिमायत करते हैं, लेकिन थोड़ी धीमी रफ़्तार से। ये पूँजीपति वर्ग के कान में ‘संयम, संयम’ का मंत्र फूँकते रहते हैं, जबकि पूँजीपति वर्ग का मूल मन्त्र है ‘संचय, संचय’, यानी ‘मुनाफ़े से और अधिक मुनाफ़ा बनाओ’। ये तमाम लूट-खसोट की नीतियों के साथ कुछ कल्याणकारी नीतियाँ भी लागू करते हैं, ताकि मज़दूर-मेहनतकश वर्ग के ग़ुस्से पर ठण्डे पानी का छिड़काव किया जा सके। लेकिन मुनाफ़े का नियम इनकी सदिच्छाओं और उनके द्वारा पूँजीवाद की दूरदर्शी पहरेदारी की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है।
यह भी ग़ौरतलब है कि इन संसदीय वामपंथी पार्टियों की केन्द्रीय ट्रेड यूनियनें आज देश के मज़दूर वर्ग के 93 प्रतिशत, यानी असंगठित व अनौपचारिक मज़दूरों के मसलों पर कोई संघर्ष नहीं करती हैं, केवल ज़ुबानी जमाख़र्च करती हैं। वे वास्तव में केवल संगठित क्षेत्र के मज़दूरों की एक छोटी-सी आबादी के आर्थिक अधिकारों का मसला उठाती हैं और उन पर भी कोई जुझारू संघर्ष करने के बजाय, साल या दो साल में एक बार एक-दिवसीय या दो-दिवसीय हड़ताल की रस्म-अदायगी करके चुप मार जाती हैं। हड़ताल के मज़दूर वर्ग के अचूक हथियार को इस तरह से इसलिए बरबाद किया जाता है, ताकि मज़दूर वर्ग के ग़ुस्से पर एक तात्कालिक सेफ़्टी वॉल्व लगाया जा सके। आप ही सोचिए : जिन ट्रेड यूनियनों की सदस्यता रेलवे, पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ़, बैंक, बीमा आदि जैसे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण क्षेत्र के मज़दूरों में हो, वे मोदी के लेबर कोड के विरुद्ध या लगातार जारी निजीकरण व छँटनी की नीतियों के विरुद्ध अनिश्चितकालीन आम हड़ताल क्यों नहीं करतीं, जबकि वे ऐसा कर सकती हैं? वजह साफ़ है : सत्ता में आने पर इन संसदीय वामपंथी पार्टियों की सरकारों को भी तो वही निजीकरण, उदारीकरण व भूमण्डलीकरण की नीतियाँ ही लागू करनी होती हैं, हालाँकि कुछ कम रफ़्तार से और कल्याणकारी मुखौटे के साथ। ऐसी आम हड़तालें समूचे मज़दूर वर्ग को रैडिकल बनायेंगी, उनकी चेतना को जुझारू बनायेंगी, इसीलिए इन नक़ली कम्युनिस्ट पार्टियों की ट्रेड यूनियनें इस प्रकार की आम हड़ताल नहीं करतीं, बस रस्मअदायगी कर मज़दूर वर्ग को पूँजीवादी वैधिक दायरों में कैद कर उसके पंख कतरने का काम करती हैं।
स्पष्ट है कि पूँजीपति वर्ग, यानी उद्योगपतियों, धनी व्यापारियों, ठेकेदारों, खानों–खदानों के मालिकों, धनी किसानों व कुलकों, उच्च नौकरशाहों व नेताओं–मन्त्रियों के अन्य ऊँचे अहलकारों के पूरे वर्ग, से अपना आर्थिक संसाधन पाने वाली पार्टियाँ वोट लेने तो आपके पास ही आयेंगी, लेकिन सत्ता में पहुँचने पर वे आपके हितों की नुमाइन्दगी नहीं करेंगी, बल्कि इन्हीं अमीरज़ादों के हितों की नुमाइन्दगी करेंगी। क्या पिछले 77 वर्षों में इन सभी पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों के शासन को देश और राज्यों के स्तर पर हम देख नहीं चुके हैं? क्या इस सच्चाई को हम पहचानते नहीं हैं? बड़ी सीधी सी बात है : जो जिसका खाता है, उसी का गाता है।
आज देश का पूँजीपति वर्ग अपने चन्दे का आधे से ज़्यादा हिस्सा अकेले भाजपा को दे रहा है। यह अभूतपूर्व है। और यह सारा कुकर्म देश के इतिहास के दो सबसे बड़े घोटालों के ज़रिये हुआ है: इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाला, जिसने सरकार को रिश्वत देकर अपना काम निकलवाने की चार सौ बीसी को क़ानूनी रूप दे दिया, और दूसरा, इलेक्टोरल ट्रस्ट घोटाला, जिसकी शुरुआत कांग्रेस के शासनकाल में ही हो गयी थी, लेकिन उसका जमकर इस्तेमाल भाजपा के फ़ासीवादियों ने किया है।
आगे दिये गये आँकड़े आँखें खोल देने वाले हैं। इन पर एक नज़र दौड़ाइए और थोड़ा विचार कीजिए कि ये पार्टियाँ आपके हितों की नुमाइन्दगी कैसे कर सकती हैं? और भाजपा क्यों पूँजीपतियों से सबसे घनी यारी रखती है, क्यों उनके पक्ष में मेहनतकश जनता के ऊपर तानाशाहाना राज क़ायम करती है, क्यों आपको-हमको धर्म के मसले पर लड़ाती है, क्यों आपके-हमारे बुनियादी जनवादी अधिकारों को भी रद्द करने पर आमादा है और क्यों आज वह समूची मेहनतकश जनता की दुश्मन न. 1 है?
उपरोक्त आँकड़ों से साफ़ है कि आज सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ कारख़ानों, खानों–खदानों व विभिन्न कम्पनियों, कुलकों–धनी किसानों, धनी व्यापारियों, ठेकेदारों, जॉबरों, दलालों और बिचौलियों के हज़ारों करोड़ के चन्दों पर पलती हैं और वे इन्हीं धनपशुओं की ही सेवा भी कर सकती हैं। हमें मेहनतकश वर्गों की एक देशव्यापी पार्टी की आवश्यकता है जो कि समूची मेहनतकश जनता के क्रान्तिकारी कोर की भूमिका निभा सके, हर जगह और हर मौक़े पर उसके हक़ों के लिए बहादुरी और ईमानदारी से लड़ सके, यदि किसी निर्वाचन मण्डल से उसके प्रतिनिधि जीतें तो कम–से–कम औपचारिक तौर पर जो सीमित राजनीतिक व आर्थिक अधिकार जनता को मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था में प्राप्त हैं, उन्हें वास्तव में जनता को दिला सके, मौजूदा व्यवस्था के चरित्र और उसकी सीमाओं को उजागर कर सके और इसके ज़रिये मेहनतकशों के नये समाजवादी इंक़लाब की लड़ाई को मज़बूत कर सके, मेहनतकश जनता को जागृत, गोलबन्द और संगठित कर सके। केवल एक ऐसी पार्टी के ज़रिये मेहनतकश जनता का अपना स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष राजनीति के हर क्षेत्र में स्थापित हो सकता है, जिनमें से एक पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर होने वाले चुनावों का क्षेत्र भी है।
‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ एक ऐसी ही पार्टी है जिसकी स्थापना स्वयं मेहनतकश लोगों ने मिलकर 5 वर्षों पहले की है। तब से यह पार्टी देश के करीब पाँच राज्यों में चुनावों में हिस्सेदारी कर रही है, करीब बारह राज्यों में मेहनतकश जनता के हक़ों के लिए बहादुरी और ईमानदारी से लड़ रही है और उसने तमाम संघर्षों को नेतृत्व और मार्गदर्शन दिया है। यह पार्टी दिल्ली के आँगनवाड़ीकर्मियों की हड़ताल में महती रूप में सक्रिय रही, महाराष्ट्र के निर्माण कामगारों और असंगठित क्षेत्र के कामगारों के संघर्ष में इसने भूमिका निभायी, सीएए–एनआरसी के विरुद्ध देश भर में हुए शानदार आन्दोलन में भी कई शहरों में इसने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी, देश के 13 राज्यों में 8500 किलोमीटर से ज़्यादा लम्बी भगतसिंह जनअधिकार यात्रा निकालते हुए जनता को मोदी सरकार की फ़ासीवादी जनविरोधी नीतियों के बारे में बताया, उन्हें रोज़गार, महँगाई, भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध जागृत और गोलबन्द करने का काम किया, उत्तर प्रदेश में ग्रामीण मज़दूरों व ग़रीब किसानों के कई संघर्ष को नेतृत्व दिया, हरियाणा में मनरेगा मज़दूरों के आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की, बिहार में आम छात्रों व निम्न मध्यवर्गीय युवाओं के रोज़गार और शिक्षा हेतु चले संघर्षों में अपनी भूमिका निभायी, आम जनता के रोज़मर्रा जीवन के मसलों से लेकर फ़िलिस्तीन की आज़ादी के समर्थन जैसे सर्वहारा अन्तरराष्ट्रीयतावादी मुद्दों पर इस पार्टी के कार्यकर्तोओं ने अपना क्रान्तिकारी उत्तरदायित्व निभाते हुए कई संघर्ष लड़े हैं और कई छोटी–बड़ी जीतें हासिल की हैं। RWPI आपकी अपनी पार्टी है, आपने ही इसे बनाया है, आपके ही सहयोग और समर्थन के बूते यह चलती है और ठीक इसीलिए आप इस पर भरोसा कर सकते हैं।
हम आपका आह्वान करेंगे कि RWPI से जुड़ें, उसके वालण्टियर व सदस्य बनें, उसकी गतिविधियों में सक्रिय बनें। छह सीटों – दिल्ली उत्तर-पूर्व, दिल्ली उत्तर-पश्चिम, कुरुक्षेत्र, अम्बेडकरनगर (उत्तर प्रदेश), मुम्बई उत्तर-पूर्व और पुणे – पर RWPI के उम्मीदवारों को अपना भरपूर समर्थन दें, उन्हें वोट दें और उन्हें जितायें। केवल RWPI के उम्मीदवार ही सांसद बनने पर अपने निर्वाचन क्षेत्र में पूर्ण पारदर्शिता, ईमानदारी, साहस और कर्मठता से आम मेहनतकश जनता के लिए काम कर सकते हैं, क्योंकि यह पार्टी ही आम मेहनतकश लोगों ने बनायी है।
इसलिए हमारा पहला कार्यभार है इन 6 सीटों पर एकजुट होकर RWPI के मेहनतकश उम्मीदवारों को वोट देना और उन्हें जिताने का पूरा प्रयास करना, उन्हें हर प्रकार से सहयोग और समर्थन देना। ये उम्मीदवार ही आँगनवाड़ीकर्मियों व अन्य स्कीमवर्करों के उम्मीदवार हैं, ये उम्मीदवार ही औद्योगिक मज़दूरों के उम्मीदवार हैं, ये उम्मीदवार ही मनरेगा मज़दूरों के उम्मीदवार हैं, ये उम्मीदवार ही गाँवों और शहरों के तमाम असंगठित मज़दूरों के उम्मीदवार हैं, ये उम्मीदवार ही ग़रीब किसानों के उम्मीदवार हैं, ये उम्मीदवार ही बेरोज़गार छात्रों–युवाओं के उम्मीदवार हैं, ये उम्मीदवार ही लाखों घरेलू कामगारों के उम्मीदवार हैं, ये उम्मीदवार ही दफ़्तरों, दुकानों, गोदामों में काम करने वाले आम मेहनतकश लोगों के उम्मीदवार हैं, और ये उम्मीदवार ही देश की आम मेहनतकश स्त्रियों, दलितों व आदिवासियों के उम्मीदवार हैं।
बाकी सभी सीटों पर कोई वास्तविक विकल्प आज मौजूद नहीं है। लेकिन कई बार पहले हमें यह तय करना पड़ता है कि “हमें क्या नहीं चाहिए”! इतना स्पष्ट है : फ़ासीवाद हमेशा से, समूचे आधुनिक इतिहास में मेहनतकश वर्गों का सबसे बड़ा और नम्बर 1 दुश्मन रहा है और आज भी हमारे देश में संघ परिवार और भाजपा का साम्प्रदायिक फ़ासीवाद देश की मेहनतकश जनता का सबसे ख़तरनाक दुश्मन है। अगर पूरे देश के पैमाने पर एक क्रान्तिकारी पार्टी की मौजूदगी होती जो रणकौशलात्मक रूप में इन चुनावों अपने प्रत्याशियों को उतारती, तो पूँजीवादी चुनावों के क्षेत्र में आम मेहनतकश जनता के सामने विकल्प चुनने का प्रश्न अपेक्षाकृत आसान होता। लेकिन आज यह स्थिति नहीं है। ऐसे में, देश भर में ऐसा विकल्प खड़ा करने के लिए मोहलत और वक़्त की ज़रूरत है। निश्चय ही, चुनावों में हार मात्र से देश में साम्प्रदायिक फ़ासीवाद की निर्णायक हार नहीं होगी। 2004 और 2009 में इसी प्रकार की ग़लतफ़हमी पालने की तमाम लोगों ने भूल की थी, जिसका ख़ामियाज़ा देश की जनता आज तक भोग रही है। सरकार से बाहर होने पर भाजपा और संघ परिवार को केवल एक तात्कालिक झटका लगेगा। पूँजीवादी दीर्घकालीन संकट के दौर में फ़ासीवादी उभार को फिर से सरकार में पहुँचाने की सारी स्थितियाँ मौजूद हैं और पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे के भीतर मौजूद रहेंगी : व्यापक निम्नमध्यवर्गीय व टुटपुँजिया आबादी में सतत् बरबादी की आशंका से पैदा होने वाली सामाजिक व आर्थिक असुरक्षा व अनिश्चितता और उससे जन्म लेने वाली अन्धी प्रतिक्रिया; पूँजीवादी राज्यसत्ता के तमाम निकायों, संस्थाओं और प्रक्रियाओं का फ़ासीवादीकरण जो कि संघ परिवार व भाजपा ने पिछले कई दशकों के दौरान धैर्य से धीरे–धीरे किया है और जो 2014 के बाद से गुणात्मक रूप से नयी मंज़िल में गया है; संघ परिवार व भाजपा का एक काडर–आधारित संगठन जो किसी भी अन्य पूँजीवादी पार्टी के सदस्य ढाँचे से भिन्न है।
आज के दौर में फ़ासीवादी उभार की यही ख़ासियत है : आज वह सरकार बना सकता है और फिर सरकार से बाहर जा सकता है क्योंकि अपने इतिहास से उसने यह सबक़ लिया है कि हिटलर व मुसोलिनी के समान पूँजीवादी लोकतन्त्र को औपचारिक तौर पर आपवादिक क़ानूनों के ज़रिये भंग करने से फ़ासीवादी उभार ही दीर्घजीवी नहीं रह जाता है। पूँजीवादी लोकतन्त्र को औपचारिक तौर पर भंग करने फ़ासीवाद तेज़ी से उभरता है और उतनी ही तेज़ी से उसका पतन हो जाता है, जैसा कि इटली और जर्मनी में फ़ासीवादी व नात्सी पार्टियों के साथ हुआ था। साथ ही, हमारे दौर के फ़ासीवादियों को यह ज़रूरत भी नहीं है कि वे पूँजीवादी जनवाद को औपचारिक तौर पर भंग करें। क्योंकि बीसवीं सदी में पूँजीवादी जनवाद में जो कुछ बची–खुची शक्ति थी, वह फ़ासीवादी शासन के रास्ते में एक हद तक बाधा थी। आज पूँजीवादी जनवाद अपनी उस बची–खुची जनवादी सम्भावनासम्पन्नता को भी खो चुका है। इसलिए उसे औपचारिक तौर पर भंग करना फ़ासीवादी शक्तियों के लिए फ़ायदेमन्द नहीं बल्कि नुकसानदेह है। यही वजह है कि वे राज्यसत्ता के निकायों व संस्थाओं पर भीतर से अपना क़ब्ज़ा स्थापित करते हैं, समूचे समाज में अपनी अवस्थितियों को मज़बूत करते हैं, अपने पीछे खड़े प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन को शक्तिशाली बनाते हैं और सरकार में आने पर वे चुनावों को भंग नहीं करते, जनता के कई संवैधानिक नागरिक अधिकारों को औपचारिक तौर पर रद्द नहीं करते, न ही न्यायपालिका को खुले तौर पर अपना जेबी माल बनाते हैं। लेकिन राज्य मशीनरी पर अन्दर से किये गये क़ब्ज़े के साथ पूँजीवादी जनवाद का खोल ही बचा रह जाता है, उसकी अन्तर्वस्तु जाती रहती है।
निश्चित तौर पर, इस खोल को बरक़रार रखने के अपने अन्तरविरोध होते हैं। मसलन, फ़ासीवादी शक्तियाँ चुनाव हार कर सरकार से बाहर जा सकती हैं या पूँजीवादी न्यायपालिका दिखावटी तौर पर कुछ ऐसे निर्णय ले सकती है, जो तात्कालिक तौर पर फ़ासीवादी शक्तियों के हितों के विपरीत जाते दिखायी दें। वे इस सम्भावना को रोकने के लिए भी हर तीन-तिकड़म को अंजाम देती हैं, जैसा कि हमारे देश में ईवीएम, इलेक्टोरल बॉण्ड, गोदी मीडिया आदि जैसे उपकरणों से भाजपा कर रही है। लेकिन सम्भव है कि इन सभी तीन-तिकड़मों के बावजूद फ़ासीवादी शक्तियाँ चुनाव हार जायें। लेकिन इसका अर्थ फ़ासीवाद की निर्णायक पराजय नहीं होगी। इसका परिणाम सिर्फ़ इतना होता है कि अस्थायी रूप में सरकार से बाहर हुई फ़ासीवादी शक्ति राज्यसत्ता के समूचे ढाँचे और समाज में अपनी अवस्थितियों को और मज़बूत करती हैं, जनता के बीच पूँजीवादी संकट से पैदा होने वाली अनिश्चितता व असुरक्षा का लाभ उठाकर उनमें एक नक़ली दुश्मन के प्रति भय को नये सिरे से पैदा करती हैं, उनके बीच से खड़े किये गये टुटपुँजिया वर्गों के प्रतिक्रियावादी आन्दोलन को और मज़बूत करती हैं, और फिर से सरकार में आने के समूचे उपक्रम को फिर से नये स्तर पर और भी आक्रामक रूप में अंजाम देती हैं। पिछले 26 वर्षों का इतिहास इस तथ्य का गवाह है। पूँजीपति वर्ग और विशेष तौर पर बड़ा पूँजीपति वर्ग संकट के दौर में इन शक्तियों का निरन्तर साथ देता है क्योंकि उसे मुनाफ़े की गिरती औसत दर के संकट से निजात कोई कांग्रेस सरकार, कोई तीसरे मोर्चे की सरकार उतने प्रभावी तरीके से नहीं दिला सकती, जैसे कि एक फ़ासीवादी सरकार दिला सकती है। नतीजतन, अन्तत: पूँजीवादी दीर्घकालीन संकट के दौर में और सही विचारधारा और कार्यक्रम से लैस मेहनतकश वर्गों की एक क्रान्तिकारी देशव्यापी पार्टी की ग़ैर–मौजूदगी में फ़ासीवादी शक्तियाँ पहले से ज़्यादा आक्रामक और बर्बर रूप में सरकार में भी पहुँचती हैं। 1998 से अब तक का इतिहास इसी बात का गवाह है। यह हर बार बढ़ती तीव्रता के साथ आने वाले मिर्गी के दौरे के समान होता है।
लेकिन चुनावों में हार फ़ासीवादी और जनविरोधी, मेहनतकश-विरोधी, ग़रीब किसान-विरोधी, स्त्री-विरोधी, दलित-विरोधी भाजपा की मोदी-शाह सरकार के लिए निश्चय ही एक तात्कालिक झटका होगा और सीमित अर्थों में यह देश की मेहनतकश जनता को एक क्रान्तिकारी नेतृत्व व पार्टी के निर्माण और गठन के लिए कुछ मोहलत देगा, हालाँकि ज़मीन पर फिर भी लगातार मेहनतकशों की क्रान्तिकारी ताक़त को अपने जुझारू संगठन के बूते फ़ासीवादियों से टकराते रहना होगा। इसलिए जिन 6 सीटों पर RWPI के उम्मीदवार हैं वहाँ हम आपको आह्वान करते हैं कि आप एकजुट और पुरज़ोर तरीके से RWPI के उम्मीदवारों को समर्थन दें, और उनके अलावा सभी सीटों पर हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भाजपा की फ़ासीवादी सरकार हारे। इसीलिए हमने कहा कि कभी–कभी हमें क्या चाहिए, इससे पहले यह तय करना पड़ता है कि हमें क्या नहीं चाहिए। जो चाहिए, उसे हासिल करने के लिए भी कई बार यह तात्कालिक तौर पर ज़रूरी हो जाता है कि हम तय करें कि हमें क्या नहीं चाहिए।
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यह भी स्पष्ट होना चाहिए कि कांग्रेस या किसी तीसरे मोर्चे की कोई सरकार संघ परिवार और भाजपा पर वास्तव में लगाम कसने का कोई विशेष काम नहीं कर पायेगी। इसलिए नहीं कि वह करना नहीं चाहती है या करना चाहती है। इसलिए क्योंकि देश के पूँजीपति वर्ग को फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार की ज़रूरत है। दूसरा यह कि राज्यसत्ता की मशीनरी ही उसे उपयुक्त रूप से यह करने नहीं देगी, क्योंकि वहाँ संघ परिवार और भाजपा की गहरी घुसपैठ और पकड़ है। यही वजह है कि कर्नाटक में बजरंग दल पर प्रतिबन्ध लगाने के वायदे से सरकार बनाने के बाद कांग्रेस मुकर गयी। सवाल महज़ इरादे का नहीं, बल्कि पूँजीपति वर्ग की एक पार्टी के तौर पर उसकी काबिलियत का है। वैसे तो कांग्रेस के इरादे के बारे में भी हम पक्का नहीं कह सकते! इसी कांग्रेस की महाराष्ट्र सरकार ने एक समय मज़दूर वर्ग के उभार का ध्वंस करने के लिए शिवसेना जैसी साम्प्रदायिक व प्रवासी-विरोधी फ़ासीवादी पार्टी को खाद-पानी देने का भी काम किया था। कांग्रेस इसलिए भी ऐसा नहीं कर सकती है क्योंकि उसे ज़रूरत पड़ने पर ख़ुद नर्म साम्प्रदायिक लाइन भी चलनी है और इसलिए भी ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि उसे फ़ण्ड देने वाला पूँजीपति वर्ग ही इसकी इजाज़त नहीं देगा। एक राजनीतिक रूप से संगठित वर्ग के तौर पर पूँजीपति वर्ग के घाघ चिन्तक व पहरेदार जानते हैं कि संकटग्रस्त पूँजीवाद के दौर में उन्हें हमेशा फ़ासीवादी ताक़तों की ज़रूरत बनी रहेगी। इसलिए सरकार से बाहर होकर भी दीर्घकालिक संकट के दौर में फ़ासीवादी ताक़तें ज़ंज़ीर में बँधे रैबीज़ कुत्ते के समान मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी पर लगातार हमले करने का प्रयास करेंगी। इतना ही फ़र्क़ होगा कि सरकार के तात्कालिक कार्यकारी निर्णय पूर्ण रूप में सीधे फ़ासीवादी शक्तियों के हाथ में नहीं होंगे, जो मेहनतकश जनता और उसके क्रान्तिकारी नेतृत्व को युक्ति-कौशल का अपेक्षाकृत अधिक ‘स्पेस’ मुहैया करा सकता है। इसलिए आज हमारा दूसरा कार्यभार है : फ़ासीवादी भाजपा को सरकार से बाहर करना, चुनावों में उसकी हार को सुनिश्चित करना। मोदी सरकार के 5 और साल देश की मेहनतकश जनता के लिए और भी ज़्यादा भयंकर बरबादी और तबाही लाने वाले साबित होंगे, यह साफ़ हो चुका है।
देश की सामाजिक-आर्थिक स्थिति
सबसे पहले इस सच्चाई को समझ लें : भारत में बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण, बेघरी की ऐसी हालत कभी नहीं रही है, जैसी मोदी सरकार के 10 वर्षों में हुई है। अगर आप मोदी सरकार द्वारा लगातार किये जा रहे निपट झूठे प्रचार, झूठे होर्डिंगों, झूठे पोस्टरों, झूठे व्हाट्सएप सन्देशों, गोदी मीडिया द्वारा लगातार किये जा रहे झूठे प्रचारों को छोड़ दें, और ज़रा संजीदगी से अपने और अपने जैसे आम लोगों व उनके परिवारों के जीवन के हालात पर एक नज़र डालें तो एक बात बिल्कुल साफ़ हो जाती है: आज से 10 साल पहले हम अपनी आमदनी, मज़दूरी या वेतन से जो पोषण, वस्तुएँ, सेवाएँ, शिक्षा, चिकित्सा, आवास आदि प्राप्त कर सकते थे, वह आज नहीं कर पा रहे हैं; हम जिस क़ीमत और गुणवत्ता वाली शिक्षा 10 वर्ष पहले हासिल कर पा रहे थे, वह आज नहीं कर पा रहे हैं; हम 10 वर्ष पहले बेरोज़गारी के जो हालात झेल रहे थे, आज हम बेरोज़गारी के उससे कहीं ज़्यादा भयंकर हालात झेल रहे हैं; देश में 10 वर्ष पहले जो बेघरी के हालात थे, आज उससे बुरे हालात हैं; देश में पिछले 10 वर्षों में जो घोटाले हुए हैं, उसके बराबर धन के घोटाले तो 1947 से 2014 तक नहीं हुए; देश पर जितना विदेशी क़र्ज़ है, उसने पिछले 10 वर्षों में सारे रिकार्ड तोड़ दिये हैं। आइए, कुछ आँकड़ों पर नज़र डालते हैं।
मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान कोरोना महामारी से लाखों लोगों की जान गयी। हालाँकि फर्ज़ीवाड़ा करने में माहिर भाजपा सरकार ने इस मामले में भी आँकड़ों की हेराफेरी करने की हर सम्भव कोशिश की। लेकिन गंगा के किनारों पर बहती लाशों और अस्पतालों, शमशानों, क़ब्रगाहों के बाहर मौजूद मृतकों की भारी पैमाने पर मौजूदगी की सच्चाई को इस सरकार का झूठा प्रचार तन्त्र भी छिपा नहीं सका। जहाँ आधिकारिक तौर पर सरकार का दावा था कि कोरोना महामारी से 5,23,975 लोगों की मृत्यु हुई है, वहीं विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़ों के अनुसार 47 लाख 40 हज़ार लोगों की मौत हुई थी, यानी लगभग 10 गुना ज़्यादा मौतें! यह मोदी-शाह सरकार की आपराधिक लापरवाही और कुप्रबन्धन ही था जिसका खामियाज़ा देश की आम ग़रीब मेहनतकश आबादी को सबसे अधिक भुगतना पड़ा। प्रवासी मज़दूरों की अपने गाँवों-घरों की तरफ़ वापसी या फिर ऑक्सीजन सिलिण्डरों की कमी से जूझते लोगों की तस्वीरें हमारे ज़ेहन में आज तक मौजूद हैं। इसके लिए केवल और केवल फ़ासीवादी मोदी सरकार की आपराधिक अनदेखी ज़िम्मेदार थी। लेकिन इतनी बेशर्म सरकार भी शायद ही दुनिया के इतिहास में कहीं रही हो। मोदी सरकार की थाली-ताली बजाने की हास्यास्पद नौटंकी से लेकर अनियोजित लॉकडाउन की चौंक-चमत्कार करने वाली घोषणा यही दिखलाती है कि देश की स्वास्थ्य सुविधाओं की हालत मोदी काल में और लचर हुई है और स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र को भी निजी कम्पनियों को मुनाफ़ा पीटने के लिए परोसा जा रहा है। यह भी अनायास नहीं है कि कोविड वैक्सीन बनाने वाली सीरम इंस्टिट्यूट ऑफ़ इण्डिया के मालिक अदार पूनावाला ने भाजपा को इलेक्टोरल बॉण्ड्स के ज़रिये चन्दा दिया था।
हर साल 2 करोड़ नये रोज़गार पैदा करने का जुमला उछालने वाले मोदी के राज में इस वक़्त तक़रीबन 32 करोड़ लोग बेरोज़गारी का दंश झेल रहे हैं। रोज़गारशुदा लोगों तक भी मन्दी की आँच पहुँच रही है और कई प्रतिष्ठित कम्पनियाँ भी अपने कर्मचारियों की धड़ल्ले से छँटनी कर रही हैं। मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान सरकारी नौकरियों के लिए 22 करोड़ 5 लाख आवेदन भरे गये और केवल 7 लाख 22 हज़ार को नौकरी मिली। इसके अलावा, नोटबन्दी और कोरोना के अनियोजित लॉकडाउन के दौरान करीब 4 करोड़ लोग नौकरियों से हाथ धो बैठे, जिनमें भारी बहुसंख्या मज़दूरों व निम्न-मध्यवर्गीय लोगों की थी।
वैश्विक भूख सूचकांक में भारत 2014 में जहाँ 76 देशों की सूची में 55वें स्थान पर था 2023 में यह 125 देशों की सूची में 111वें स्थान पर पहुँच चुका है। दुनिया के चोटी के खाद्यान्न उत्पादक देशों में शुमार भारत में भुखमरी के मामले में स्थिति अपने पड़ोसी देशों से ही नहीं बल्कि अफ्रीका के सब सहारा के सबसे ग़रीब देशों से भी नीचे जा चुकी है। सरकार में बैठे लोग खुद बेशर्मी से यह दावा करते हुए पाये जाते हैं कि उन्होंने 80 करोड़ लोगों को 5 किलो राशन की लाइन में खड़ा करके भुखमरी के कगार पर पहुँचा दिया है। यूनिसेफ़ की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में जहाँ कुल आबादी के 9.2 प्रतिशत लोग कुपोषित हैं वहीं भारत में इसका प्रतिशत 16.6 है। भारत में दुनियाभर की समूची कुपोषित आबादी का एक चौथाई हिस्सा बसता है।
मानव विकास सूचकांक में भारत 2014 में 188 देशों की सूची में जहाँ 130वें स्थान पर था अब यह 193 देशों की सूची में 134वें स्थान पर है। सभी के लिए पक्के घर और जहाँ झुग्गी वहाँ मकान का जुमला उछालने वाले मोदी के राज में करोड़ों लोग झुग्गी-झोंपड़ियों और फुटपाथों पर सोने के लिए मजबूर हैं। अग्निवीर स्कीम के नाम पर सरकार सेना तक में पक्के रोज़गार को हज़म कर गयी। नयी शिक्षा नीति–2020 शिक्षा में साम्प्रदायीकरण, निजीकरण को बढ़ाने वाला व जन विरोधी दस्तावेज़ है। देश के छात्रों की 88 फ़ीसदी आबादी उच्च शिक्षा से बाहर हो चुकी है। शिक्षा के हालात दिनोंदिन बदतर होते जा रहे हैं। मोदी राज के भयंकर हताशापूर्ण माहौल में लोग मौत को गले लगाने तक को मजबूर हो रहे हैं। केवल आधिकारिक आँकड़े देखें तो पता चलता है कि साल 2017-2021 तक के चार सालों के दौरान 7,20,611 लोगों ने आत्महत्या की जिनमें ज़्यादातर मज़दूर, ग़रीब किसान, छात्र-नौजवान और छोटा-मोटा काम-धन्धा करने वाले लोग शामिल थे।
मोदी राज में ऐसा नहीं है कि किसी का विकास नहीं हुआ है! लेकिन सवाल यह बनता है कि किसका विकास! पिछले 10 सालों के दौरान जनता की जीवन स्थिति रसातल में पहुँच चुकी है जबकि मोदी के चहेते पूँजीपतियों में अम्बानी की सम्पत्ति 400 फ़ीसदी तो अदानी की सम्पत्ति 1830 फ़ीसदी तक बढ़ चुकी है। अपने 10 साल के कार्यकाल में मोदी सरकार ने महँगाई के मामले में जनता को दिन में तारे दिखला दिये हैं। हर चीज़ के दाम आसमान छू रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार आम आदमी रूखा-सूखा खाने पर भी अपनी कमाई का 53 फ़ीसदी भोजन पर ख़र्च कर देता है जबकि अमीर आबादी भरपूर माल उड़ाने पर भी अपनी आय का मात्र 12 प्रतिशत ही भोजन पर ख़र्च करती है। सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों पर जी भरकर टैक्स लगाया है जो महँगाई का सबसे बड़ा कारण है।
भाजपा सरकार में भ्रष्टाचार के सबसे बड़े और सबसे नंगे मामले सामने आये हैं। राफ़ेल घोटाला, पीएम केयर घोटाला, व्यापम घोटाला भारतीय इतिहास के कुछ सबसे बड़े घोटाले हैं। इलेक्टोरल बॉण्ड को ही लें जिसने सरकारी भ्रष्टाचार के सारे रिकॉर्ड तोड़ डाले हैं। इसमें खुद सरकार ही माफ़िया और वसूली गिरोह की तरह काम करती पायी गयी है। इसके अलावा वोट की गोट लाल करने के लिए भाजपा ने अन्य पार्टियों के भ्रष्टाचारियों से हाथ मिला लिया और उनके सारे पाप धो डाले हैं। पीएम केयर फण्ड घोटाले, एनपीए घोटाले, नोटबन्दी घोटाले से लेकर राफ़ेल विमान ख़रीद का मुद्दा हो या सेण्ट्रल विस्टा से लेकर हिण्डनबर्ग द्वारा उजागर किया गया अदानी मामला हो, मोदी सरकार के हाथ हर जगह भ्रष्टाचार की गन्दगी में लिथड़े हुए हैं।
देश में एक ओर ग़रीबी बढ़ रही है तो दूसरी ओर मुट्ठीभर पूँजीपतियों की संख्या और सम्पदा दोनों बढ़ रहे हैं। 1981 में भारत के सबसे ऊपर के 10 प्रतिशत अमीरों की सम्पदा देश की कुल सम्पदा की 45 फ़ीसदी थी जो 2012 में बढ़कर 63 फ़ीसदी और 2022 में 80 फ़ीसदी से भी अधिक हो गयी है। देश के सबसे ऊपर के 1 प्रतिशत अमीरों के पास देश की 40 प्रतिशत सम्पत्ति इकट्ठी हो चुकी है जबकि सबसे नीचे के 50 प्रतिशत ग़रीबों के पास देश की कुल सम्पत्ति का मात्र 3 प्रतिशत है। यही वह आबादी है जोकि सबकुछ पैदा करती है। आज जीएसटी नामक लुटेरी कर व्यवस्था ने जनता की कमर तोड़कर रख दी है। जीएसटी का 64 प्रतिशत हिस्सा देश की 50 फ़ीसदी ग़रीब आबादी भर रही है जबकि देश के तमाम संसाधनों पर क़ब्ज़ा किये बैठे धन्नासेठ इसका केवल 10 फ़ीसदी ही भरते हैं। मोदी राज में 2015 से 2021 तक 6 सालों के बीच 11 लाख 19 हज़ार करोड़ के लोन बट्टे खाते में डाले गये जिसमें से मात्र एक लाख करोड़ की ही वसूली हई है यानी 10 लाख 19 हज़ार करोड़ रुपये धन्नासेठों द्वारा सीधे हज़म कर लिये गये जबकि 2004 से 2014 के 10 सालों में क़र्ज़ माफ़ी की राशि 2 लाख 22 हज़ार करोड़ थी! 25 लाख से ज़्यादा का क़र्ज़ लेकर न चुकाने वाले ‘विलफ़ुल डिफ़ॉल्टरों’ की संख्या 15,000 तक पहुँच चुकी है, जनता का पैसा मारकर क़रीब 40 धनपशु तो देश छोड़कर ही भाग गये। हम यह आसानी से देख सकते हैं कि मोदी सरकार ने इन 10 सालों में जनता के लिए नहीं बल्कि धन्नासेठों के लिए काम किया है।
ऊपर प्रस्तुत किये गये आँकड़े पिछले दस सालों में मज़दूरों-मेहनतकशों के बद से बदतर होते जा रहे हालात पर एक नज़र डालते हैं। इसी दौरान मोदी सरकार ने मज़दूर वर्ग पर अपने हमलों को तेज़ भी किया है। चार लेबर कोड्स के ज़रिये मज़दूरों-मेहनतकशों के बचे-खुचे अधिकारों पर डाकेज़नी की जा रही है। इन नये श्रम क़ानूनों के तहत मज़दूरों के लिए यूनियन बनाना भी पहले से अधिक मुश्किल हो जायेगा।
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इसी प्रकार देश में स्त्रियों, दलितों, आदिवासियों और विशेष तौर पर आम मेहनतकश मुसलमान आबादी के हालात पिछले 10 साल में कहाँ से कहाँ पहुँच गये हैं, एक निगाह इस पर भी डाल लेते हैं।
मोदी-शाह का फ़ासीवादी शासन जनता पर क़हर बनकर टूट रहा है। वैसे तो देश की पूरी की पूरी आम मेहनतकश ग़रीब जनता ही इस कहर का शिकार बन रही है लेकिन इनमें भी स्त्रियाँ, दलित, आदिवासी, कमेरी मुस्लिम आबादी और मज़दूरों का जीवन इस शासन ने नरक बना दिया है। एनसीआरबी की यानी ख़ुद सरकारी रिपोर्ट के अनुसार ही 2014 में कुल 3,37,922 स्त्री विरोधी मामले दर्ज किये गये थे 2022 में जिनकी संख्या बढ़कर 4,45,256 तक पहुँच गयी। इस समय हर चौथे मिनट में देश में एक स्त्री लापता हो रही है। साल 2016 के बाद से स्त्री विरोधी मामलों में 26.35 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। वर्तमान लोकसभा में क़रीब 44 प्रतिशत सांसदों पर गम्भीर आपराधिक मामले दर्ज हैं जिनमें बड़ी संख्या भाजपा से जुड़े सांसदों की है। जिस पार्टी में कुलदीप सेंगर, चिन्मयानन्द, बृजभूषण सिंह,, साक्षी महाराज, एम.जे. अकबर, संदीप सिंह जैसे अपराधी भरे पड़े हों उसका शासन ‘नारी पर वार’ को किस कदर रोक सकता है यह हमारे सामने है। बलात्कारियों के समर्थन में तिरंगा यात्राएँ निकालना, बलात्कारी अपराधियों को छोड़ना और फूल मालाएँ पहनाकर उनका स्वागत करना या पीड़िताओं का ही चरित्र हनन करना आज आम परिघटना बन चुकी है। महिला आरक्षण विधेयक के ज़रिये मोदी सरकार अपनी भयंकर स्त्री-विरोधी छवि को सुधारने की थोड़ी-बहुत कोशिश करना चाह रही थी लेकिन इस मामले में भी भाजपा और मोदी सरकार की असली नीयत ख़ुद-ब-ख़ुद साफ़ हो गयी। संसद-विधान सभाओं में एक तिहाई आरक्षण तत्काल लागू करने की बात से मोदी सरकार पीछे हट गयी और इसे अगले जनगणना और परिसीमन तक टाल दिया! यह दीगर बात है कि ऐसे किसी विधेयक के पारित और लागू होने से इस देश की अधिकांश मेहनतकश स्त्रियों को कुछ हासिल नहीं होगा और यह स्त्रियों के बीच से भी एक शासक वर्ग पैदा करेगा जो आज भी मौजूद है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि भाजपा से अधिक स्त्री-विरोधी पार्टी आज कोई नहीं है। यही कारण है कि आज आम जनता के बीच यह कहावत चल पड़ी है कि “बेटी बचाओ, लेकिन भाजपाइयों से”।
मोदी राज में दलित विरोधी मामलों में भी ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है। एनसीआरबी की वर्ष 2013 की रिपोर्ट के अनुसार इस वर्ष दलित विरोधी अपराधों के 39,408 मामले दर्ज हुए थे जोकि 2022 में 57,582 तक पहुँच गये। यानी मोदी के 10 सालों के शासन में दलित विरोधी अपराधों में 46 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इनमें भी ग़रीब दलित आबादी और दलित महिलाएँ सबसे बुरे किस्म का जातीय उत्पीड़न झेलने के लिये मजबूर हो रहे हैं। 2020 के ही आँकड़ों को लें तो इस वर्ष दलितों के ख़िलाफ़ 50,291 मामले दर्ज हुए थे किन्तु इनमें 3,242 मामलों में यानी कुल 6 प्रतिशत मामलों में ही सज़ा सुनायी गयी। यह चीज़ भाजपा के दलित प्रेम और “रामराज्य” की असलियत को बेनक़ाब करने के लिये काफ़ी है। भाजपा अपने वोट बैंक को पक्का करने के लिए पहचान की राजनीति का तो खूब इस्तेमाल करती है और जातियों के तमाम ठेकेदारों को शह देती है लेकिन इसके राज में दलित विरोधी अपराधों को लगातार बढ़ावा मिल रहा है।
भाजपा के राज में आदिवादियों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में भी 48.15 फ़ीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है। आदिवासियों से जल-जंगल-जमीन छीनकर उन्हें जीवन तक के अधिकार से वंचित किया जा रहा है। आदिवासी को राष्ट्रपति बनाने के नाम पर और इन्हें वनवासी का तमगा थमा देने के नाम पर इन्हें ठगने वाली भाजपा के राज में ग़रीब आदिवासी आबादी के लिए भी कोई जगह नहीं है।
मोदी राज में मेहनतकश मुसलमान आबादी को तो विशेष तौर पर निशाना बनाया जाता रहा है। यही वह आबादी है जिसका फ़र्ज़ी “ख़तरा” दिखाकर भाजपा ग़रीब हिन्दू आबादी को ठगती आयी है। मुस्लिम विरोधी घृणा पैदा करने वाले अपराधों में 80 प्रतिशत अकेले भाजपा के राज में हुए हैं। ऐसे मामले लगातार बढ़े हैं जिनमें तथाकथित ‘लव जिहाद’ के नाम पर बेक़सूरों को निशाना बनाया गया और गोहत्या का झूठा आरोप लगाकर मासूम लोगों को मौत के घाट उतार दिया। साम्प्रदायिक दंगों, मॉब लिंचिंग और बुलडोज़र अन्याय की शिकार आबादी में बड़ी संख्या मेहनतकश ग़रीब मुसलमानों की ही है। चुनाव से पहले ध्रुवीकरण की नफरती राजनीति के मातहत खासतौर पर मुस्लिम विरोधी दुष्प्रचार को बढ़ावा दिया जाता है। साल 2023 के पहली छमाही की तुलना में दूसरी छमाही में मुसलमान विरोधी भाषणों में 62 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। सीएए और एनआरसी जैसे क़ानून-नीतियों को लाकर समाज में साम्प्रदायिक हिंसा के माहौल को लगातार तैयार किया जा रहा है हालाँकि ये क़ानून अपने मूल में सभी मेहनतकशों के ख़िलाफ़ हैं, असम का उदाहरण हमारे सामने है। भाजपा का “रामराज्य” का मॉडल कुछ और नहीं बल्कि पूँजीपतियों की नंगी तानाशाही है। इस राज में मज़दूरों, ग़रीब किसानों, कर्मचारियों का जीवन तो रसातल में पहुँचा ही दिया गया है, मेहनतकश वर्ग की स्त्रियों, दलितों, मुसलमानों और आदिवासियों पर यह विशेष रूप से कहर बनकर टूट रहा है।
इसके अलावा मोदी सरकार द्वारा हाल ही में नयी आपराधिक दण्ड संहिताओं (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023, भारतीय न्याय संहिता, 2023 व भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023) को लाने के पीछे का मक़सद भी हर प्रकार के प्रतिरोध को कुचलना और उससे सख़्त तरीक़े से निपटना है। मोदी सरकार भी इतना जानती और समझती है कि अपनी इस क़दर नंगी और बेशर्म पूँजीपरस्त नीतियों के कारण वह जन आक्रोश और प्रतिरोध को जन्म देगी इसलिए वह पहले से ही उनसे कारगर तरीक़े से निपटने के क़ानूनी इन्तज़ामात भी कर रही है। हालाँकि मौजूदा न्याय और क़ानून व्यवस्था के रहते भी उसे कोई ख़ास दिक़्क़त पेश नहीं आ रही थी। लेकिन अब इन्हीं क़ानूनों को और अधिक जन-विरोधी बनाया गया है। पिछले दस सालों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं से लेकर पत्रकारों पर दमन की अनगिनत घटनाएँ हमारे सामने मौजूद हैं। राजद्रोह और यूएपीए जैसे काले जन-विरोधी क़ानूनों का एक राजनीतिक औज़ार के तौर पर इस्तेमाल मोदी-शाह सरकार ने जमकर अपने राजनीतिक विरोधियों के ख़िलाफ़ किया है। 2014 से 2022 के बीच यूएपीए के तहत कुल 8719 मामले दर्ज किये गये। इसके अलावा राजद्रोह के 495 मामले इस अवधि में दर्ज किये गये।
कश्मीर से लेकर मणिपुर तक के मौजूदा हालात मोदी सरकार के फ़ासीवादी चरित्र को और भी उजागर करते हैं। मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 हटाने से लेकर कश्मीर में जनसांख्यिकीय संरचना को बदलने के लिए लाये गये क़ानून भारतीय राज्यसत्ता द्वारा कश्मीरी क़ौम के साथ किये गये ऐतिहासिक विश्वासघात को तो दर्शाते ही हैं लेकिन ये साथ ही फ़ासीवादी दौर में दमित राष्ट्रों के क़ौमी दमन के मामले में आये गुणात्मक बदलाव को भी रेखांकित करते हैं। मणिपुर में भी मई 2023 से जारी हिंसा का ताण्डव, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गये और कई हज़ार लोग बेघर हो गये, भाजपा की “डबल इंजन सरकार” के हवाई दावों की पोल खोल देता है और हिंसा की वारदातों को अंजाम देने में राज्य मशीनरी की भूमिका को भी बेपर्द करता है। इस दौरान अस्मितावादी राजनीति को उभारकर फ़ासीवादी भाजपा द्वारा मेतई-कुकी विवाद को उत्तर-पूर्व में अपनी फ़ासीवादी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए बख़ूबी इस्तेमाल किया गया।
उपरोक्त आँकड़े देश के आम मेहनतकश अवाम के जीवन की सामाजिक-आर्थिक स्थिति की महज़ एक झलक दिखलाते हैं। लेकिन इतने से ही स्पष्ट है कि भाजपा की जनविरोधी मोदी-शाह सरकार ने पिछले 10 वर्षों में पूँजीपति वर्ग के लिए आपदा को कैसे अवसर में बदला और जनता के लिए कैसे अवसर को आपदा में बदला।
उपरोक्त तथ्य और आँकड़े उन्हीं दो कार्यभारों को स्पष्ट करते हैं जिनका हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं। आज आम मेहनतकश जनता के हितों की हिफ़ाज़त और उनके लिए संघर्ष का काम काम मेहनतकश वर्ग के बीच से बनी और उभरी एक पार्टी ही कर सकती है। पहला, 18वीं लोकसभा के लिए अप्रैल से होने वाले चुनावों में जिन छह सीटों पर RWPI यानी मेहनतकशों–मज़दूरों की अपनी पार्टी के उम्मीदवार खड़े हैं, वहाँ उनको वोट दें। दूसरा, अन्य सभी सीटों पर पहला प्रश्न है कि “हमें क्या नहीं चुनना है”। इतना स्पष्ट है कि मोदी सरकार के 5 और साल देश की जनता के लिए अभूतपूर्व स्तर पर और अभूतपूर्व गति से तबाही लायेंगे और उसके तानाशाहाना फ़ासीवादी रवैये के कारण जनता के प्रतिरोध करने का जनवादी स्पेस भी संकुचित होता जायेगा। इसलिए भाजपा व संघ परिवार को सरकार से बाहर कर फ़ासीवादी शक्तियों को एक तात्कालिक झटका देना, हमारा दूसरा अहम कार्यभार है। निश्चित तौर पर, कांग्रेस या कोई भी अन्य पूँजीवादी दल भी अमीरज़ादों के हितों की ही सेवा करता है। लेकिन एक फ़ासीवादी पूँजीवादी दल और अन्य किसी भी पूँजीवादी दल में एक अन्तर होता है जिसे समझना फ़ासीवाद-विरोधी संघर्ष को सही तरीके से आगे बढ़ाने और आम तौर पर पूँजीवाद-विरोधी संघर्षों को आगे बढ़ाने के लिए अनिवार्य है। आज देश के मेहनतकश अवाम को अपने क्रान्तिकारी नेतृत्व और संगठन को देशव्यापी तौर पर खड़ा करने के लिए इस बात की ज़रूरत है कि भाजपा आने वाले चुनावों में हारे।
हमारा कार्यक्रम
- सभी अप्रत्यक्ष करों को समाप्त किया जाये और आय और उत्तराधिकार में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति पर प्रगतिशील कराधान की प्रणाली को समुचित रूप से लागू किया जाये। यानी, धनी, उच्च मध्यम व खाते-पीते मध्यम वर्गों से प्रत्यक्ष कर लिये जायें जिनकी दर बढ़ती आय के साथ बढ़ती जाये।
- सभी बैंकों, निजी पूँजीवादी उपक्रमों का और सभी खानों-खदानों का पूर्ण राष्ट्रीकरण किया जाये। आज अगर कॉरपोरेट घरानों की कुल सम्पदा देखी जाये, तो हम पाते हैं कि उसका बड़ा हिस्सा बैंकों से, विशेषकर सरकारी बैंकों से लिये गये ऋण हैं, जो कि जनता का पैसा ही है। साथ ही, इन कम्पनियों की समूची सम्पदा मेहनतकश वर्ग सामूहिक तौर पर पैदा करते हैं, जिन पर मालिकों के वर्ग का क़ब्ज़ा होता है। अगर सामान्य तर्क से भी देखें, तो मज़दूर वर्ग ने आरम्भिक निवेश जितना मुनाफ़ा इन कम्पनियों के मालिकों को बहुत पहले ही पैदा करके दे दिया है। आज इन सभी कम्पनियों की एक-एक कील पर इनमें काम करने वाले मज़दूरों और कर्मचारियों का साझा हक़ है। इसलिए इन सभी कम्पनियों और कॉरपोरेट घरानों की समूची सम्पत्ति को देश की साझा सम्पत्ति घोषित किया जाना चाहिए।
- ज़मीन का राष्ट्रीकरण किया जाये और जिन भी खेतों को जोतने का काम स्वयं किसान अपनी और अपने परिवार की मेहनत से नहीं करता, बल्कि नियमित तौर पर मज़दूरों से करवाता है, उनका सामूहिकीकरण कर खेतिहर मज़दूरों व ग़रीब किसानों के समूहों को साझी खेती के लिए सौंप दिया जाये या उन्हें मॉडल सरकारी फ़ार्मों में तब्दील कर दिया जाये। पूँजीवादी तर्क से भी ज़मीन किसी की निजी सम्पत्ति नहीं हो सकती है, यह एक प्राकृतिक संसाधन है जिस पर समूचे देश का साझा हक़ है।
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- काम का अधिकार वास्तव में जीने का अधिकार है। बिना काम के अधिकार के जीने का अधिकार महज़ एक धोखा है। काम के अधिकार को संविधान के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों से हटाकर उसके मूलभूत अधिकारों के हिस्से में शामिल किया जाये। इसके लिए आवश्यक संवैधानिक संशोधन किया जाये और ‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी अधिनियम’ पारित किया जाये, जिसके तहत साल भर के पक्के रोज़गार की गारण्टी सरकार ले अथवा प्रति माह रु. 15,000 बेरोज़गारी भत्ता दे।
- केन्द्र और राज्य सरकारों के सभी विभागों और सार्वजनिक उपक्रमों में सभी ख़ाली पड़े पदों को अविलम्ब भर्ती निकालकर भरा जाये।
- मज़दूर-विरोधी चार लेबर कोड्स तत्काल रद्द किये जायें। हर प्रकार के नियमित कार्य में ठेका प्रथा को पूर्ण रूप से समाप्त किया जाये।
- काम के घण्टे क़ानूनी तौर पर 6 किये जाने चाहिए। 1970 के दशक में देश में होने वाले कुल उत्पादन के मूल्य में मज़दूरी का प्रतिशत 30 के क़रीब था जो अब गिरकर 11 प्रतिशत के भी नीचे आ चुका है। मज़दूर वर्ग उस समय से कहीं ज़्यादा उत्पादन कर रहा है और आज तकनोलॉजी भी उससे कहीं ज़्यादा उन्नत है, जिससे कि मज़दूर वर्ग की उत्पादकता में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन इसके साथ उसकी वास्तविक मज़दूरी नहीं बढ़ी है, बल्कि काम के घण्टे बढ़ते गये हैं। यह पूरी तरह जायज़ है कि आज कार्यदिवस की लम्बाई को 6 घण्टे कर दिया जाये। इससे भारी संख्या में नया रोज़गार भी पैदा होगा।
- राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी कम–से–कम रु. 30,000 प्रति माह की जाये। आज इससे कम वेतन में चार सदस्यों वाला परिवार अपनी बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं कर सकता है। जिन राज्यों में जीवनयापन ख़र्च ज़्यादा होता है, उन राज्यों में इसे समुचित रूप से और ज़्यादा बढ़ाया जाये।
- सभी उद्योगों में कामगारों की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए और सभी मानक इन्तज़ाम किये जाने चाहिए।
- ओवरटाइम की व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त किया जाये। कम मज़दूरी के कारण मज़दूरों को “स्वैच्छिक” या जबरिया ओवरटाइम करना पड़ता है। यह मज़दूरों के जीवन को पाशविक बना देता है और उन्हें मशीन या कोल्हू के बैल में तब्दील कर देता है। मज़दूर वर्ग के इस विमानवीकरण को रोकने के लिए ओवरटाइम को पूरी तरह ख़त्म किया जाना चाहिए।
- रात्रि कार्य (नाइट शिफ़्ट) को समाप्त किया जाये और केवल उन उद्योगों में इसकी अनुमति दी जाये, जिन उद्योगों में यह अपरिहार्य है। उन उद्योगों में भी रात्रि कार्य की अवधि चार घण्टों से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए और इसका संचालन हर उद्योग में मज़दूरों की यूनियनों की देखरेख में होना चाहिए।
- स्कूली उम्र (सोलह साल) से कम उम्र के नवयुवकों व बच्चों द्वारा काम कराये जाने पर पूरी तरह रोक लगायी जाये। 16 से 18 वर्ष के श्रमिकों के काम के घण्टे चार से ज़्यादा नहीं होने चाहिए।
- उद्योग की उन सभी शाखाओं में स्त्री श्रम पर रोक हो जो कि स्त्रियों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं। सभी स्त्री कामगारों को प्रसव के छह महीने पहले और छह महीने बाद तक पूर्ण वेतन के साथ छुट्टी दी जानी चाहिए।
- हर शाखा में स्त्रियों को पुरुषों के समान वेतन की व्यवस्था होनी चाहिए और उनसे रात्रि कार्य लिये जाने पर रोक होनी चाहिए, उन उपक्रमों को छोड़कर जहाँ पर स्त्रियों के रात में काम करने की अपरिहार्यता हो। रात्रि कार्य की शिफ़्ट चार घण्टे से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए और उन्हें घर सुरक्षित ले जाने और ले आने की समुचित व्यवस्था नियोक्ता की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए।
- जिन भी उपक्रमों में स्त्रियाँ काम करती हैं, वहाँ पर कारख़ानों के भीतर पालना घर व नर्सरी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए और स्तनपान कराने वाली स्त्रियों को इसके लिए कम-से-कम हर तीन घण्टे पर कम-से-कम आधे घण्टे का अवकाश मिलना चाहिए।
- सभी उपक्रमों में कम–से–कम एक दिन का साप्ताहिक अवकाश अवश्य मिलना चाहिए, जो क़ानूनी तौर पर होने के बावजूद वास्तव में नहीं मिलता।
- मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी के लिए, जो कि किसी अन्य के श्रम का दोहन नहीं करते, राजकीय बीमा की पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए जिसके तहत हर प्रकार की विकलांगता, बीमारी, बच्चे के जन्म, जीवन-साथी की मृत्यु, अनाथ होने पर सरकार द्वारा बीमा राशि दी जानी चाहिए। इस बीमा योजना के लिए धन विशेष टैक्स लगाकर पूँजीपतियों से वसूला जाना चाहिए।
- वस्तु के रूप में मज़दूरी के भुगतान पर पूरी रोक लगायी जाये और हर उद्योग में मज़दूरी के भुगतान की नियत मासिक तिथि तय की जानी चाहिए।
- नियोक्ताओं द्वारा किसी भी कारण या बहाने से मज़दूरी में कोई भी कटौती करने पर पूर्ण रोक लगायी जाये।
- श्रम विभाग में बड़े पैमाने पर भर्ती करके उसका विस्तार किया जाये। नये श्रम निरीक्षक, कारख़ाना निरीक्षक व ब्वायलर निरीक्षकों की इतनी संख्या में भर्ती की जाये कि सभी आर्थिक इकाइयों की नियमित और गहरी जाँच की जा सके। सभी निरीक्षण दलों को ‘थ्री-इन-वन’ के सिद्धान्त पर गठित किया जाये, जिसमें कि सरकार द्वारा नियुक्त निरीक्षक, मज़दूर संगठनों/यूनियनों के चुने हुए प्रतिनिधि और मालिकों के प्रतिनिधि हों, और मज़दूर प्रतिनिधियों की बहुसंख्या हो।
- सभी औद्योगिक इकाइयों में श्रम और उत्पादन के प्रबन्धन का कार्य मज़दूरों के चुने हुए प्रतिनिधियों, प्रबन्धकों और तकनीशियनों की ‘थ्री-इन-वन’ कमेटियों को दिया जाना चाहिए जिसमें मज़दूर प्रतिनिधि बहुसंख्या में हों। उत्पादन की गति और उसके लक्ष्य इस कमेटी द्वारा ही निर्धारित किये जाने चाहिए।
- स्त्री मज़दूरों वाले सभी उद्योगों के लिए स्त्री श्रम निरीक्षकों की व्यवस्था होनी चाहिए।
- सभी उद्योगों के लिए साफ़-सफ़ाई और हाईजीन के कड़े नियम-क़ानून बनाये जायें जिसके अनुसार सभी औद्योगिक इकाइयों में साफ़-सुथरे बाथरूमों, शौचालय आदि की व्यवस्था हो। इसकी जाँच हेतु श्रम विभाग में एक सैनिटरी इंस्पेक्टोरेट का गठन किया जाये।
- मौजूदा श्रम क़ानूनों में उपरोक्त बातों को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक संशोधन किये जायें और उनके उल्लंघन को आपराधिक कृत्य की श्रेणी में डाला जाये और दण्डनीय अपराध बनाया जाये। केवल मामूली आर्थिक जुर्माने से मालिकों को कोई डर या समस्या नहीं है। इसलिए किसी भी श्रम क़ानून के उल्लंघन पर कम-से-कम तीन माह का ग़ैर-ज़मानती कारावास होना चाहिए।
- घरेलू कामगारों के लिए अलग लेबर एक्सचेंज का गठन हो, जिसमें कि उनका पंजीकरण हो और किसी भी व्यक्ति को घरेलू कामगार की ज़रूरत पड़ने पर इस एक्सचेंज द्वारा घरेलू कामगार मुहैया कराये जायें। घरेलू कामगारों पर न्यूनतम मज़दूरी समेत श्रम क़ानूनों में दिए गये सभी अधिकार लागू हों। उनके लिए एक अलग विशेष क़ानून बनाया जाये जिसमें कि उनके सम्मान, घरों में उनके साथ बराबरी के बर्ताव और उनकी रोज़गार-सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाये। न सिर्फ़ घरेलू कामगारों की पहचान और पंजीकरण को सुनिश्चित किया जाये, बल्कि उनके नियोक्ताओं की भी जाँच, पहचान और पंजीकरण किया जाये।
- तथाकथित लेबर चौक के मज़दूरों के लिए भी अलग लेबर एक्सचेंज का गठन किया जाये, जिनमें उनकी दिहाड़ी न्यूनतम मज़दूरी के अनुसार और काम के घण्टे विनियमित किये जायें। उनके पहचान कार्ड बनाये जायें और किसी भी नियोक्ता को मज़दूर रखने के लिए इन्हीं एक्सचेंजों से सम्पर्क करने की व्यवस्था बनायी जाये।
- सभी खेतिहर मज़दूरों के कार्य को श्रम क़ानूनों के मातहत लाया जाये और उनके कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त ढाँचे का निर्माण किया जाये। मनरेगा में पूरे साल काम की व्यवस्था की जाये। ग़रीब व मँझोले किसानों (जो नियमित तौर पर श्रमशक्ति का शोषण नहीं करते और आम तौर पर अपने और अपने परिवार के श्रम का इस्तेमाल करते हैं) के लिए बीज, खाद, बिजली आदि पर सब्सिडी की समुचित व्यवस्था हेतु अमीर वर्गों पर विशेष कर लगाये जायें, सिंचाई की सरकारी व्यवस्था और संस्थागत ऋण का भी समुचित प्रबन्ध किया जाये।
- सभी उद्योगों में औद्योगिक व श्रम अदालतों की व्यवस्था की जाये जिनके पास औद्योगिक विवादों के निपटारे और श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने वाले दोषियों के विरुद्ध दण्डात्मक कार्रवाई का अधिकार हो।
- सभी स्कीम वर्करों जैसे कि आँगनवाड़ीकर्मी, आशाकर्मी, आदि को पक्का रोज़गार देते हुए सरकारी कर्मचारी का दर्ज़ा दिया जाये और समेकित बाल विकास योजना या ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसे विशेष मिशनों के स्थान पर इन सारे कल्याणकारी कार्यों के लिए सरकार समुचित सरकारी विभाग स्थापित करें और इन कार्यों को राज्य की नीति का अंग बनाया जाये, न कि किसी विशेष योजना का अंग।
- गिग वर्कर्स को सभी श्रम क़ानूनों के दायरे में लाने और उनके लिए सभी सामाजिक सुरक्षा लाभ सुनिश्चित करने के लिए सभी राज्यों में अलग क़ानून बनाया जाये।
- हाथ से मैला ढोने की प्रथा पर तत्काल प्रतिबन्ध लगाया जाये।
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- विशेष आार्थिक क्षेत्र (एस.ई.ज़ेड.) का क़ानून रद्द किया जाये और सभी मौजूदा विशेष आर्थिक क्षेत्रों को समाप्त किया जाये।
- कॉरपोरेट हितों के लिए जबरिया भूमि अधिग्रहण पर रोक लगायी जाये और अगर आम जनहित के लिए भूमि अधिग्रहण अनिवार्य हो, तो वहाँ इससे प्रभावित होने वाली पूरी आबादी के समुचित पुनर्वास की पूरी व्यवस्था की जाये।
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- नयी शिक्षा नीति, 2020 को तत्काल रद्द किया जाये। निजी स्कूलों व शिक्षण संस्थानों की व्यवस्था को पूर्ण रूप से समाप्त किया जाये और भारत के हरेक नागरिक के लिए प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चतर शिक्षा के स्तर तक समान एवं निशुल्क राजकीय शिक्षा का प्रावधान किया जाये। चाहे किसी का भी बच्चा हो, उसे समान शिक्षा मिलनी चाहिए। स्कूली शिक्षा को उत्पादन-सम्बन्धी प्रशिक्षण से जोड़ा जाना चाहिए और यह सभी बच्चों के लिए अनिवार्य होना चाहिए।
- सभी को अपनी मातृभाषा या अपने चयन की भाषा में शिक्षण, कार्य, चिन्तन, व अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी हो। इसलिए किसी भी भाषा को राजकीय या राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। हर क्षेत्र में जनता को अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने, सभी प्रशासनिक कार्रवाइयों, न्यायिक कार्रवाइयों में हिस्सा लेने का अधिकार होना चाहिए। अदालतों, सरकारी दफ़्तरों व सभी विभागों की कार्रवाई क्षेत्र की वहाँ की जनता की मातृभाषा या मातृभाषाओं में होनी चाहिए।
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- सभी मेहनतकश लोगों के लिए सरकारी आवास की व्यवस्था की जाये। ये आवास उन्हें भोगाधिकार के आधार पर दिये जायें, जिसे बेचना या उसे किराये पर उठाना पूर्णत: निषिद्ध हो। इसके लिए सभी ख़ाली पड़े निजी अपार्टमेण्टों, फ़्लैटों व मकानों को सरकार ज़ब्त करे। वैसे तो आवास की समस्या तभी पूरी तरह हल हो सकती है जबकि भूमि और मकान में निजी मालिकाने की समूची व्यवस्था समाप्त हो जाये। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक समस्त मज़दूरों व झुग्गीवासियों को पक्के मकान भोगाधिकार के आधार पर मुहैया करना सरकार की ज़िम्मेदारी बनायी जाये ताकि आवास के बुनियादी अधिकार को सुनिश्चित किया जा सके।
- सरकार को नि:शुल्क सार्विक स्वास्थ्य देखरेख की गारण्टी करनी चाहिए जिसके तहत चिकित्सा व दवा-इलाज सरकार की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। साथ ही, स्वास्थ्य के अधिकार को संवैधानिक अधिकार घोषित करके मूलभूत अधिकारों में शामिल किया जाये।
- सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राशनिंग की प्रभावी व्यवस्था का निर्माण किया जाये और हर इलाक़े में राशन की दुकानें खोली जायें।
- नयी पेंशन स्कीम को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये और मज़दूर संगठनों से परामर्श करके एक नयी तर्कसंगत व न्यायसंगत पेंशन स्कीम लागू की जाये और तब तक पुरानी पेंशन स्कीम को ही लागू रखा जाये।
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- राज्य को धर्म, धार्मिक संस्थाओं व हर प्रकार की धार्मिक गतिविधियों से पूरी तरह स्वतन्त्र बनाया जाये।
- धर्म को राजनीतिक व सामाजिक जीवन से पूरी तरह अलग किया जाये और इसे पूर्ण रूप से नागरिकों के निजी जीवन का मसला बनाया जाये।
- सभी शिक्षण संस्थाओं को धर्म व धार्मिक गतिविधियों, मसलन धार्मिक प्रार्थना, धार्मिक अनुष्ठान, धार्मिक प्रतीकों, आदि, से पूरी तरह अलग किया जाये।
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- हर गाँव व शहर में नागरिकों की मुहल्ला सभाओं का गठन होना चाहिए और सभी सरकारी योजनाओं में होने वाले वित्त के आबण्टन के उपयोग का फै़सला इन सभाओं के हाथों में होना चाहिए।
- ऋण न चुकाने वाली सभी कम्पनियों और नॉन-परफ़ॉर्मिंग एसेट घोषित हो चुकी सभी कम्पनियों का तत्काल राष्ट्रीकरण किया जाना चाहिए और उन्हें जनता की सम्पत्ति घोषित किया जाना चाहिए।
- सभी प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार के क़रारनामे के मातहत दोहन के लिए कॉरपोरेट घरानों को सौंपे जाने पर तत्काल रोक लगायी जानी चाहिए।
- सभी शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों, अनाथ बच्चों, लाचार वृद्धों की समस्त बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयुक्त सामाजिक सुरक्षा क़ानून बनाया जाये और सरकार की ज़िम्मेदारी को सुनिश्चित किया जाये। इसके साथ ही साठ साल से ऊपर सभी नागरिकों को मासिक 10,000 रुपये वृद्धावस्था पेंशन की व्यवस्था तत्काल लागू की जाये।
- घरेलू हिंसा, उत्पीड़न आदि की शिकार अकेली स्त्रियों के लिए रोज़गार व आवास की व्यवस्था करना सरकार की ज़िम्मेदारी हो और इसे सुनिश्चित करने के लिए सख़्त क़ानून बनाया जाये।
- सभी शहरों और गाँवों में ऐसे सामुदायिक केन्द्र बनाये जायें, जहाँ खेलकूद केन्द्र, व्यायामशाला, पुस्तकालय-वाचनालय व सांस्कृतिक केन्द्र मौजूद हो, जिससे सभी नागरिकों को बराबरी से शारीरिक व मानसिक विकास का अवसर मिले।
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- यूएपीए, मकोका, यूपीकोका आदि जैसे सभी दमनकारी और ग़ैर–जनवादी क़ानूनों को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये।
- राजद्रोह के दमनकारी क़ानून को रद्द कर मोदी-शाह सरकार द्वारा लाये गये और भी ज़्यादा दमनकारी क़ानून ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता’ को तत्काल रद्द किया जाय। साथ ही, समस्त आईपीसी, सीआरपीसी और जेल मैनुअल सहित औपनिवेशिक काल के सभी जनविरोधी क़ानूनों व नियमों को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये। ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट को तत्काल रद्द किया जाये।
- धारा 144 को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये।
- आफ्स्पा व डिस्टर्ब्ड एरियाज़ एक्ट को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये।
- आधार कार्ड की समूची योजना को रद्द किया जाना चाहिए।
- सभी राजनीतिक बन्दियों को राजनीतिक बन्दियों के सारे अधिकार मुहैया कराये जायें और काले क़ानूनों के तहत बन्द किये गये सभी राजनीतिक बन्दियों को तत्काल रिहा किया जाये।
- एस्मा जैसे क़ानूनों के ज़रिये मज़दूरों व कर्मचारियों का हड़ताल का जनवादी अधिकार छीने जाने को ख़त्म किया जाये और एस्मा क़ानून को रद्द किया जाये।
- वन्य सम्पदा और पर्यावरण की कॉरपोरेटों द्वारा लूट की पूरी छूट देने वाले काम्पा व ईपीए जैसे क़ानूनों को तत्काल रद्द किया जाना चाहिए और आदिवासियों को उनके जल, जंगल, ज़मीन के सामुदायिक भोगाधिकार से बेदखल करने के सभी आदेशों, नियमों और क़ानूनों को तत्काल रद्द किया जाना चाहिए। प्रदूषण फैलाने वाली औद्योगिक इकाइयों के नियोक्ताओं के ख़िलाफ़ सख़्त दण्डात्मक कार्यवाई सुनिश्चित होनी चाहिए।
- मज़दूरों को यूनियन बनाने का पूर्ण अधिकार मिलना चाहिए और इसमें रुकावट डालने वाले क़ानूनों और नियमों को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाना चाहिए।
- भारतीय राज्य द्वारा किये गये मूल वायदे के अनुसार, अनुच्छेद 370 और 35ए को बहाल किया जाये। एक साझा राज्य के मातहत सभी राष्ट्रों के संघीय या एकीकृत ढाँचे में साथ रहने का आधार सुसंगत जनवाद होना चाहिए, ज़ोर-ज़बर्दस्ती नहीं। कश्मीर और उत्तर–पूर्व तथा छत्तीसगढ़ का पूर्ण विसैन्यीकरण किया जाना चाहिए।
- नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएए) को तत्काल रद्द किया जाये। एनआरसी व एनपीआर जैसी प्रस्तावित जनविरोधी क़वायदों पर तत्काल रोक लगायी जाये।
- देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू की जाये और एकसमान नागरिक संहिता के नाम पर साम्प्रदायिक संहिता को थोपने की भाजपा सरकार की साज़िशें बन्द की जाये।
- सभी चुनावी पार्टियों द्वारा चुनावी प्रचार व अन्य राजनीतिक कार्यों में धार्मिक चिह्नों, धार्मिक भावनाओं, जातिगत पहचानों और जातिगत भावनाओं के किसी भी रूप में इस्तेमाल पर पूरी रोक लगाने हेतु कठोर क़ानून बनाया जाये और इसके उल्लंघन पर सख़्त दण्डात्मक कार्रवाई के प्रावधान किये जायें।
- दंगे के दोषी व्यक्तियों, संगठनों आदि के ख़िलाफ़ कठोर दण्डात्मक कार्रवाई को सुनिश्चित करने के लिए सख़्त क़ानून बनाया जाये।
- इलेक्टोरल बॉण्ड घोटाले, पीएम केयर फ़ण्ड घोटाले, राफ़ेल घोटाले, नोटबन्दी घोटाले, बैंकों से सम्बन्धित घोटालों सहित पिछले दस वर्षों के दौरान हुए तमाम बड़े घोटालों की उच्चस्तरीय जाँच करायी जाये।
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- सामाजिक उत्पीड़न के सभी रूपों व इस आधार पर होने वाले भेदभाव को दण्डनीय अपराध घोषित किया जाये। राज्य द्वारा लैंगिग व जेण्डरगत समानता के सिद्धान्त को राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक सभी स्तरों पर लागू किया जाये और इसके आधार पर होने वाले भेदभाव को दण्डनीय अपराध घोषित किया जाये। न सिर्फ़ अस्पृश्यता बल्कि जाति के आधार पर होने वाले हर भेदभाव को तत्काल दण्डनीय अपराध घोषित किया जाये और जातिगत विवाह विज्ञापनों और जाति आधारित संघों और पंचायतों पर तत्काल रोक लगायी जाये।
- भारत के सभी राष्ट्रों को अलग होने समेत आत्मनिर्णय का पूर्ण अधिकार होना चाहिए। सभी राष्ट्रीयताओं (यानी राष्ट्रीय अल्पसंख्यक समुदायों को) सुसंगत जनवादी अधिकार प्राप्त होने चाहिए, मसलन, अपनी भाषा में अध्ययन, सरकारी व न्यायिक कामकाज, इत्यादि। सभी राष्ट्रों व राष्ट्रीयताओं के मेहनतकश वर्गों का एक साझा राज्य ज़ोर-ज़बरदस्ती के आधार पर नहीं हो सकता बल्कि उनका एक स्वैच्छिक संघ ही बन सकता है। हम जनवादी आधार पर स्वेच्छा से सभी राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं द्वारा अधिकतम सम्भव बड़े साझा राज्य के निर्माण के पक्ष में हैं।
- स्त्रियों की मुक्ति को सुनिश्चित करने के लिए सभी गाँवों और शहरों में मुहल्लों व कालोनियों में पालना घर, नर्सरी और डे–बोर्डिंग की व्यवस्था की जाये और साथ ही विशाल सामुदायिक भोजनालयों का निर्माण सरकार द्वारा करवाया जाना चाहिए, जहाँ लागत मूल्य पर भोजन उपलब्ध हो।
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- चुनाव आयोग में पंजीकृत सभी चुनावी दलों को तत्काल सूचना के अधिकार के दायरे में लाया जाना चाहिए।
- चुनावों की प्रक्रिया से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों (ईवीएम) का इस्तेमाल पूरी तरह से समाप्त किया जाये और वापस पेपर बैलेट की व्यवस्था को बहाल किया जाये।
- चुनावों में अमीर वर्गों के धनबल की ताक़त को पूरी तरह से ख़त्म करने के लिए छोटे निर्वाचक मण्डल गठित किये जाने चाहिए, समानुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जानी चाहिए और चुनाव में खड़ा होने के लिए हर प्रकार की वित्तीय या सम्पत्ति–सम्बन्धी पूर्वशर्त को तत्काल समाप्त किया जाना चाहिए। चुने गये प्रतिनिधियों को तत्काल वापस बुलाने का अधिकार भी तभी वास्तव में जनता को मिल सकता है।
- सभी सरकारी संस्थानों का सार्वजनिक ऑडिट होना चाहिए और यह ऑडिट जनता द्वारा चुनी गयी कमेटियों द्वारा होना चाहिए।
- पुलिस और सेना को शान्ति काल में उत्पादक कार्रवाइयों में लगाया जाना चाहिए और उन्हें सभी जनवादी अधिकार जैसे कि राजनीतिक साहित्य का अध्ययन करना, यूनियन बनाना, हड़ताल करना, आदि दिये जाने चाहिए। सेना और पुलिस में अर्दलियों की अपमानजनक व औपनिवेशिक काल की व्यवस्था तत्काल समाप्त की जानी चाहिए। सेना के भीतर अधिकारियों का सैनिकों द्वारा चुनाव होना चाहिए। एक चुने हुए सैन्य अधिकारी की ही सच्ची मान्यता और प्राधिकार हो सकता है।
- हर शारीरिक रूप से स्वस्थ व सक्षम नागरिक के लिए सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए। कालान्तर में जनता को सार्विक रूप से सशस्त्र किया जाना चाहिए और आगे चलकर स्थायी सेना और पुलिस की संस्था को भंग कर दिया जाना चाहिए। सैन्य सेवा में जाने वाले सभी व्यक्तियों को सैन्य सेवा के हर दिन के लिए उनके नियोक्ताओं द्वारा पूर्ण वेतन दिया जाना चाहिए।
- हथियारों की ख़रीद और सेना के अधिकारियों के विशेषाधिकारों पर होने वाले भारी-भरक़म ख़र्च में कटौती की जाये।
- ‘वन रैंक वन पेंशन’ की सैनिकों की जायज़ जनवादी माँग को तत्काल स्वीकार किया जाये।
- सैन्य बलों, अर्द्धसैनिक बलों और पुलिस बल में रैंक के अनुसार खान–पान व रहन–सहन में विभेद की व्यवस्था को समाप्त किया जाये।
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- किसी भी सरकारी अधिकारी या चुने हुए जन प्रतिनिधि को एक कुशल श्रमिक से ज़्यादा वेतन नहीं मिलना चाहिए। कालान्तर में सभी अधिकारियों के चुनाव की व्यवस्था होनी चाहिए और उन्हें तत्काल वापस बुलाये जाने का अधिकार भी निर्वाचकों के पास होना चाहिए। केवल तभी भ्रष्टाचार पर लगाम लगायी जा सकती है।
- सभी सांसदों, विधायकों, पार्षदों, मन्त्रियों, नौकरशाहों आदि को मिलने वाले विशेषाधिकारों और विशेष सुविधाओं को समाप्त किया जाये।
- समूची न्याय प्रणाली में चुनी हुई ज्यूरी की व्यवस्था को बहाल किया जाना चाहिए और वैयक्तिक न्यायाधीशों के भी जनसमुदायों द्वारा चुनाव की व्यवस्था कालान्तर में बहाल की जानी चाहिए।
- कॉरपोरेट पूँजी से नियन्त्रित मीडिया का विराटकाय तन्त्र सच को दबाने, तरह-तरह के झूठों का प्रचार करने और शोषक-उत्पीड़क सत्ता और आज के दौर में विशेष तौर साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के पक्ष में सहमति निर्माण का हथियार बन गया है। दूसरी ओर, सत्ता के विरोधी जनमीडिया के साधनों को तरह-तरह से नियन्त्रित और बाधित किया जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की मूल भावना को बरकरार रखते हुए मीडिया पर निगरानी के लिए जनता के बीच से चुने हुए प्रतिनिधियों को लेकर ऐसा निकाय बनाया जाना चाहिए जो समाचार और मनोरंजन के माध्यमों को झूठ, अन्धविश्वास और अवैज्ञानिक बातों का प्रचार करने से रोके और तथ्यपरक रिपोर्टिंग को सुनिश्चित करे। फे़क न्यूज़ (फ़र्ज़ी ख़बरों) पर प्रभावी रोक के लिए कारगर क़ानून लाया जाये। सरकारी विज्ञापनों और सब्सिडी की नीति को पारदर्शी ढंग से लागू किया जाये।
- सभी तरह के मीडिया में काम करने वाले मीडियाकर्मियों के आर्थिक हितों, राजनीतिक अधिकारों, मसलन, संगठित होने व यूनियन बनाने, और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए एक सख़्त क़ानून बनाया जाये और इस प्रकार की व्यवस्था सुनिश्चित की जाये कि उनके कार्य में सरकार या पूँजीपति वर्ग द्वारा पैसे की ताक़त के आधार पर हस्तक्षेप न किया जा सके।
- सरकार द्वारा विभिन्न खुफ़िया, पुलिस व सैन्य एजेंसियों को बेरोकटोक नागरिकों की जासूसी और उनके निजी जीवन में हस्तक्षेप का अधिकार दे दिया गया है। इसे तत्काल रद्द किया जाये और यदि जनसुरक्षा के लिए किसी सम्भावित ख़तरे के कारण किसी व्यक्ति अथवा संस्था की निगरानी या जासूसी की आवश्यकता है तो उसके लिए जनप्रतिनिधियों के किसी चुने हुए निकाय से लिखित अनुमति ली जानी चाहिए।
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- भारत सरकार द्वारा किये गये सारे गुप्त समझौतों को जनता के सामने उजागर किया जाये।
- भारत सरकार को तत्काल प्रभाव से हर प्रकार के अन्तरराष्ट्रीय पेटेण्ट क़ानून सम्बन्धी सभी असमान समझौतों से बाहर आ जाना चाहिए।
- सभी साम्राज्यवादी देशों व एजेंसियों के समस्त विदेशी क़र्ज़ों को तत्काल मंसूख किया जाये। किसी भी साम्राज्यवादी देश के साथ असमान सन्धियों और किसी भी प्रकार की सामरिक सन्धि को रद्द किया जाना चाहिए और भविष्य में भी ऐसी कोई सन्धि नहीं की जानी चाहिए।
- भारत को फ़िलिस्तीनी जनता के राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार का पूर्ण समर्थन करना चाहिए और वहाँ पर मुसलमानों, यहूदियों, ईसाइयों व अन्य सभी समुदायों के लिए एक सेक्युलर व जनवादी फ़िलिस्तीनी राज्य की स्थापना का अन्तरराष्ट्रीय मंच पर पुरज़ोर समर्थन करना चाहिए और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी मसलों में इज़रायल के अपार्थाइड व सेटलर औपनिवेशिक राज्य का पूर्ण बहिष्कार करना चाहिए।
- भारत तत्काल डब्ल्यूटीओ तथा मुक्त व्यापार के सभी समझौतों से बाहर आये।
- भारत कॉमनवेल्थ की सदस्यता तत्काल छोड़े।
उपरोक्त कार्यक्रम हम ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ द्वारा देश के पैमाने पर पेश कर रहे हैं। ये वे राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक मसले हैं, जिन पर RWPI के प्रत्याशी चुने जाने पर संसद के भीतर संघर्ष करेंगे। यह संघर्ष मालिकों के वर्ग की अन्य सभी पार्टियों को उपरोक्त प्रश्न पर अवस्थिति अपनाने के लिए बाध्य करेगा और नतीजतन उनके वर्ग चरित्र को जनता के सामने बेनक़ाब करेगा। साथ ही, यह महज़ शोषकों-उत्पीड़कों के वर्ग की राजनीतिक पार्टियों को ही बेनक़ाब नहीं करेगा, बल्कि व्यापक मेहनतकश जनता के सामने यह भी स्पष्ट करेगा कि मौजूदा मुनाफ़ा-केन्द्रित शोषक-उत्पीड़क व्यवस्था की सीमाओं के भीतर उसे कभी भी आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा और सच्चे मायने में जनवादी अधिकार हासिल नहीं हो सकते। इसके लिए क्रान्तिकारी रूपान्तरण के ज़रिये एक नयी समाजवादी व्यवस्था और मेहनतकशों के राज की स्थापना करनी होगी, जिसमें उत्पादन, राज-काज और समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक़ हो और फ़ैसला लेने की ताक़त वास्तव में उनके हाथों में हो।
इस केन्द्रीय कार्यक्रम के अतिरिक्त जिन छह लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों से RWPI के प्रत्याशी चुनावों में खड़े हो रहे हैं, उन सभी में RWPI अपना स्थानीय कार्यक्रम भी पेश करेगी, जिसमें वह स्पष्ट करेगी कि जीतने की सूरत में RWPI के प्रत्याशी अपने क्षेत्र में कौन से कार्यों को तत्काल अंजाम देंगे और कौन-से कार्यों को दूरगामी तौर पर अंजाम देंगे।
हम आम मेहनतकश जनता का आह्वान करते हैं कि RWPI के प्रत्याशियों को आने वाले लोकसभा चुनावों में हर तरीक़े से समर्थन दें, उनकी सहायता करें, उनका सहयोग करें और उन्हें अपना वोट दें। यह आपकी अपनी क्रान्तिकारी पार्टी है, आपके बीच से जुटाये गये संसाधनों पर ही चलती है और आप के ही द्वारा बनती और चलती है। आइए, इन चुनावों में आम मेहनतकश वर्गों के स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष का निर्माण करें और शोषक-उत्पीड़क अमीरज़ादों के वर्ग की इस या उस पार्टी के पीछे नहीं, बल्कि स्वयं अपनी क्रान्तिकारी पार्टी के साथ खड़े हों। अमीर अपनी पार्टियों के साथ खड़े हैं, हमें अपनी पार्टी के साथ खड़ा होना होगा। तभी हम अपने तात्कालिक व दूरगामी लक्ष्यों और कार्यभारों को पूरा कर सकते हैं और अपने राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक हितों के लिए कारगर तरीक़े से लड़ सकते हैं और जीत सकते हैं।
इंक़लाब ज़िन्दाबाद!
पूँजीवाद–साम्राज्यवाद हो बरबाद!
मेहनतकश ने ठाना है, RWPI को जिताना है!