बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मतदाता सूची संशोधन के पीछे की असली मंशा पिछले दरवाज़े से NRC को लागू करने की है!
बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले मतदाता सूची संशोधन
मतदाता सूची में संशोधन के पीछे की असली मंशा पिछले दरवाज़े से NRC को लागू करने की है!
मतदाता सूची संशोधन वापस लो!!
संशोधन के नाम पर जनता के जनवादी अधिकारों पर हमले बन्द करो!!!
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) द्वारा जारी
पिछले कुछ सालों से हमारे देश में तमाम संस्थाओं का फ़ासीवादीकरण होते हुए हम देख रहे हैं। ईडी, सीबीआई के साथ कार्यपालिका और न्यायपालिका के अंग संघ और भाजपा की कठपुतली बन चुके हैं। इस फ़ेहरिस्त में चुनाव आयोग का नाम सबसे ऊपर है। पिछले 11 सालों में चुनाव आयोग ने बार-बार इसे साबित भी किया है। इस बीच इसकी एक और बानगी सामने आयी है। हम जानते हैं कि कुछ ही महीनों में बिहार विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। चुनाव के कुछ ही महीने पहले आनन-फ़ानन में चुनाव आयोग ने बीते 24 जून को एक अधिसूचना जारी की जिसके अनुसार वह बिहार में मतदाता सूची का विशेष गहन निरीक्षण यानी कि स्पेशल इंटेंसिव रिवीज़न करेगी। इसके तहत अब बिहार के हर मतदाता को यह साबित करना होगा कि वे यहाँ के नागरिक हैं। ऐसे काग़ज़ दिखाने होंगे जिससे चुनाव आयोग संतुष्ट हो पाये, नहीं तो आप नागरिक होते हुए भी वोट करने के अधिकार से वंचित कर दिये जायेंगे। और चुनाव आयोग अपने ही द्वारा जारी किये गए वोटर आईडी और मोदी सरकार द्वारा पूरे देश की जनता पर जबरन थोपे गये आधार कार्ड या राशन कार्ड पर यह नहीं मानेगी कि आप भारत के नागरिक हैं। यह बिहार की जनता के साथ एक घटिया मज़ाक ही है जिसमें बड़ी संख्या में आम मेहनतकश आबादी वोट देने के अधिकार से वंचित हो जायेगी।
बिहार में कुल 7.73 करोड़ मतदाता हैं जिनमें से 4.76 करोड़ मतदाताओं को 1 जुलाई से 31 जुलाई के बीच यानी अगले एक महीने में अपनी नागरिकता साबित करनी होगी। इसके अनुसार वे मतदाता जिनका जन्म 1 जुलाई, 1987 के पहले हुआ था उन्हें अपनी जन्मतिथि या जन्मस्थान का प्रमाण पत्र देना होगा। वे मतदाता जिनका जन्म 1 जुलाई, 1987 से 2 दिसम्बर, 2004 के बीच हुआ है उन्हें अपनी जन्मतिथि तथा अपने पिता या माता में से किसी एक का जन्मस्थान या जन्मतिथि को प्रमाणित करने के लिए दस्तावेज़ दिखाने होंगे। जिन मतदाताओं का जन्म 2 दिसम्बर, 2004 के बाद हुआ है उन्हें अपना और अपने माता-पिता दोनों का जन्मस्थान व जन्मतिथि का प्रमाण देना होगा। चुनाव आयोग इस बात को लेकर इतना आतुर है कि उसने 4.76 करोड़ मतदाताओं के “गहन निरीक्षण” के लिए मात्र 30 दिन का समय रखा है। अगर चुनाव आयोग किसी को मतदाता सूची के बाहर करता है तो अगले 30 दिन में उसे यह साबित करना होगा कि वह यहांँ का नागरिक है। सारे काग़ज़ उसे जमा करने होंगे। सितम्बर में अन्तिम सूची जारी की जायेगी। इसके पहले 2003 में मतदाता निरीक्षण किया गया था जिसमें काफ़ी लम्बा समय लगा था,अब सवाल यह उठता है कि इस बार अचानक से इतने आनन-फ़ानन में चुनाव से ठीक पहले चुनाव आयोग की इस छटपटाहट का कारण क्या है? चुनाव आयोग उस मतदाता सूची को मानने के लिए तैयार क्यों नहीं है जिसमें शामिल लोगों ने 2014, 2019 और 2024 में भाजपा नीत मोदी सरकार को चुना?
कहने की ज़रूरत नहीं है कि चुनाव आयोग की यह हरक़त सीएए और एनआरसी की याद दिलाती है। 6 साल पहले मोदी सरकार जिस “क्रोनोलॉजी” को लागू करने की कोशिश कर रही थी, देशभर में इसके ख़िलाफ़ खड़े हुए जनान्दोलनों के दबाव में उसे पूर्ण तरीक़े से लागू नहीं कर पायी। जिस नीति के तहत बड़ी ग़रीब मेहनतकश आबादी और दलित व अल्पसंख्यक समुदाय से उनके जनवादी और संवैधानिक अधिकार छीनने की कोशिश की जा रही थी, उसे अब पिछले दरवाज़े से चुनाव आयोग के ज़रिये लाने की कोशिश की जा रही है। निश्चित ही पिछले कुछ सालों में राम मंदिर, पाकिस्तान, गाय-गोबर, 5 ट्रिलियन इकोनॉमी आदि की जुमलेबाज़ी जनता देख चुकी है और संघ और भाजपा की पोल- पट्टी खुल चुकी है। ऐसे में भाजपा पिछले कुछ समय से “घुसपैठिए और शरणार्थी” का जुमला उछाल रही है। बिहार में इसे अचानक से लाने का कारण यह है कि यहाँ की जनता में महंगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा और स्वास्थ्य सबसे बड़ा मुद्दा है। केन्द्र और राज्य की डबल इंजन की सरकार पूर्ण तरीक़े से इस क्षेत्र में विफल रही है और जनता में भयानक असंतोष व्याप्त है। ग़रीब तबका, जिनका बड़ा हिस्सा काग़ज़ और दस्तावेज़ जमा नहीं कर सकता है, उन्हें मतदान से वंचित कर देना भाजपा के हित में है। चुनाव आयोग ने जो दस्तावेज़ मांगे हैं उनमें से एक सरकारी नौकरी के दस्तावेज़ है। बिहार की कुल आबादी में मात्र 20.47 लाख लोग ही सरकारी नौकरी में हैं। इसके अलावा चुनाव आयोग जो दस्तावेज़ मांग रहा है वह है जन्म प्रमाण पत्र। मगर नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के अनुसार 2001 से 2005 के बीच जन्म लेने वाले मात्र 2.8 प्रतिशत लोगों के पास ही जन्म प्रमाण पत्र है। इस हिसाब से अगर माता-पिता के जन्म का प्रमाण पत्र मांगा जाएगा तो बिल्कुल नगण्य आबादी ही यह दे पायेगी। खासकर गाँव में रहने वाली ग़रीब आबादी नहीं दे पायेगी। इसके अलावा मैट्रिक के दस्तावेज़ भी 18 -40 साल की उम्र वाले 50% से भी कम लोगों के पास उपलब्ध है। बिहार में हर साल 70% से ज़्यादा हिस्सों में बाढ़ आती है। एक बड़ी आबादी अपने तमाम काग़ज़ात नहीं बचा पाती। बात आवासीय प्रमाण पत्र की करें तो वैसी ग़रीब आबादी जिनके पास अपनी ज़मीन नहीं है उनसे यह दस्तावेज़ माँगना ही जायज़ नहीं है। इसके साथ ही बिहार से एक बड़ी आबादी दूसरे शहरों में जाकर काम करती है। आमतौर पर त्योहारों में या फ़िर चुनाव के दौरान ही वह अपने घर आते हैं। ऐसे में प्रवासी मज़दूर भी इस लिस्ट से बाहर हो सकते हैं। सार्विक मताधिकार एक जनवादी अधिकार है। फ़ासीवादी ताक़तों ने सीधे चुनावी प्रक्रिया पर रोक लगाने की बजाय इसके जनवादी अंतर्वस्तु को ही खोखला कर दिया है। चुनाव होते हुए भी अगर 3- 4 करोड़ लोगों का वोटर लिस्ट में नाम ही न हो तो चुनाव कराने का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।
यह प्रक्रिया बिहार के बाद देश के सभी राज्यों में लागू की जायेगी। अगले साल पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने हैं। वहाँ यह मुद्दा भाजपा के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है। “घुसपैठिए और रिफ़्यूजी” का नाम लेकर भाजपा अपनी चुनावी रोटी सेंकेंगी। एक बार अगर बिहार में इसे लागू किया गया तो बंगाल में भी इसे लागू करने में उन्हें ज़्यादा तकलीफ़ नहीं होगी। कहने की ज़रूरत नहीं है कि पिछले कुछ सालों में चुनाव आयोग किस तरीक़े से वोटर लिस्ट में गड़बड़ी कर भाजपा को फ़ायदा पहुँचा चुकी है। महाराष्ट्र और झारखंड चुनाव में पहले ही चुनाव आयोग पर कई सवाल उठ चुके हैं। पर अब भी आयोग पूरी शिद्दत के साथ भाजपा की सेवा में हाज़िर है। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी चुनाव आयोग के इस निर्णय का पुरज़ोर विरोध करती है। हम यह माँग करते हैं कि चुनाव आयोग तुरन्त ही जनता के जनवादी अधिकार पर हमले बन्द करे और इस फ़ैसले को वापस ले।
यह संशोधन पहले हमें वोट करने के अधिकार से वंचित करेगा और उसके बाद हमारी नागरिकता भी छीनेगा। इसलिए आज समूची जनता को फ़ासीवादी तानाशाही को उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट होना होगा।