पहलगाम हमले में हुई मौतों के लिए फ़ासीवादी मोदी सरकार जवाबदेह है! साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों की नफ़रती राजनीति का शिकार मत बनो!
पहलगाम हमले में हुई मौतों के लिए फ़ासीवादी मोदी सरकार जवाबदेह है! साम्प्रदायिक फ़ासीवादियों की नफ़रती राजनीति का शिकार मत बनो!
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भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) द्वारा जारी
कश्मीर के जाने-माने पर्यटन स्थल पहलगाम में हुआ आतंकी हमला तथा पर्यटकों व आम नागरिकों की हत्या से न सिर्फ़ कश्मीर में लोगों की जीवनरक्षा में मोदी सरकार की नाकामी उजागर होती है बल्कि कश्मीर से सम्बन्धित उसकी तमाम नीतियों की विफलता का भी पर्दाफ़ाश होता है। लोगों द्वारा यह सवाल उठाना लाज़िम ही है कि कहीं ये पुलवामा-2 की घटना तो नहीं है, क्योंकि कई सारी चीज़ें संदेह के घेरे में है। इस घटना के बाद जिस तरह से फुर्ती दिखाते हुए भाजपा-आरएसएस और समूची फ़ासीवादी मशीनरी अपने ज़हरीली साम्प्रदायिक फ़ासीवादी आग को बढ़ावा देने के लिए सक्रिय हुई है, उससे भी धारा 370 हटाने के बाद मोदी सरकार द्वारा किये गये सुरक्षा के दावों पर कई सवाल खड़े होते हैं।
धारा 370 को हटाये जाने का काफ़ी जश्न मनाया गया था और गृहमंत्री अमित शाह हर मंच पर अपनी छाती ठोंककर कश्मीर में “शान्ति” बहाल करने के लम्बे-चौड़े दावे करते हुए देखे जा सकते थे। पिछले कुछ सालों में गोदी मीडिया ने भी देश के लोगों को यह बताने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी कि कश्मीर में सबकुछ “सामान्य” है। घाटी में बढ़ती पर्यटकों की संख्या को इस बात के सबूत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था कि इलाक़े में शान्ति बहाल हो चुकी है। परन्तु इतिहास ने बार-बार साबित किया है कि जबतक कश्मीरी अवाम के आत्मनिर्णय के वाजिब अधिकार को बूटों तले कुचला जाता रहेगा तब तक वहाँ शान्ति और सामान्य स्थिति नहीं बहाल की जा सकती है।
मोदी सरकार की “सफलता” को साबित करने के लिए पिछले कुछ सालों में कई घटनाओं पर गोदी मीडिया द्वारा लगातार पर्दा डाला जाता रहा है। इसमें से कुछ घटनाएँ तो जम्मू की हैं। कश्मीर के हालिया चुनाव में भाजपा द्वारा एक भी उम्मीदवार न खड़ा किया जाना यह दिखाता है कि कश्मीरी अवाम के बीच भाजपा कितनी “लोकप्रिय” है। साउथ एशिया टेररिज़्म पोर्टल के आँकड़ों को देखें तो पता चलता है कि 2014 के कश्मीर में हत्या की घटनाओं की संख्या जहाँ 91 थी, वहीं 2022 में वह बढ़कर लगभग 150 हो गयी। 193 आतंकियों के साथ-साथ तक़रीबन 30 नागरिक और 30 सुरक्षा के जवान मारे गए थे। मोदी सरकार के कार्यकाल में ऐसी कई घटनाएँ घट चुकी हैं। आईएएफ़ के जम्मू एयरपोर्ट पर 27 जून 2021 को एक ड्रोन हमला हुआ था। श्रीनगर में जुलाई 2021 में 17 हथियारबंद हमले हुए थे। 33 नागरिक अक्तूबर 2021 में मारे गए थे। 9 मार्च 2022 को सरपंच समीर अहमद भट्ट की हत्या हुई थी। 3 अप्रैल 2022 को प्रवासी मज़दूरों को निशाना बनाया गया था। ठीक इसी तरह की घटनाएँ पुलवामा में 3-4 अप्रैल को हुई थीं। 25 मई 2022 को अभिनेता अंबरीन भट्ट का मारा गया था, 13 मई 2022 को एक कश्मीरी पंडित की हत्या हुई थी। फिर, अक्तूबर 2022 में दो कश्मीरी पंडितों माखन लाल बिंदरू और राहुल भट्ट को मारा गया था। 2019 के बाद से जम्मू-कश्मीर में ऐसे आतंकी हमले लगातार बढ़े हैं।
भारतीय राज्यसत्ता द्वारा अपनायी गयी राष्ट्रीय दमन की नीति को न सिर्फ़ फ़ासीवादी भाजपा सरकार ने आगे बढ़ाया है बल्कि उसने नागरिक और जनवादी अधिकारों पर हमले, पत्रकारों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के दमन को भी नए आयाम दिये हैं। अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी विभाजनकारी नीतियों को लागू करते हुए भाजपा सरकार द्वारा जम्मू की तुलना में कश्मीर घाटी में सापेक्षिक तौर पर लोगों की चुनावी ताक़त को कम करने के लिए निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन करना, ग़ैर-कश्मीरियों के लिए मतदाता सूची में संशोधन करना, डोमिसाइल नियमों को बदलने, सम्पति और भूमि स्वामित्व सम्बन्धी क़ानूनों और कश्मीर की जनसांख्यिकी को बदलने के लिए उठाये गये कदमों ने कश्मीरियों के बीच असंतोष को और बढ़ा दिया है। भारतीय राज्यसत्ता का कश्मीरी राष्ट्र के साथ जो विश्वासघात और दमन नेहरू के काल में शुरू हुआ था उसे मोदी सरकार ने 2019 में धारा 370 निरस्त करके नई ऊँचाईयों तक पहुँचा दिया।
मोदी-शाह सरकार जो कश्मीर में ‘’सामान्य’’ स्थिति बहाल करने का दावा करती है, उसे जवाब देना चाहिए कि कश्मीर घाटी में कश्मीरी पण्डित अभी तक वापस क्यों नहीं जा सके हैं। सच तो यह है कि कश्मीरी पण्डित आबादी, जो कश्मीरी संस्कृति (कश्मीरियत) का अभिन्न अंग थी और जिसे आरएसएस-भाजपा के चहेते जगमोहन के शासन काल में विस्थापित कर दिया गया था, की हिन्दू पहचान का इस्तेमाल संघ परिवार ने पूरे देश में साम्प्रदायिक नफ़रत फैलाने के लिए एक राजनीतिक औजार के रूप में किया गया है। कश्मीर में बढ़ती आतंकी प्रतिक्रिया भी देश के अन्य हिस्सों में संघ परिवार की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति का ही नतीजा है जोकि लोगों के बीच धर्म के नाम पर वैमनस्य बढ़ाने का काम कर रही है।
मीडिया पहलगाम के इस आतंकवादी गतिविधि में पाकिस्तान का हाथ होने की बात कर रहा है। पाकिस्तान के लश्कर-ए-तैयबा के एक अंग ‘द रेज़िस्टेंस फ़्रण्ट’ ने कथित तौर पर नागरिकों पर किये गये इस हमले की ज़िम्मेदारी ली है। कश्मीर घाटी में आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देने और उनकी फ़ण्डिंग में पाकिस्तानी राज्यसत्ता की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। पाकिस्तान का शासक वर्ग ख़ुद ही बलूचिस्तान, ख़ैबर पख़्तूनख़्वा में बलूच और पश्तूनों पर और साथ ही पाकिस्तान द्वारा नियंत्रित कश्मीर के भीतर कश्मीरियों पर हो रहे राष्ट्रीय दमन के ख़िलाफ़ जन-प्रतिरोध का सामना कर रहा है। पिछले कुछ वर्षों में पाकिस्तान के अन्य हिस्सों में भी आतंकवाद की घटनाओं में वृद्धि हुई है। पाकिस्तानी शासक वर्ग और पाकिस्तानी सेना खुले तौर पर पाकिस्तान में इस्लामीकरण को बढ़ावा देने का काम कर रही हैं। पाकिस्तान की चरमराती हुई आर्थिक स्थिति ने वहाँ की जनता में बड़े स्तर पर असंतोष पैदा किया है। वहाँ ऐसा पहले भी हो चुका है कि जब भी जनता का असन्तोष बढ़ता है, वहाँ के शासक वर्ग ने जनता का ध्यान असल मुद्दों से भटकाने के लिए कश्मीर के मुद्दे को उठाते रहे हैं। परन्तु भारत में मुख्यधारा का मीडिया जो कि मुख्यतः आरएसएस और भाजपा की गोद में बैठा है, यहाँ की जनता को यह नहीं बताता कि संघ परिवार की साम्प्रदायिक और विभाजनकारी राजनीति ही पाकिस्तानी शासक वर्ग और उसकी सेना द्वारा भारत में आतंकवादी गतिविधि को प्रायोजित करने के लिए अनुकूल माहौल बनाने का काम करती है। गोदी मीडिया जब भी आतंकवादी गतिविधि को पाकिस्तान से जोड़ने का काम करता है, तो अकसर उसका निशाना भारत का मुस्लिम समुदाय होता है, और वह पूरे मुस्लिम समुदाय को इस हरकत का ज़िम्मेदार ठहराता है। इस तरह से आतंकवादी हरकत को घृणित साम्प्रदायिक फ़ासीवादी एजेण्डा को फैलाने का हथियार बनाया जाता है। गोदी मीडिया बेहद शातिराना ढंग से इस तथ्य को छिपा रहा है कि इस हमले के दौरान कई कश्मीरियों ने लोगों की मदद की और कश्मीरी बड़ी संख्या में इस आतंकवादी हमले के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन भी कर रहे हैं।
असल में, सरहद के दोनों ओर शासक वर्ग और धार्मिक कट्टरपन्थी एक-दूसरे के पूरक हैं। इस्लामिक कट्टरपन्थियों द्वारा पाकिस्तान का इस्लामीकरण और हिन्दुत्व फ़ासीवादियों द्वारा भारत का हिन्दुत्वीकरण दोनों ही देशों के शासक वर्गों के हितों को साधने का काम करता है। जो लोग धार्मिक कट्टरपन्थ और फ़ासीवादी राजनीति का किसी भी रूप में समर्थन करते हैं, उनको पहलगाम जैसी आतंकवादी घटना पर आक्रोश ज़ाहिर करने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है। यह केवल उनके पाखण्ड को ही दिखाता है। आरएसएस और भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति ने कश्मीर समेत सभी मुद्दों को हिन्दू और मुस्लिमों के बीच आग भड़काने का एक ज़रिया बन दिया है। पहलगाम में जो कुछ भी हुआ, वह मोदी-शाह सरकार के पिछले एक दशक के दौरान अपने चरम पर पहुँच चुकी इस घृणित राजनीति की ही परिणति है। यह साम्प्रदायिक फ़ासीवादी सरकार और संघ परिवार अपने गिरेबान पर लगे निर्दोष नागरिकों के ख़ून के धब्बों को मिटा नहीं सकते। वास्तव में, हिन्दू और इस्लामिक कट्टरपन्थी दोनो प्रकार की ताक़तें पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में हिंसा और ख़ून-ख़राबे को बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार है।
यह सवाल अकसर उठता रहा है और अब भी उठता है कि आख़िर क्यों ऐसे आतंकी हमले चुनाव से ठीक पहले ही होते हैं? पुलवामा की घटना जिसमें कई भारतीय जवान मारे गए थे उसे भाजपा द्वारा चुनाव प्रचार में भुनाया गया, मगर इस घटना को अंजाम देने में मोदी सरकार की मिलीभगत को उन्हीं के एक नेता, जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मालिक ने उजागर किया था। यह अकारण ही नहीं है कि सोशल मीडिया पर इस घटना को पुलवामा-2 होने का अंदेशा जताया जा रहा है। घटनास्थल पर यानी कश्मीर के एक बेहद मशहूर पर्यटक स्थल पर सुरक्षा बलों की ग़ैर-मौजूदगी पर कई सवाल उठ रहे हैं। पहलगाम के स्थानीय लोगों ने इस हमले का विरोध किया और यहाँ हुई हत्याओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई, मगर इस पूरे क्षेत्र में सुरक्षा बलों का न होना गम्भीर सवाल खड़े करता है।
इस घटना का कश्मीर के पर्यटन की अर्थव्यवस्था पर गम्भीर प्रभाव पड़ेगा जिससे इस इलाक़े के मेहनतकश लोगों की रोजी-रोटी पर बहुत बुरा असर पड़ेगा। वहीं दूसरी तरफ़ भाजपा और आरएसएस की मशीनरी द्वारा अन्धराष्ट्रवादी साम्प्रदायिक उन्माद को हवा दी जाएगी ताकि आने वाले बिहार और फिर पश्चिम बंगाल चुनावों के लिए “अनुकूल” माहौल तैयार किया जा सके। पहले ही वे वक़्फ़ मामले के ज़रिये मुसलमानों को निशाना बना रहें हैं। हिन्दुत्व फ़ासीवादी इस मसले को भी मुसलमानों व अन्य विरोधियों को निशाना बनाने के लिए इस्तेमाल करेंगे ताकि लोगों का ध्यान बेरोज़गारी, महँगाई, गरीबी, भ्रष्टाचार जैसे असल मुद्दों से भटकाया जा सके। यह बार-बार दुहराई जाने वाली फ़ासीवादी रणनीति का ही हिस्सा है।
पहलगाम हमले में मारे गये लोगों के लिए हम उचित मुआवज़े की माँग करते हैं। हम सभी नागरिकों से अपील करते हैं कि वे आरएसएस-भाजपा और गोदी मीडिया द्वारा फैलाई जा रही साम्प्रदायिक व नफ़रत फैलाने वाली राजनीति का शिकार न बनें। हम माँग करते हैं कि भारतीय राज्य द्वारा कश्मीरी आवाम का दमन बंद किया जाए! हम भारत के लोगों से अपील करते हैं कि इन हमलों के लिए ज़िम्मेदार मोदी सरकार को कटघरे में खड़ा करें!
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI)