सरकार युद्धोन्माद फैलाना तत्काल बन्द करे!
मोदी सरकार युद्धोन्माद फैलाना तत्काल बन्द करे!
युद्ध और सीमा पर बढ़ते तनाव से आम मेहनतकश जनता को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला!
जनता को अन्धराष्ट्रवाद के चंगुल में आने से बचना होगा!
हमें भारत व पाकिस्तान के शासक वर्गों द्वारा आम जनता का ध्यान उनके असल और जीवन्त मुद्दों से भटकाने की चाल को समझना होगा!
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भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) द्वारा जारी
पहलगाम आतंकी हमले के बाद पिछले 15 दिनों से युद्ध का नगाड़ा पीटने के बाद आख़िरकार मोदी-शाह सरकार ने भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव को नई ऊँचाइयों पर ले जाने का फ़ैसला कर लिया है। भारत सरकार ने 6 मई की रात पाकिस्तान और पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के कथित आतंकी ठिकानों को तबाह करने के लिए ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ को अंजाम दिया। भारत की सरकार और मीडिया की ओर से यह दावा किया जा रहा है कि हवाई हमलों में 70 आतंकी मारे गए हैं और 60 घायल हुए हैं जबकि पाकिस्तान यह दावा कर रहा है कि मृतकों और ज़ख़्मियों में आम नागरिक हैं जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल हैं। पाकिस्तान ने यह भी दावा किया है कि उसने जवाबी कार्यवाही में 5 भारतीय लड़ाकू विमानों को मार गिराया है। पाकिस्तान ने नियंत्रण रेखा के पार गोलाबारी भी की है, जिसमें जम्मू-कश्मीर के पुँछ ज़िले में कम से कम 10 नागरिकों की मौत हो गई और 40 लोग घायल हुए हैं।
सूचना युद्ध और फ़र्जी ख़बरों की बाढ़ के मौजूदा दौर में भारत और पाकिस्तान दोनों ही मुल्कों के बुर्जुआ शासक वर्गों के दावों की पुष्टि कर पाना मुश्किल है। परन्तु इतना तो तय है कि यह बढ़ता तनाव बेहद ख़तरनाक मोड़ ले सकता है। मामले की गम्भीरता इसलिए भी बढ़ जाती है क्योंकि भारत और पाकिस्तान दोनों के पास परमाणु हथियार हैं।
इंसानियत के बेहतर भविष्य के बारे में सोचने वाले संवेदनशील और ज़हीन लोगों को अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद की आँधी में बहने की बजाय संज़ीदगी से यह सोचना होगा कि इन दोनो देशों को इतने ख़तरनाक मोड़ पर लाने के लिए कौन ज़िम्मेदार है और अगर भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध छिड़ जाए तो इसका नतीजा क्या होगा? हमें सोचना चाहिए कि दोनों देशों के बीच युद्ध या युद्ध जैसी स्थिति से असल में किसको फ़ायदा होगा? इसका जवाब स्पष्ट है: युद्ध और युद्ध जैसी परिस्थिति दोनों देशों के हुक्मरानों को फ़ायदा पहुँचाएगी, जो पूँजीपति वर्ग और आमतौर पर सम्पत्तिवानों के हितों की नुमाइन्दगी करते हैं। उनके मुनाफ़े पर कोई असर नहीं पड़ने वाला है; बल्कि भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों के पूँजीपति वर्ग और उनके नुमाइन्दे ख़ुद के फ़ायदे के लिए अपने-अपने देश की आम जनता के बीच अन्धराष्ट्रवाद की आग भड़काकर इस विस्फोटक परिस्थिति का फ़ायदा उठाने में लगे हुए हैं। दोनों ही देशों के आम लोग पूँजीवादी व्यवस्था से पनपी सभी प्रकार की समस्याओं मसलन आर्थिक संकट, बेरोज़गारी, महँगाई और बढ़ती आर्थिक असमानता से बेहाल हैं, और ये हालात एक बड़े जन-असंतोष की ओर बढ़ सकते हैं। ख़ासतौर पर फ़ासीवादी मोदी सरकार के पिछले 11 वर्षों के शासन में भारत की आम मेहनतकश आबादी और निम्न मध्यवर्ग की समस्याएँ विकराल हुई हैं। आज़ादी के बाद ऐसा कई बार हुआ है कि जब-जब आर्थिक और सामाजिक समस्याएँ गहराती हैं और जनता के भीतर असन्तोष पनपता है, तब-तब इन दोनों ही देशों के शासक वर्ग युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवादी भावनाओं का सहारा लेते हैं, ताकि जनता का ध्यान असल मुद्दों से भटकाया जा सके। आतंकी हमले जैसी किसी घटना का इस्तेमाल देशों ही देशों के शासक वर्गों द्वारा सीमा पर तनाव बढ़ाकर लोगों की समस्याओं को ठण्डे बस्ते में डालने के लिए बहाने के रूप में किया जाता है। इस प्रकार दोनों ही देशों के शासक वर्ग अपने शासन के ख़िलाफ़ किसी भी क़िस्म के जन-विद्रोह को रोकने की कोशिश करते हैं और अपने शोषणकारी और दमनकारी शासन की उम्र बढ़ाते हैं। दोनों देशों के बीच मौजूदा बढ़ता तनाव इसका जीता-जागता उदाहरण है।
भारत में फ़ासीवादी मोदी-शाह सरकार इस हथकण्डे का इस्तेमाल करने में महारत हासिल कर चुकी है, जैसाकि हमने पुलवामा हमले के बाद भी देखा था। वे न सिर्फ़ लोगों का ध्यान आम मुद्दों से भटकाने में सफल रहे, बल्कि उन्होंने उसका राजनीतिक फ़ायदा भी उठाया। अभी भी कुछ ऐसा ही होता दिख रहा है, क्योंकि बिहार के चुनाव नज़दीक आ रहे हैं और इसीलिए उन्मादी फ़ासीवादी युद्धघोष और रक्तपात का आह्वान ज़ोरों पर है, ताकि फिर से वोटों की फ़सल काटी जा सके। इस बार भी मोदी-शाह सरकार न सिर्फ़ पहलगाम हमले में अपनी जवाबदेही और कश्मीर में “समान्य स्थिति” होने के अपने दावों से जुड़े सवालों से किनारा करने की कोशिश कर रही है, बल्कि वह जीवनयापन से जुड़े असल मुद्दों से लोगों का ध्यान भटकाने के लिए अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद का इस्तेमाल कर रही है। इसके अलावा ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ को जिस तौर पर पेश किया गया, जिसमें दो महिला अधिकारी ‘प्रेस ब्रीफ़िंग’ का नेतृत्व कर रही थीं और उनमें से एक मुस्लिम थी, उसने एक बार फिर यह दिखा दिया कि भारतीय फ़ासीवादियों को “आपदा को अवसर में बदलना” अच्छी तरह से आता है, और जब बात पहचान की राजनीति की आती है तो फ़ासीवादी पहचान की राजनीति करने वाले तमाम अस्मितावादियों को मात दे सकते हैं! सोशल मीडिया पर सभी प्रकार के अस्मितावादियों के इस फ़ासीवादी तेवर से प्रभावित होने की ख़बरें छाई हुई हैं, जिनसे हर क़िस्म के अस्मितावादियों के वास्तविक वर्ग चरित्र और वर्गीय अन्तर्वस्तु उजागर हो जाती है।
ठीक यही बात पाकिस्तान पर भी लागू होती है। गहराते आर्थिक संकट और जनता के बीच बढ़ते असन्तोष को देखते हुए पाकिस्तान के शासक वर्ग और उसकी सेना को इस तनाव के मद्देनजर वहाँ के लोगों का ध्यान उनके जीवन के असल मुद्दों से भटकाने का एक मौक़ा मिल गया है। इसलिए, इसमें कोई शक नहीं है कि इस युद्ध से अगर किसी को फ़ायदा होगा तो वह सिर्फ़ भारत और पाकिस्तान के शासक वर्ग हैं और दोनों देश की आम जनता को बर्बादियों, तकलीफ़ों और त्रासदियों के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होगा। जैसा कि हम सिन्धु जल समझौते पर रोक लगने के बाद होने वाले हालात में देख सकते हैं कि करोड़ों आम लोगों के लिए सूखे या जल प्रलय जैसी स्थिति पैदा हो सकती है।
यह अकारण नहीं है कि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में पूँजीवादी शासक वर्ग आतंकवाद, कश्मीर जैसे मुद्दों की भट्टी को हमेशा सुलगाये रखना चाहते हैं ताकि आम मेहनतकश जनता की भावनाओं का अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों की पूर्ति के लिए इस्तेमाल किया जा सके। अन्धराष्ट्रवादी युद्धोन्माद के ज़रिये दोनों ही देशों के शासक वर्ग अपने ही देश के मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता पर अपने वर्ग शासन का आतंक क़ायम रखते हैं। शासक वर्गों द्वारा छेड़े जा रहे इन युद्धों या युद्धघोषों से भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों की आम मेहनतकश अवाम को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है बल्कि उन्हें सिर्फ़ और सिर्फ़ नुक़सान ही झेलना होगा। सभी मुल्कों के शासक वर्गों के हित एक हैं: अपने-अपने देशों की आम मेहनतकश जनता को लूटना-खसोटना और उनका शोषण करना; और इसी तरह सभी मुल्कों की मेहनतकश जनता के हित भी एक होने चाहिए: सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद का झण्डा बुलन्द रखना और अपने-अपने शासक वर्गों के शोषण और अत्याचार के ख़िलाफ़ लड़ना। वास्तव में, धार्मिक कट्टरपन्थी राजनीति को बढ़ावा देने का काम दोनों ही पड़ोसी मुल्कों के शासक वर्गों द्वारा किया जाता है जो एक दूसरे की पूरक होती हैं और उन्हें मज़बूत करने का काम करती हैं और सभी प्रकार के कट्टरपन्थी ताक़तों के लिए ज़मीन मुहैया करने का काम करती हैं। इसके अलावा, हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि यह राज्यसत्ता का आतंक ही है जो धार्मिक कट्टरपन्थी आतंक या किसी भी अन्य प्रकार के आतंकवाद के लिए उपजाऊ ज़मीन तैयार करता है।
जिन लोगों को यह लगता है कि पाकिस्तान पर हमला करने से आतंकवाद समाप्त हो सकता है उन्हें भारत-पाकिस्तान विवादों के इतिहास के बारे में कुछ भी नहीं पता है। अगर ऐसा होता तो कारगिल युद्ध या तथाकथित सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट में हवाई हमलों के बाद भारत में आतंकवाद ख़त्म हो जाना चाहिए था! अगर पाकिस्तान पर हुए इन हमलों के बाद भी आतंकवादी गतिविधि जारी है तो क्या गारण्टी है कि इन नये हमलों के बाद आतंकवाद को हरा दिया जाएगा? ऐसी कोई गारण्टी नहीं है क्योंकि आतंकवाद केवल हम सभी को बाँटने का एक बहाना है ताकि हमपर राज किया जा सके।
मोदी सरकार यह दावा कर रही है कि ‘ऑपरेशन सिन्दूर’ के ज़रिए उसने पहलगाम हमले के पीड़ितों और उनके परिवार के सदस्यों को इंसाफ़ दिलाने का काम किया है। इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है। फ़ासीवादियों ने अपने पितृसत्तात्मक चरित्र का खुलकर प्रदर्शन करते हुए बॉलीवुड के अन्दाज़ में इस ऑपरेशन का नाम ‘सिन्दूर’ रखा है! बहरहाल, सोचने वाली बात यह है कि पहलगाम त्रासदी के पीड़ितों के लिए असल में न्याय क्या हो सकता था। सबसे पहले तो इस जघन्य अपराध के दोषियों को पकड़ा जाना चाहिए था और उन्हें क़ानून के अनुसार सज़ा मिलनी चाहिए थी। लेकिन हमले के 15 दिन बाद भी सरकार इस बर्बर घटना को अंजाम देने वाले आतंकवादियों को पकड़ नहीं पाई है, उसकी बजाय सन्दिग्ध लोगों के ख़िलाफ़ कश्मीर में ‘बुलडोज़र न्याय’ का पसन्दीदा फ़ासीवादी मॉडल लागू किया गया है। सरकार और सुरक्षा एजेंसियाँ भारत के लोगों को और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर यह बताने में बुरी तरह विफल रही हैं कि सरकार के ख़ुद अपने दावों के अनुसार दुनिया के सबसे अधिक सैन्यीकृत क्षेत्रों में से एक में इतने बड़े हमले की योजना कैसे बनायी गयी और उसे कैसे अंजाम दिया गया। यही नहीं, पहलगाम हमले के बाद से ही गोदी मीडिया और पूरा फ़ासीवादी तन्त्र देश में साम्प्रदायिकता, अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद को बढ़ावा देने के लिए दिनों-रात काम पर लग गया है। फ़ासीवादी भीड़ द्वारा आम मुसलमानों और कश्मीरियों को निशाना बनाया जा रहा है। हालाँकि, पहलगाम के बाद फ़ासीवादी ताक़तें जिस तरह का नरेटिव बनाना चाहती थीं वह देश के मेहनतकश आवाम के बीच चल नहीं पाया, इसी हताशा में अब ये पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्ध की चाल चल रहे हैं। इस प्रक्रिया में पहलगाम हमले में भारी ख़ुफ़िया और सुरक्षा विफलताओं के लिए मोदी-शाह सरकार की जवाबदेही के असल सवाल को शातिराना ढंग से दरकिनार किया जा रहा है।
सरकार से सवाल करने वालों को प्रताड़ित किया जा रहा है और यहाँ तक कि उनके ख़िलाफ़ एफ़आईआर भी दर्ज किये जा रहे हैं। फ़ासीवादियों की ट्रोल आर्मी ने हिमांशी नरवाल को भी नहीं छोड़ा, जिनके नौसेना अधिकारी पति को पहलगाम में आतंकवादियों ने मार डाला था। हिमांशी का एकमात्र अपराध यह था कि उन्होंने मुसलमानों और कश्मीरियों के ख़िलाफ़ नफ़रत न फैलाने और शान्ति कायम रखने की गुहार लगायी थी। यह दिखाता है फ़ासीवादी पहलगाम में मारे गये लोगों के विधवाओं के ‘सिन्दूर’ की कितनी परवाह करते हैं!
इतना तो तय है कि इस युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवाद से आने वाले बिहार चुनाव में भाजपा को राजनीतिक फ़ायदा मिलेगा, ठीक वैसे ही जैसे 2019 के लोकसभा चुनाव में बालाकोट स्ट्राइक से मिला था। क्या यह महज़ संयोग है कि इस तरह के अधिकांश हमले भाजपा नीत सरकारों के शासन काल में हुए हैं और तब हुए हैं जब वह व्यापक अलोकप्रियता का सामना कर रही होती है या जब चुनाव नज़दीक होते हैं? इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि पहले भी “ख़ून का बदला ख़ून से लेंगे” जैसे माहौल का फ़ायदा भाजपा को ही सबसे अधिक मिला है।
भारत और पाकिस्तान दोनों ही मुल्कों की आम मेहनतकश जनता को गम्भीरता से यह सोचना होगा कि अगर इन हमलों से युद्ध की शुरुआत होती है तो उसके नतीजे क्या होंगे। जान-माल के होने वाले नुक़सान के साथ ही इस युद्ध में परमाणु हमले का भी ख़तरा है जो अकथनीय तबाही व यंत्रणा का सबब बनेगा। इसके अलावा, दोनों मुल्कों की बुर्जुआ राज्यसत्ताएँ जो इन अनुत्पादक युद्ध अभ्यासों पर करोड़ों-करोड़ रुपये बर्बाद कर रही है, अन्ततः इसका आर्थिक बोझ आम लोगों पर ही पड़ने वाला है। इसके अलावा, ऐसे युद्धों में “मातृभूमि की रक्षा के लिए” अग्रिम मोर्चे पर लड़ने वाले लोग हमेशा ही आम शहरी और ग्रामीण मेहनतकश जनता के घरों से ही आते हैं, न कि अम्बानी और अडानी जैसों के घरों से। आम मेहनतकश जनता बुर्जुआ राज्यसत्ताओं के बीच पूँजीवादी युद्ध के खेल में मोहरा बन जाती है। ऐसे में कोई भी समझदार व्यक्ति किसी भी समस्या के समाधान के रूप में भारत और पाकिस्तान के बीच किसी भी तरह के युद्ध का समर्थन नहीं कर सकता। यह स्पष्ट है कि अभी जो युद्धोन्माद की भावना भड़कायी जा रही है उसके पीछे असली इरादा आतंकवाद की समस्या को हल करना नहीं है, बल्कि लोगों का ध्यान उनकी जीवनयापन की वास्तविक समस्याओं से हटाकर एक “नक़ली दुश्मन” की ओर मोड़ना है।
यह एक त्रासद विडम्बना ही है कि भारत में फ़ासीवादियों को चौतरफ़ा समर्थन मिल रहा है। समाज में अपनी स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए वे इससे बेहतर अवसर की उम्मीद नहीं कर सकते थे। तमाम विपक्षी दलों के साथ सीपीआई(एम) जैसे सामाजिक जनवादी भी पाकिस्तान के ख़िलाफ़ की गई कार्रवाई में फ़ासीवादियों को अपना पूरा समर्थन दे रहे हैं। भारत के सामाजिक फ़ासीवादी अतीत की सामाजिक अन्धराष्ट्रवादी विरासत के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। एक ओर गोदी मीडिया ख़ून के बदले ख़ून की माँग कर रहा है और खुले आम युद्ध का आह्वान कर रहा है वहीं दूसरी ओर उदारवादी, वामपन्थी-उदारवादी और उदारवादी-वामपन्थी “प्रगतिशील” फ़ासीवादियों द्वारा भड़काये जा रहे युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवाद के पीछे उनके इरादों को उजागर करने के बजाय संयमित और सटीक प्रतिक्रिया के लिए उनकी वाहवाही कर रहे हैं! इसी तरह, कई नारीवादी और अस्मितावादी इसी बात से लहालोट हो रहे हैं कि एक मुस्लिम सहित दो महिला अधिकारियों ने तथाकथित ‘ऑपरेशन सिंदूर’ की ब्रीफ़िंग का नेतृत्व किया।
भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) भारत और पाकिस्तान के बुर्जुआ शासक वर्गों द्वारा भड़काये जा रहे युद्धोन्माद की मुख़ालफ़त करती है और दोनों देशों की जनता का आह्वान करती है कि वे अपने-अपने शासक वर्गों द्वारा फैलाये जा रहे युद्धोन्माद, अन्धराष्ट्रवाद का शिकार न बनें। RWPI भारत और पाकिस्तान दोनों सरकारों से माँग करती है कि वे तत्काल तनाव को कम करें और किसी भी प्रकार के युद्धोन्माद को न फैलाएँ। हम माँग करते हैं कि मोदी सरकार पहलगाम हमले की निष्पक्ष उच्चस्तरीय जाँच जल्द से जल्द शुरू करे। हम आम मेहनतकश जनता से आह्वान करते हैं कि वह सभी तरह के धार्मिक कट्टरवाद को ख़ारिज करे और सच्ची और वास्तविक धर्मनिरपेक्षता के लिए खड़ी हो। हमारे देशों के बुर्जुआ शासक हमें एक दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ाने पर अमादा है ताकि हमारी असल समस्याओं पर बात ना हो। हमें अपने असली दुश्मनों को पहचानने की ज़रूरत है जो हमारे अपने-अपने देश के शासक वर्ग हैं। हमें इन साज़िशों के पीछे उनके असल इरादों को समझना होगा और इस पूँजीवादी व्यवस्था के ख़िलाफ़ अपनी लड़ाई को तेज़ करने में जुटना होगा, जो करोड़ों आम मेहनतकशों के लिए युद्ध, ग़रीबी, भूख, महँगाई, बेरोज़गारी और तंगहाली पैदा कर रही है। दोनों देशों में आम जनता के हित और समस्याएँ एक हैं और युद्ध से हमारी मुश्किलें और बढ़ेंगी ही। युद्ध और युद्ध जैसी किसी भी स्थिति से केवल दोनों देशों के शासक वर्गो को ही फ़ायदा होगा।