भाजपा-नीत राष्‍ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्‍धन की विजय फासीवाद-विरोधी संघर्ष के नये दौर की शुरुआत है! यह हताश-निराश होने का समय नहीं है!

सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव के नतीजे साफ़ हो चुके हैं। भाजपा को अकेले बहुमत प्राप्‍त हुआ है और उसकी अगुवाई वाले राष्‍ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्‍धन को करीब 350 सीटें मिलती दिखायी दे रही हैं। क्‍या कारण है कि पिछले पाँच वर्षों में बेरोज़गारी और भ्रष्‍टाचार के सारे कीर्तिमान ध्‍वस्‍त होने के बाद भी भाजपा को ऐसी जीत मिली है? यह समझने के लिए हमें लेनिन की वह बात याद करनी चाहिए कि अन्‍तत: राजनीति निर्णायक होती है, न कि अर्थशास्‍त्र। दोनों के बीच बेशक़ रिश्‍ता होता है, लेकिन आर्थिक कारकों का असर राजनीतिक रूप से प्रकट हो, यह बहुत से कारकों पर निर्भर करता है। जो इन बातों को नहीं समझ रहे हैं, वह भारत की जनता को ही कोस रहे हैं कि उसने मोदी को कैसे जिता दिया! ऐसे लोगों से तो यही कहा जा सकता है कि नयी जनता और और नया देश चुन लें!

इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि मौजूदा चुनावी नतीजों का तार्किक विश्‍लेषण किया जाय और फासीवाद को हराने की ठोस रणनीति बनायी जाये। पिछले पाँच वर्षों में मज़दूरों, किसानों, युवाओं, दलितों, स्त्रियों व आदिवासियों की अभूतपूर्व तबाही के बावजूद, मोदी सरकार को फिर से चुनाव में विजय प्राप्‍त होने के कारणों का विश्‍लेषण आवश्‍यक है, ताकि क्रान्तिकारी ताक़तें आने वाले पाँच वर्षों में फासीवादी हमलों से निपटने और अन्‍तत: फासीवादी उभार को परास्‍त करने की दूरगामी रणनीति पर कारगर तरीके से काम कर सकें।

सबसे पहला कारण जो कि मोदी की जीत के पीछे है वह है लगभग समूचे बड़े पूँजीपति वर्ग का एकमत समर्थन। एक बार फिर से साबित हुआ है कि पूँजीवादी जनवाद के तहत चुनावों में अन्‍तत: विजय उसी की होती है, जिसके पीछे बड़े पूँजीपति वर्ग का समर्थन होता है। हम सभी जानते हैं कि पिछले पाँच वर्षों में भारत के सभी बड़े पूँजीवादी घरानों ने भाजपा को सर्वाधिक चन्‍दा दिया है। यह राशि हज़ारों करोड़ में है। ज्ञात तौर-तरीकों के अलावा चुनावी बॉण्‍डों के ज़रिये भी देशी-विदेशी पूँजीपति अपनी पूरी आर्थिक शक्तिमत्‍ता के साथ भाजपा के पीछे खड़े थे। अन्‍य पूँजीवादी दल भी इस दौड़ में कहीं पीछे छूट गये। यहाँ तक कि अन्‍य सभी पूँजीवादी दलों को मिला कुल चन्‍दा भी अकेले भाजपा को मिले कारपोरेट चन्‍दे का एक-चौथाई भी नहीं बनता। चुनाव प्रचार में, वोटों की खरीद-फरोख्‍त में, फ़र्ज़ी उम्‍मीदवार खड़ाकर अपने विरोधी के वोट काटने में, पैसे और दारू बँटवाने में, ईवीएम के साथ बेहद संठित तरीक़ों से छेड़छाड़ करवाने या बदलवाने में, नौकरशाहों और न्‍यायपालिका तक को ख़रीदने में और धमकाने में बड़े पैमाने पर पैसों की ज़रूरत होती है। भाजपा के पास जितना धनबल है, भारतीय पूँजीवादी जनवाद के पूरे इतिहास में किसी भी पूँजीवादी दल के पास ऐसा धनबल नहीं रहा है। भाजपा इस धनबल के बूते उपरोक्‍त सभी तिकड़मों को अंजाम देने में सफल रही है। वहीं कांग्रेस, सपा-बसपा गठबन्‍धन, तृणमूल कांग्रेस आदि जैसे तमाम दल इस दौड़ में कहीं दिखायी नहीं पड़ते। धनबल के अलावा इसमें एक कारण भाजपा का सुसंगठित फासीवादी तंत्र, संगठन और कार्यसंस्‍कृति भी है। लेकिन सबसे बड़ा कारक भाजपा को बड़े पूँजीपति वर्ग का एकमत समर्थन ही है। इस एकमत समर्थन का कारण पूरी दुनिया भर में पूँजीवादी व्‍यवस्‍था का संकट है जो कि मुनाफ़े की गिरती दर में प्रकट हो रहा है। मुनाफ़े की दर को बढ़ाने के लिए पूँजीपति वर्ग पूरी दुनिया में मज़दूर वर्ग की मज़दूरी को घटाने, काम के घण्‍टों को क़ानूनी या ग़ैर-क़ानूनी तरीक़ों से बढ़ाने और श्रम की सघनता को बढ़ाने का प्रयास कर रहा है। पूँजीपति वर्ग को पता है कि इन प्रयासों के विरुद्ध मज़दूर वर्ग चुप नहीं बैठेगा और प्रतिरोध व आन्‍दोलन करेगा। ऐसे में, पूँजीपति वर्ग को तमाम देशों में ऐसी सत्‍ता की ज़रूरत है जो कि तानाशाहाना तरीके से इस प्रतिरोध को कुचले और जनता को आपस में बाँटकर प्रतिरोध को बिखरा दे। यही कारण है कि पूँजीपति वर्ग अमेरिका, तुर्की, फिलिप्‍पींस, इण्‍डोनेशिया, यूनान, हंगरी और साथ ही भारत जैसे तमाम देशों में धुर दक्षिणपंथी व फासीवादी शक्तियों को अपना एकमत समर्थन दे रहा है। भाजपा को भी इसी वजह से समूचे कारपोरेट जगत से भारी वित्‍तीय समर्थन प्राप्‍त हुआ है।

भाजपा की विजय के पीछे दूसरा सबसे बड़ा कारण है इस पार्टी का अन्‍य पूँजीवादी पार्टियों से अन्‍तर – यह कोई सामान्‍य पूँजीवादी पार्टी नहीं है, बल्कि एक फासीवादी पूँजीवादी पार्टी है। इसके पीछे काडरों का एक विशाल ढाँचा है, जिसे हम राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के नाम से जानते हैं। फासीवादी विचारधारा पर आधारित यह काडर ढाँचा भाजपा की सबसे बड़ी शक्ति है। अन्‍य तमाम पूँजीवादी दल, चाहे वह कांग्रेस हो, सपा-बसपा हो, राकांपा हो या तृणमूल, तेदेपा आदि हों, वे एक सचेतन विचारधारा पर आधारित और काडर-आधारित पार्टियाँ नहीं हैं। यही कारण है कि उनका सांगठनिक ढाँचा कभी भी भाजपा व संघ परिवार के सांगठनिक ढाँचे जितना अनुशासित और प्रभावी नहीं हो सकता है। भाजपा अपने अन्‍धराष्‍ट्रवादी और साम्‍प्रदायिक प्रचार को जितनी प्रभाविता से तृणमूल धरातल पर पहुँचा सकती है, कोई सामान्‍य पूँजीवादी दल उतनी प्रभाविता से यह कार्य आम तौर पर नहीं कर पाता है। भाजपा का प्रचार तंत्र असफल तब होता है, जबकि विभिन्‍न वस्‍तुगत और मनोगत कारकों के चलते, मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी और साथ ही आम मध्‍य वर्ग की आर्थिक बदहाली और तबाही उनके राजनीतिक मत को निर्धारित करने लगती है। यानी कि जब जनता अपने हालात के प्रति राजनीतिक तौर पर सचेत हो और इस चेतना को प्रभावी बनाने वाली राजनीतिक शक्तियाँ मौजूद हों। विपक्षी पूँजीवादी दल यह काम करने में इस बार पूरी तरह असफल रहे, हालाँकि ऐसा करने की वस्‍तुगत शर्तें मौजूद थीं। वे असफल क्‍यों रहे, इसका सबसे प्रमुख कारण बड़े पूँजीपति वर्ग के समर्थन का अभाव था, जिस पर हम ऊपर बात कर चुके हैं, लेकिन साथ ही एक काडर-आधारित ढाँचे का अभाव भी इसमें एक भूमिका निभाता है।

यही दो प्रमुख कारण हैं, जो मोदी की इस दूसरी जीत के पीछे हैं। अन्‍य सभी कारक या तो गौण हैं, या फिर इन्‍हीं दो प्रमुख कारणों का परिणाम हैं। मिसाल के तौर पर, विपक्ष द्वारा अपने प्रचार को तृणमूल धरातल पर न पहुँचा पाना या प्रभावी न बना पाना (यह पूँजीपति वर्ग के समर्थन की कमी के कारण ही होता है); मोदी का करिश्‍माई व्‍यक्तित्‍व और नेतृत्‍व (हम सभी जानते हैं कि पूँजीवादी मीडिया एक बिल्‍कुल अज्ञानी और संस्‍कृतिविहीन व्‍यक्तित्‍व को भी करिश्‍माई व्‍यक्तित्‍व बना कर पेश कर सकता है); भाजपा द्वारा राष्‍ट्रवाद को प्रमुख मुद्दा बनाने में और अन्‍य ज़मीनी मुद्दों को किनारे करने में सफलता (यह भी उपरोक्‍त दो प्रमुख कारणों से ही सम्‍भव होता है), इत्‍यादि।

ईवीएम के साथ छेड़छाड़ और उसे बदलवाने की भी तमाम खबरें इस बीच सामने आयी हैं। जिस तरह से चुनाव आयोग और भाजपा वीवीपैट सत्‍यापन के ख़िलाफ़ थे, उससे ये माना जा सकता है कि इन ख़बरों में दम है और कहीं न कहीं ईवीएम घपला भी भाजपा की जीत के पीछे एक कारक है। लेकिन यह प्रमुख कारक नहीं है। इसकी वजह से भाजपा की विजय का अन्‍तर निश्चित तौर पर बढ़ गया होगा। लेकिन इस बात की गुंजाइश कम है कि भाजपा की विजय केवल ईवीएम घपले के कारण हुई है। इसके बिना सम्‍भवत: भाजपा अपने बूते पर बहुमत तक न पहुँच पाती, लेकिन राष्‍ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्‍धन फिर भी खींच-तानकर बहुमत के आँकड़े तक पहुँच जाता। इसी की गुंजाइश ज़्यादा लगती है। फिर भी 100 प्रतिशत वीवीपैट सत्‍यापन या फिर बैलट व्‍यवस्‍था पर वापसी की माँग पूँजीवादी जनवाद के दायरे में एक अहम माँग है और हमें इसका पूर्ण समर्थन करना चाहिए।

मोदी की जीत से यह भी साफ़ हुआ है कि तमाम किस्‍म के उदार-वामपंथी और वाम-उदारपंथी किसी भी सूरत में फासीवादी उभार का मुकाबला नहीं कर सकते हैं। जिग्‍नेश मेवाणी से लेकर कन्‍हैया कुमार तक, तमाम इस प्रकार के अवसरवादी नेतागण यह सोचते रहे कि किसी प्रकार का योगात्‍मक समीकरण बनाकर भाजपा को हराया जा सकता है। इनमें से अधिकांश दलित, मुस्लिम, आदिवासी, अतिपिछड़े का योगात्‍मक समीकरण बनाने के चक्‍कर में थे। ऐसे तथाकथित वामपंथी या प्रगतिशील नेतागण अम्‍बेडकरवादी विचारधारा और राजनीति के समक्ष समर्पण करके और पहचान की राजनीति का तुष्टिकरण करके जीतने का सपना पाले हुए थे। उनको भी यह समझना चाहिए कि इस रास्‍ते से फासीवाद को कभी परास्‍त नहीं किया जा सकता है। फासीवाद का जवाब केवल और केवल क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट रास्‍ते से ही दिया जा सकता है। आज की ज़रूरत है एक देशव्‍यापी क्रान्तिकारी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का निर्माण जो कि मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी विचारधारा पर दृढ़ता से अमल करती हो, काडर-आधारित हो और बोल्शेविक अनुशासन पर टिकी हो। एक ऐसी पार्टी के नेतृत्‍व में एक जुझारू क्रान्तिकारी जनान्‍दोलन का निर्माण ही फासीवाद को निर्णाय‍क शिकस्‍त दे सकता है। यह एक लम्‍बा कार्यभार है जिसमें बहुत श्रम, बहुत रक्‍त, बहुत पसीना, बहुत क़ुर्बानी देनी होगी। लेकिन जो भी इस लम्‍बे रास्‍ते की बजाय कोई छोटा शॉर्टकट तलाश करने की फ़िराक़ में होगा, उसे नाउम्‍मीदी और नाकामयाबी ही मिलेगी।

भारत की नकली कम्युनिस्‍ट पार्टियों यानी संशोधनवादी पार्टियों का जो हश्र हुआ है, वह सम्‍भावित था। क्रान्ति का रास्‍ता छोड़ सुधारवाद और अर्थवाद के रास्‍ते पर जा चुकी माकपा, भाकपा और भाकपा (माले) लिबरेशन जैसी पार्टियों की स्थिति पहले हमेशा से ज्‍यादा ख़राब है। पश्चिम बंगाल में देखा जा सकता है कि वाम मोर्चे का समूचा सामाजिक आधार भाजपा के पक्ष में चला गया। भाजपा को तृणमूल कांग्रेस के आधार में सेंध लगाने का अवसर उतना नहीं मिला जितना कि वाम मोर्चा के आधार को छीनने का मिला। वास्‍तव में, पश्चिम बंगाल में भाजपा के अभूतपूर्व प्रदर्शन के पीछे यही प्रमुख कारण था। कई जगह तो वाम मोर्चा के कार्यकर्ता और नेतागण बाकायदा तृणमूल कांग्रेस को हराने के लिए भाजपा को जिताने में लगे हुए थे! ऐसा बर्ताव किसी कम्‍युनिस्‍ट पार्टी का नहीं बल्कि संशोधनवादी पार्टी का ही होता है; ऐसा सामाजिक आधार भी किसी कम्युनिस्‍ट पार्टी का नहीं बल्कि संशोधनवादी पार्टी का ही होता है। कारण यह कि ये संशोधनवादी पार्टियाँ अवसरवादी तरीके से अर्थवाद और सुधारवाद पर ही अमल करती हैं, न कि क्रान्तिकारी राजनीतिक प्रचार और कार्रवाई पर। नतीजतन, इनका सामाजिक आधार कोई जैविक रूप से राजनीतिक सामाजिक आधार नहीं होता और वह किसी मौके पर खिसक कर सीधे दक्षिणपंथ और फासीवाद के पक्ष में भी जा सकता है। पश्चिम बंगाल में यही हुआ है। केरल में भी कांग्रेस-नीत यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रण्‍ट द्वारा माकपा-नीत लेफ्ट डेमोक्रेटिक फ़्रण्‍ट के सफ़ाये का एक दूसरे रूप में यही कारण है। एक रूप में संशोधनवाद का यह ध्‍वंस क्रान्तिकारी कम्युनिस्‍ट राजनीति के लिए बेहतर है। जनता के बीच राजनीतिक विभ्रम की स्थिति को यह समाप्‍त करेगा और क्रान्तिकारी शक्तियों के लिए राजनीतिक प्रचार और संगठन को आसान बनायेगा। हम माकपा और भाकपा जैसी तमाम संशोधनवादी पार्टियों में और विशेष तौर पर उनके छात्र मोर्चे में काम करने वाले ईमानदार और प्रतिबद्ध कम्‍युनिस्‍ट कार्यकर्ताओं के नाम यही सन्‍देश देना चाहेंगे कि संशोधनवाद और उसकी मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी को समझें और क्रान्तिकारी कम्‍युनिज्‍म को अपनाएँ। आज देशव्‍यापी तौर पर एक नयी क्रान्तिकारी कम्युनिस्‍ट पार्टी निर्मित करने की आवश्‍यकता है। एक ऐसी पार्टी ही फासीवाद को निर्णायक तौर पर हरा सकती है।

भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी एक ऐसा विकल्‍प खड़ा करने की शुरुआत है। RWPI ने सात लोकसभा क्षेत्रों में उम्‍मीदवार खड़े किये थे: उत्‍तर-पूर्वी दिल्‍ली व उत्‍तर-पश्चिमी दिल्‍ली (दिल्‍ली), कुरुक्षेत्र व रोहतक (हरियाणा), उत्‍तर-पूर्वी मुम्‍बई व अहमदनगर (महाराष्‍ट्र) और महाराजगंज (उत्‍तर प्रदेश)। इन जगहों पर अभियानों के दौरान पार्टी ने अपने दूरगामी कार्यक्रम यानी समाजवादी व्‍यवस्‍था के निर्माण के कार्यक्रम और तात्‍कालिक कार्यक्रम, यानी जनता की तमाम ठोस समस्‍याओं के तात्‍कालिक समाधान और राहत के कार्यक्रम का प्रचार किया और जनता तक अपनी बात को पहुँचाया। इन अभियानों में जनता की सकारात्‍मक प्रतिक्रिया और सहयोग भी प्राप्‍त हुआ। कई क्षेत्रों, विशेष तौर पर, अहमदनगर, महाराजगंज, कुरुक्षेत्र और उत्‍तर-पश्चिमी दिल्‍ली में RWPI के उम्‍मीदवारों को ठीक-ठाक संख्‍या में वोट भी मिले हैं। नतीजे पूर्ण रूप से आ जाने के बाद RWPI के पेज पर वोटों की संख्‍या प्रकाशित कर दी जाएगी। लेकिन पूँजीवादी जनवादी चुनावों में वोटों की संख्‍या ही किसी पार्टी के वास्‍तविक आधार और समर्थन को नहीं प्रदर्शित करती है, जैसा कि लेनिन ने कहा था। कोई हड़ताल या आन्‍दोलन कई बार इस समर्थन को ज्‍यादा बेहतर तरीके से प्रतिबिम्बित करता है। RWPI एक नवगठित पार्टी है जो पहली बार लोकसभा चुनावों में हिस्‍सेदारी कर रही है। अभी यह अपनी पहचान को स्‍थापित करने की ही मंज़िल में है। अभी व्‍यापक मेहनतकश जनसमुदाय तक इस नाम को पहुँचने और स्‍थापित होने में समय लगेगा, जो कि लाज़िमी है, क्‍योंकि यह किसी पूँजीवादी घराने, पूँजीवादी चुनावी ट्रस्‍टों, एनजीओ, फ़ण्डिंग एजेंसियों आदि के वित्‍तपोषण पर नहीं टिकी है। पूरा चुनाव अभियान RWPI ने जनता के बीच से और प्रगतिशील व्‍यक्तियों के बीच से जुटाये सहयोग से चलाया और समझा जा सकता है कि लोकसभा के विशाल निर्वाचक मण्‍डल को पूरी तरह ऐसे प्रचार से समेट पाना भी मुमकिन नहीं होता। कारपोरेट मीडिया का समर्थन आपके पास नहीं होता जिससे कि उस आबादी तक भी आपकी बात पहुँच सके, जिस तक आप स्‍वयं भौतिक रूप में नहीं पहुँच सकते। इन सभी सीमाओं के बावजूद RWPI को अपने प्रचार अभियान और कई लोकसभा सीटों पर वोटों के रूप में भी जनता का अच्‍छा समर्थन प्राप्‍त हुआ है। आने वाले समय में इस प्रदर्शन को पार्टी और बेहतर बनायेगी और पूँजीवादी संसद में मज़दूर वर्ग के प्रतिनिधि और स्‍वर के रूप में पहुँचेगी। आने वाले समय में RWPI आम मेहनतकश जनता के सभी मुद्दों पर उन्‍हें गोलबन्‍द और संगठित करना जारी रखेगी और उसके राजनीतिक विकल्‍प के तौर पर खड़ी होगी।