अब ज्ञानवापी पर ध्रुवीकरण तेज़ करने की तैयारी – जन असन्तोष कम करने में राम मन्दिर भी नाकाम

अब ज्ञानवापी पर ध्रुवीकरण तेज़ करने की तैयारी – जन असन्तोष कम करने में राम मन्दिर भी नाकाम

भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी (RWPI) द्वारा जारी

जैसी कि उम्मीद थी भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) ने वाराणसी में ज्ञानवापी मस्ज़िद की अपनी सर्वेक्षण रिपोर्ट में दावा किया है कि मौजूदा संरचना (मस्ज़िद) और मन्दिर के कुछ हिस्सों के निर्माण से पहले वहाँ एक “बड़ा हिन्दू मन्दिर” मौजूद था। इनका उपयोग इस्लामी पूजा स्थल के निर्माण में किया गया था। एएसआई ने काशी विश्वनाथ मन्दिर से सटी 17वीं सदी की मस्ज़िद का अदालत द्वारा अनुमोदित वैज्ञानिक सर्वेक्षण किया ताकि यह पता लगाया जा सके कि क्या इसका निर्माण किसी मन्दिर की पहले से मौजूद संरचना पर किया गया था, जैसा कि याचिकाकर्ताओं ने दावा किया है, जो साल भर से मन्दिर में प्रवेश की माँग कर रहे हैं। उनका कहना है कि ज्ञानवापी मस्ज़िद परिसर में माँ श्रृंगार गौरी का दर्शन एवं पूजन स्थल मौजूद है। वाराणसी अदालत ने 24 जनवरी को एएसआई रिपोर्ट के निष्कर्षों को सभी पक्षों को उपलब्ध कराने की अनुमति दी थी।
एएसआई के सर्वे का निष्कर्ष ज़रा भी अप्रत्याशित प्रतीत नहीं होता और इसी बात की संभावना अधिक थी कि वह भाजपा और संघ परिवार के मुताबिक ही अपनी रिपोर्ट देगा। साथ ही न्यायलय भी आज अन्य सभी मामलों की ही तरह इन मामलों में भी भाजपा के मन मुवाफ़िक ही निर्णय दे रहा है।
यह दीगर बात है कि हमारे देश का संविधान भी यह कहता है कि पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के प्रावधानों के तहत कोई भी व्यक्ति किसी भी धार्मिक सम्प्रदाय या उसके किसी भी खण्ड के पूजा स्थल को धर्मांतरित नहीं करेगा। यह घोषणा करता है कि 15 अगस्त, 1947 को विद्यमान पूजा स्थल का धार्मिक चरित्र ही जारी रहेगा। इसके बावजूद अगर न्यायालय द्वारा ज्ञानवापी को हटाकर वहाँ मन्दिर बनाने का निर्णय दिया जाये तो यह भी आश्चर्यचकित करने वाला नहीं होगा। राम मंदिर का बनना इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है।
वहीं राम मन्दिर के उद्घाटन के दो दिन बाद ही एएसआई द्वारा इस रिपोर्ट को जारी करना यह भी दर्शाता है कि भाजपा व संघ इसे मुद्दा बनाने के लिए तुले हुए हैं और इसके अलावा उनके पास कोई रास्ता नहीं बचा। दरअसल 22 जनवरी को राम मन्दिर की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर भाजपा-आरएसएस जिस तरह का साम्प्रदायिक उन्माद फैलाना चाहते थे, उसमें वे सफ़ल नहीं हो सके। आरएसएस ने पूरी कोशिश की “राम के नाम” पर उन्माद फैलाकर एक बड़ी आबादी को अपने पक्ष में किया जा सके। हर तरफ़ भगवा झण्डे-पताका लगाने से लेकर शोभा यात्राएँ निकाली गयी, पर इसमें आम जनता की भागीदारी बहुत कम थी। इसकी तैयारी में भाजपा-आरएसएस-बजरंग दल और तमाम इनके संगठनों ने अपनी पूरी ताक़त लगा दी और साथ ही सरकारी मशीनरी का भी पूरी तरह प्रयोग किया गया, पर इसके बावजूद जनता की बड़ी आबादी इनके उन्माद में शामिल नहीं हुई। राम मन्दिर के नाम पर धर्म की राजनीति का असर न होते देख अब इन तमाम संगठनों की नज़रे ज्ञानवापी पर टिकी हैं और हो सकता है इसके बाद काशी और मथुरा में भी यही देखने को मिले।
सोचने वाली बात यह है कि आज इस सवाल को इतनी प्राथमिकता क्यों दी जा रही है कि किसी जगह पर पहले मन्दिर था या मस्जिद? जवाब स्पष्ट है। सभी जानते हैं कि आने वाले अप्रैल या मई में लोकसभा चुनाव है और आज भाजपा के पास विकास का कोई मुद्दा नहीं बचा है, जिसपर चुनाव में वोट माँगा जा सकें।
क्या आपने कभी सोचा है कि भाजपा अब कभी ‘अच्छे दिनों’ का नाम तक क्यों नहीं लेती? क्या आपने सोचा है कि नरेन्द्र मोदी अब कभी नोटबन्दी का ज़िक्र तक क्यों नहीं करते? वैसे तो भाजपा हर धार्मिक घटना की वर्षगाँठ मनाती है! वह नोटबन्दी को लागू किये जाने की वर्षगाँठ क्यों नहीं मनाती? वह जीएसटी को लागू किये जाने की वर्षगाँठ क्यों नहीं मनाती? अपनी जन कल्याणकारी योजनाओं का प्रचार तो मोदी सरकार तब करेगी जब जनता का पिछले 10 सालों में कोई कल्याण हुआ हो!
इन 10 सालों में आम मेहनतकश जनता केवल तबाहो-बरबाद हुई है, जिसके बदले में उसे 5 किलो राशन की ख़ैरात देकर और धर्म की अफ़ीम चटाकर चुप कराया जा रहा है। मन्दिर-मस्ज़िद के मुद्दों को आज इसलिए उछाला जा रहा है क्योंकि महँगाई को क़ाबू करने, बेरोज़गारी पर लगाम कसने, भ्रष्टाचार पर रोक लगाने, मज़दूरों-मेहनतकशों को रोज़गार-सुरक्षा, बेहतर काम और जीवन के हालात, बेहतर मज़दूरी, व अन्य श्रम अधिकार मुहैया कराने में बुरी तरह से नाक़ाम हो चुकी है। मोदी सरकार वही रणनीति अपना रही है, जो जनता की धार्मिक भावनाओं का शोषण कर उसे बेवकूफ़ बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी और उसका आका संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हमेशा से अपनाते रहे हैं। चूँकि मोदी सरकार के पास पिछले 10 वर्षों में जनता के सामने पेश करने को कुछ भी नहीं है, इसलिए वह रामभरोसे व मन्दिर-मस्ज़िद के झगड़ों में उलझा कर तीसरी बार सत्ता में पहुँचने का जुगाड़ करने में लगी हुई है।
ज़रा ठण्डे दिमाग़ से सोचिए क्या आज इससे फ़र्क पड़ता है कि किस जगह पर कब मन्दिर बना था या कब उसे तोड़कर मस्ज़िद बनाया गया! अगर इतिहास में पीछे जाकर देखें और तय करें कि कब कहाँ क्या बना था उसके अनुसार तो आज बहुत से मन्दिरों तक को तोड़ना पड़ सकता है क्योंकि वहाँ कभी बौद्ध मठ मौजूद थे। इतिहासकार डीएन झा ने अपनी किताब ‘अगेंस्ट द ग्रेन – नोट्स ऑन आइडेंटिटी एंड मीडिएवल पास्ट’ में ब्राह्मण राजाओं के हाथों बौद्ध धर्मावलम्बियों के आस्था स्थलों की तबाही का उल्लेख किया है। डीएन झा लिखते हैं, “एक तरफ़ जहाँ सम्राट अशोक भगवान बुद्ध को मानने वाले थे, वहीं उनके बेटे और भगवान शिव के उपासक जालौक ने बौद्ध विहारों को बर्बाद किया। पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों का बड़ा उत्पीड़न किया। उनकी विशाल सेना ने बौद्ध स्तूपों को बर्बाद किया और बौद्ध विहारों को आग के हवाले कर दिया। शुंग शासनकाल में बौद्ध स्थल सांची तक कई स्थानों पर तोड़फोड़ के सबूत मिले हैं।” चीनी यात्री ह्वेनसांग की भारत यात्रा का हवाला देते हुए झा कहते हैं, “शिव भक्त मिहिरकुल ने 1,600 बौद्ध स्तूपों और विहार को नष्ट किया और हज़ारों बौद्धों को मार दिया। प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों को हिन्दू कट्टरपंथियों ने आग लगा दी और इसके लिए ग़लत तरीक़े से बख़्तियार खिलजी को ज़िम्मेदार ठहरा दिया, जो वहाँ कभी नहीं गये थे। इस बात में कोई शक़ नहीं है कि पुरी ज़िले में स्थित पूर्णेश्वर, केदारेश्वर, कंटेश्वर, सोमेश्वर और अंगेश्वर को या तो बौद्ध विहारों के ऊपर बनाया गया या फिर उनमें उनके सामान का इस्तेमाल किया गया।”
वहीं एक दौर में हिन्दू धर्म के कई सम्प्रदाय जैसे शैव-वैष्णव-शाक्त-स्मार्त के भी आपस में झगड़े चले और उन्होंने भी एक दूसरे के पूजा स्थलों को नष्ट किया। इतिहास में और पीछे जायें तो यह तर्क हड़प्पा सभ्यता तक जा सकता है। सोचिए अगर कोई कहे कि वैदिक धर्म से पहले हड़प्पा सभ्यता के जो पूजा स्थलों मौजूद थे, अब वहाँ चाहे मन्दिर हो या मस्ज़िद उसे हटाकर दुबारा हड़प्पा सभ्यता का पूजा स्थल बनाया जाना चाहिए। यह हास्यास्पद लग सकता है। हाँ बिल्कुल! यह पूरा तर्क ही हास्यास्पद है। आप ख़ुद सोचिए क्या अगर आज इसका हिसाब करने लगे कि कब कहाँ कौन-सा पूजा स्थल बना था तो क्या ये सवाल हल हो सकता है? आज हमारे देश में पर्याप्त पूजा स्थल हर धर्म के लोगो के लिए मौजूद है। आज यह किसी के लिए कोई सवाल ही नहीं है कि किस जगह पर पहले मन्दिर था या मस्ज़िद। इसे आज मुद्दा भाजपा व संघ परिवार द्वारा बनाया जा रहा है ताकि हम असल सवालों पर न सोच सकें।
मोदी सरकार के पास अब यही मुद्दे बचे हैं, जिसके ज़रिये वह 2024 का चुनाव जीत सकती है। पहले राम मन्दिर के नाम पर दंगे हुए, अब ज्ञानवापी के नाम पर उन्माद फैलाने की कोशिश जारी है और हो सकता है चुनाव तक काशी-मथुरा तक भी यह आग पहुँच जाये। भाजपा संघ परिवार आपकी धार्मिक भावनाओं का शोषण कर आप को ही मूर्ख बना रही है। मोदी सरकार धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है। दोस्तों! यह आपको तय करना है कि आपको क्या चाहिए! क्या आपको शिक्षा-चिकित्सा-रोज़गार-आवास के अपने बुनियादी हक़ चाहिए या फिर मन्दिर-मस्ज़िद के झगड़ों में ही उलझे रहेंगे!
याद रखें कि शहीदे–आज़म भगतसिंह ने फाँसी चढ़ने से पहले देश के मेहनतकशों को क्या सन्देश दिया था। भगतसिंह ने देश के नौजवानों, मज़दूरों व ग़रीब किसानों से कहा था “हम धर्म के मामले में अलग होकर भी अपनी राजनीति में एक हो सकते हैं और हमें होना ही होगा। इसके बिना हम मालिकों के जमात के हाथों धोखा खाते रहेंगे, लुटते रहेंगे और कुचले जाते रहेंगे।”