RWPI का लोकसभा चुनाव घोषणापत्र 2019

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1. प्रस्तावना

साथियो! दोस्तो! मेहनतकश भाइयो और बहनो!

17वीं लोकसभा का चुनाव होने जा रहा है। हमेशा की तरह सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ मतदाताओं को लुभाने में लग गयी हैं। हम सभी जानते हैं कि आज देश की मेहनतकश जनता के सामने कोई सच्चा विकल्प नहीं है, जो कि उनके हितों की नुमाइन्दगी कर सके। आज देश में मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी की कोई सच्ची पार्टी नहीं है, जिस पर कि वे भरोसा कर सकें। यही कारण है कि देश के लगभग 85 करोड़ मज़दूर, मेहनतकश, ग़रीब किसान और छोटे-मोटे धन्धों में लगे कामगार, बेरोज़गार नौजवान तंग आकर कभी इस तो कभी उस पूँजीवादी पार्टी को वोट देते हैं। यह सत्तारूढ़ पार्टी को उसके कुकर्मों की सज़ा देने मात्र का एक तरीक़ा भर बन कर रह गया है, जबकि हम जानते हैं कि यदि किसी अन्य पूँजीवादी पार्टी के हाथों में भी सत्ता आयेगी, तो वह भी देश के ग़रीब मेहनतकश अवाम के साथ धोखा और ग़द्दारी ही करेगी। लेकिन क्या इस ‘सज़ा देने’ की नीति से हम मज़दूरों-मेहनतकशों को पिछले 7 दशकों में कुछ हासिल हुआ है? फ़र्क़ बस इतना पड़ता है कि देश के बड़े मालिकों और पूँजीपतियों का वर्ग कभी कांग्रेस की, कभी भाजपा की तो कभी किसी ‘तीसरे मोर्चे’ की सरकार के ज़रिये हमें लूटता है। चुनाव कोई भी जीते, हारती केवल जनता है। सत्ता किसी भी पार्टी की आये, राज पूँजीपति वर्ग ही करता है। ऐसा क्यों है? साथियो, ऐसा इसलिए है क्योंकि आज देश में मज़दूरों-मेहनतकशों की कोई अपनी क्रान्तिकारी पार्टी नहीं है और नतीजतन देश के मेहनतकश कभी इस तो कभी उस शासक मालिक वर्ग की पार्टी के पीछे चलने, उसे वोट देने और उसका पिछलग्गू बनने को मजबूर होते हैं। हमारा कोई स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष नहीं है। हमारी कोई राजनीतिक नुमाइन्दगी नहीं है। नतीजतन, हम धर्म और जाति में बँटकर वोट देते हैं।

नतीजा क्या होता है? जो भी उम्मीदवार चुने जाते हैं, वे वोट तो हमारे लेते हैं, लेकिन सेवा देश के बड़े मालिकों, धनी व्यापारियों, ठेकेदारों, दलालों, नौकरशाहों, और ऊँची तनख़्वाहें पाने वाले अतिधनाढ्य वर्ग की करते हैं, जिन्हें हम कुल मिलाकर पूँजीपति वर्ग कहते हैं। यह पूरा वर्ग कुछ भी पैदा नहीं करता, कुछ भी बनाता नहीं है लेकिन जो कुछ भी पैदा होता है या बनता है, उसपर इसका नियन्त्रण होता है और उसके 70 से 80 फ़ीसदी का उपभोग भी यही करता है। यह वर्ग देश में कितनी तादाद में है? मुश्किल से कुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत। लेकिन देश के 70 फ़ीसदी से ज़्यादा संसाधनों और सम्पदा पर इसी का क़ब्ज़ा है। यही वह वर्ग है जो कि भाजपा, कांग्रेस, सपा, बसपा, ‍शिवसेना, आप, जद (यू), जद (सेकु), राकांपा, तृणमूल, द्रमुक, अद्रमुक, अकाली दल, टीआरएस, तेदेपा, माकपा, भाकपा आदि सभी पार्टियों को चुनावी चन्दा देता है। इनमें से नक़ली लाल झण्डे वाली पार्टियों के चन्दे का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा संगठित क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों, धनी किसानों और मँझोले व्यापारियों व मालिकों से भी आता है। लेकिन इन वर्गों का बड़ा हिस्सा भी आज मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था से फ़ायदा उठाने वाला बन चुका है, हालाँकि अपने सिर पर लगातार अनिश्चितता और बरबादी की लटकती तलवार के कारण यह असुरक्षित और परेशान भी महसूस करता है। ये तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियाँ संगठित क्षेत्र के उपक्रमों के मज़दूरों पर अपनी केन्द्रीय ट्रेड यूनियन फे़डरेशनों की पकड़ के कारण भी अपने आर्थिक संसाधनों का एक अच्छा–ख़ासा हिस्सा जुटाती हैं। लेकिन ये संसदीय वामपन्थी पार्टियाँ वास्तव में अधिक से अधिक संगठित क्षेत्र के मँझोले और उच्च स्तर के कर्मचारियों, मँझोले व धनी किसानों, छोटे व्यापारियों और उद्यमियों के वर्ग हितों की ही नुमाइन्दगी करती हैं और बड़े पूँजीपति वर्ग की लूट को समाप्त करने के बजाय उसे महज़ नियन्त्रित करने की वकालत करती हैं, जो कि सम्भव ही नहीं है।

यही कारण है कि मौजूदा सभी पार्टियाँ पूँजीपति वर्ग के ही किसी न किसी हिस्से की नुमाइन्दगी करती हैं और यही कारण है कि हम मज़दूरों और मेहनतकशों का वोट लेने के बावजूद वे सेवा इसी पूँजीपति वर्ग की करती हैं। इसी वजह से देश के मज़दूरों और मेहनतकशों ने मिलकर एक नयी पार्टी का गठन किया है। इस पार्टी का नाम है – भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी। यह पार्टी क्या है, इसकी ज़रूरत क्यों है, यह वास्तव में हर-हमेशा मज़दूरों और मेहनतकशों के हितों की ही नुमाइन्दगी करेगी, इसकी गारण्टी कैसे होगी, इन सब पर हम आगे चर्चा करेंगे। पहले देश की मौजूदा राजनीतिक स्थिति पर एक निगाह डालते हैं, ताकि उसके अनुसार आज की ज़रूरत और कार्यभारों को समझ सकें।

2. देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति

भारतीय जनता पार्टी की सरकार पिछले पाँच वर्षों में जनता को रोज़गार, शिक्षा, चिकित्सा और आवास का बुनियादी हक़ देने में बुरी तरह से असफल रही है। यही कारण है कि मोदी सरकार चुनाव जीतने के लिए अब दो कदमों का सहारा ले रही है – पहला, युद्धोन्माद भड़काना और दूसरा धार्मिक उन्माद भड़काना। नोटबन्दी और जीएसटी जैसे क़दमों के कारण पिछले पाँच वर्षों में पौने पाँच करोड़ मेहनतकश लोगों ने अपने रोज़गार गँवाये हैं। वहीं सरकार की दलित-विरोधी नीतियों के कारण दलितों के विरुद्ध उत्पीड़न की घटनाओं में ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है। 13-प्वाइण्ट रोस्टर की योजना द्वारा आरक्षण के तहत जो मामूली लाभ भी दलित मेहनतकश आबादी के एक बेहद छोटे हिस्से को पहुँच रहा था, उसे छीना जा रहा है, हालाँकि चुनावी दबाव में इस क़दम को टालने की जो कवायद की जा रही है, वह जनता की आँखों में धूल झोंकने की ही एक साजि़श मात्र है। सरकार की हालिया नीति और सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के कारण क़रीब 11 लाख आदिवासियों को ज़बरन उनकी जल-जंगल-ज़मीन से उजाड़ा जा रहा है। दूसरी ओर मौजूदा सरकार अम्बानी, अडानी, टाटा, बिड़ला आदि जैसे विशाल औद्योगिक घरानों के पूँजीपतियों को देश की सम्पदा को लूटने का खुला अवसर दे रही है। हर वर्ष क़रीब 70 हज़ार करोड़ रुपये इन पूँजीपतियों को कर से राहत, मुफ़्त बिजली, पानी और ज़मीन बाँटने में उड़ा दिये जा रहे हैं। यदि इस रक़म का इस्तेमाल देश में शिक्षा, चिकित्सा और आवास की सुविधाएँ देने में किया जाता, तो लाखों-लाख रोज़गार पैदा होते। जिन्हें रोज़गार हासिल भी है, उनमें से अधिकांश को ठेका प्रथा पर खटाया जा रहा है, या दिहाड़ी या कैज़ुअल मज़दूरों के रूप में उन्हें लूटा जा रहा है। इस आबादी में न सिर्फ़ देश के क़रीब 25 करोड़ शहरी मज़दूर शामिल हैं, बल्कि स्कूल व विश्वविद्यालयों के अध्यापक, डॉक्टर, नर्सें आदि भी शामिल हैं। श्रम क़ानून तो पहले ही नाममात्र के लागू होते थे, मगर उसमें भी संशोधन करके मोदी सरकार ने अप्रेण्टिस, ट्रेनी आदि के नाम पर बाल मज़दूरी और बेगार को खुली छूट दे दी है। कारख़ाना निरीक्षक के पद तक को समाप्त करने की साजि़श की जा रही है ताकि श्रम क़ानूनों से जो बेहद मामूली-सी बाधा पूँजीपतियों की मुनाफ़ाखोरी में पैदा होती थी वह भी समाप्त हो जाये।

देशी-विदेशी पूँजी की मुनाफ़ाख़ोरी के रास्ते से हर प्रकार की रोक-टोक समाप्त की जा रही है, ताकि मज़दूरों-मेहनतकशों से ग़ुलामों की तरह काम कराया जा सके। वास्तव में मौजूदा ठेका प्रथा एक आधुनिक ग़ुलामी ही है। निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों को मोदी सरकार ने अभूतपूर्व तरीक़े से बढ़ावा दिया है। ग्रामीण मज़दूर और अर्द्धमज़दूर आबादी पर भी इन नीतियों का असर साफ़ दिख रहा है। खेती के पूँजीवादी संकट ने, विशेष तौर पर मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से, छोटे किसानों व खेतिहर मज़दूरों की व्यापक आबादी को क़र्ज़ के दबाव और बाज़ार की होड़ के दबाव में तेज़ी से उजाड़ा है और रोज़गार की तलाश में शहरों और दूसरे राज्यों में जाने के लिए मजबूर किया है। ऊपर से मोदी सरकार 6 हज़ार रुपये सालाना देकर इन ग़रीब किसानों के साथ एक भद्दा मज़ाक़ कर रही है। ग्रामीण मज़दूरों के लिए सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए कोई क़ानूनी ढाँचा नहीं है। नतीजतन, धनी कुलकों व फ़ार्मरों द्वारा उनके हाड़तोड़ शोषण पर लगाम लगाने वाला कोई नियम-क़ायदा नहीं है। देश की जनता इन नीतियों के कारण पैदा होने वाली ग़रीबी, बेरोज़गारी और महँगाई के ख़ि‍लाफ़ एकजुट, गोलबन्द और संगठित न हो पाये, इसके लिए भाजपा की मोदी सरकार और उसके पीछे खड़ा समूचा संघ परिवार देश को युद्ध और दंगों की आग में झोंकने की नापाक कोशिशों में लगा हुआ है। गोहत्या, घर वापसी, ‘लव जिहाद’, राम मन्दिर के नाम पर साम्प्रदायिक नफ़रत फैलाने की कोशिश की जा रही है ताकि असली मुद्दों से जनता का ध्यान भटक जाये और वह धर्म, जाति, अन्धराष्ट्रवाद के उन्माद में बहकर वोट डाले। इन सभी हरक़तों ने पिछले पाँच साल में भाजपा, संघ परिवार और नरेन्द्र मोदी सरकार की कलई पूरी तरह से खोल दी है।

लेकिन जिन पूँजीपरस्त आर्थिक नीतियों को लागू करने में मोदी सरकार ने सारे पुराने कीर्तिमान ध्वस्त कर दिये हैं, उनकी शुरुआत भाजपा सरकार ने नहीं बल्कि 1991 में कांग्रेस सरकार ने की थी, जब नरसिंह राव प्रधानमन्त्री और मनमोहन सिंह वित्त मन्त्री हुआ करते थे। इसी सरकार ने देश की जनता की सम्पत्ति यानी सार्वजनिक क्षेत्र की कम्पनियों, कॉरपोरेशनों आदि को औने-पौने दामों पर टाटा, बिड़ला, अम्बानी आदि को और विदेशी कम्पनियों को बेचने की शुरुआत की थी। इन्हीं नीतियों के कारण बड़े पैमाने पर मज़दूरों, कारीगरों-दस्तकारों, छोटे किसानों, छोटे-मोटे धन्धे करने वाले मेहनतकश लोगों की तबाही और बरबादी की बड़े पैमाने पर शुरुआत हुई थी। साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर भी कांग्रेस हमेशा दोहरी नीति अपनाती रही है, जिसने साम्प्रदायिक फ़ासीवादी दानव को खाद-पानी देने का ही काम किया है। भाजपा और संघ परिवार के आक्रामक साम्प्रदायिक प्रचार के सामने कांग्रेस ने भी वोट बैंक की राजनीति के कारण नर्म केसरिया राजनीति पर अमल किया जिसका लाभ अन्त में भाजपा को ही मिला। सेक्युलरिज़्म का ढोल बजाने वाली कांग्रेस हिन्दुत्ववादी कट्टरपन्थियों ही नहीं बल्कि इस्लामिक कट्टरपन्थियों के ख़ि‍लाफ़ भी हमेशा बचाव की मुद्रा में रही और उनके सामने समर्पण करती रही। शाह बानो के मसले से लेकर राम मन्दिर का ताला खुलवाने तक के कांग्रेस के क़दम उसकी इसी नीति को दिखलाते हैं। वास्तव में, एक प्रतिक्रियावादी मध्यमार्गी पूँजीवादी पार्टी होने के कारण ऐसी नीति अपनाना कांग्रेस की विवशता है और आगे भी वह ऐसा ही करेगी। यही कारण है कि मध्यप्रदेश की नयी-नयी कांग्रेस सरकार ने भी गोरक्षा के नाम पर कई बेगुनाह नौजवानों पर केस दर्ज किये हैं और राजस्थान में भी हिन्दू वोटों के तुष्टिकरण के लिए कई क़दम उठाये जा रहे हैं।

जहाँ तक आर्थिक नीति का सवाल है, कांग्रेस भी पूरी तरह निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की उन्हीं नीतियों के पक्ष में है, जिनके 30 वर्षों के अमल का ख़ामियाज़ा आज देश के ग़रीब मज़दूर, मेहनतकश, छोटे किसान, छोटे-मोटे धन्धों में लगी कामगार आबादी, आम घरों से आने वाले नौजवान, दलित, स्त्रियाँ और धार्मिक अल्पसंख्यक भुगत रहे हैं। फ़र्क़ बस इतना है कि कांग्रेस इन नीतियों को लागू करने के साथ कल्याणकारी नीतियों और सुधारवाद का थोड़ा नाटक करती है, जबकि एक फ़ासीवादी तानाशाहाना पार्टी होने के कारण भाजपा कोई कल्याणवाद या सुधारवाद नहीं करती। यह खुल्लमखुल्ला नंगे तरीक़े से पूँजीपतियों की सेवा करती है और किसी भी प्रतिरोध और विरोध को कहीं ज़्यादा क्रूरता और बर्बरता से कुचलती है। लेकिन ये दोनों ही राष्ट्रीय पार्टियाँ बड़ी देशी और विदेशी पूँजी के हितों, यानी कि बड़ी-बड़ी देशी और विदेशी कम्पनियों के हितों की ही नुमाइन्दगी करती हैं। ये बड़ा पूँजीपति वर्ग अपनी बदलती ज़रूरतों के मुताबिक़ कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा को अपना मुख्य समर्थन देता है। आज यह वर्ग फ़ासीवादी भाजपा को समर्थन इसलिए दे रहा है क्योंकि 2008 में अमेरिका में शुरू हुए और 2010-11 तक भारत जैसे देशों में पहुँच चुके आर्थिक संकट यानी मन्दी के कारण पूँजीपतियों को दुनिया भर में फ़ासीवादी या अन्य प्रकार की तानाशाहाना व प्रतिक्रियावादी सरकारों की ज़रूरत है। यही कारण है कि नरेन्द्र मोदी जैसे फ़ासीवादी या दक्षिणपन्थी भारत ही नहीं बल्कि ब्राज़ील, फि़लिप्पींस, तुर्की समेत दुनिया के कई देशों में सत्ता में आये हैं। इनका मक़सद है पूँजीवादी अतिउत्पादन के कारण पैदा हुई मन्दी, यानी कि घटते मुनाफ़े के संकट, का पूरा बोझ मेहनतकश वर्गों और मज़दूरों के ऊपर डाल देना – श्रम क़ानूनों को नष्ट करके, उनके नाममात्र के अमल को भी समाप्त करके, बाल मज़दूरी, बेगार और ठेकाकरण को पूरी खुली छूट देकर मज़दूरों-मेहनतकशों की औसत मज़दूरी को घटाना और पूँजीपतियों का मुनाफ़ा बढ़ाना। भाजपा अपने पाँच साल के शासन में यही काम करती रही है।

इन दो बड़ी राष्ट्रीय पार्टियों के अलावा अगर हम व‍िभिन्न छोटी राष्ट्रीय पार्टियों या क्षेत्रीय दलों की बात करें, तो वे भी पूँजीपति वर्ग की ही सेवा कर रहे हैं, लेकिन उनके तुलनात्मक रूप से कम ताक़तवर दूसरे हिस्सों की। मिसाल के तौर पर, समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश व कुछ अन्य प्रदेशों में पिछड़ी जातियों के बीच पैदा हुए छोटे पूँजीपति वर्ग, धनी और मँझोले किसान वर्ग, शहरी मध्य व उच्च मध्य वर्ग और धार्मिक अल्पसंख्यकों के बीच मौजूद धनाढ्य व उच्च मध्य वर्गों की नुमाइन्दगी करती है। इस पार्टी का अधिकांश फ़ण्ड भी इन्हीं वर्गों से आता है। यदि बहुजन समाज पार्टी की बात करें तो वह दलित आबादी के बीच से पैदा हुए शासक वर्ग और खाते-पीते मध्य वर्ग और अतिपिछड़ी जातियों के बीच पैदा हुए मध्यवर्ग के हितों की नुमाइन्दगी करती है। इसके अलावा, सामाजिक न्याय की बात करते हुए यह पार्टी सत्ता की ख़ातिर आज उच्च जातियों हेतु आरक्षण की भी बात कर रही है। ऐसा मौक़ापरस्त बर्ताव करना इस पार्टी की फि़तरत रही है। मिसाल के तौर पर, देश में दलित व तथाकथित अन्य निम्न जातियों पर अत्याचार करने और ब्राह्मणवादी विचारधारा के स्तम्भ बने वर्गों की पार्टी, भारतीय जनता पार्टी के साथ सत्ता की ख़ातिर हाथ मिला लेने में भी इस पार्टी को कोई गुरेज़ नहीं है। अस्मितावादी राजनीति करते हुए यह पार्टी दलित जनता के वोट बटोरती है, जो कि अपनी ही जाति के कुलीनों का अनुसरण करते हुए अपने ही वर्ग हितों के ख़ि‍लाफ़ अक्सर इस पार्टी को वोट देते हैं। राष्ट्रीय जनता दल भी बिहार में पिछड़ी जातियों, विशेषकर यादव, धार्मिक अल्पसंख्यकों व दलितों के बीच पैदा हुए छोटे-से शासक वर्ग और मध्य वर्ग के हितों की नुमाइन्दगी करता है।

यही हाल अन्य क्षेत्रीय दलों या छोटी पार्टियों का है, जैसे कि जद (यू), जद (सेकू), राकांपा, द्रमुक, अन्नाद्रमुक, टीडीपी, इत्यादि। ये सभी जिन राज्य या राज्यों में ताक़त रखती हैं, उन राज्यों में ये आम तौर पर मध्य जातियों व पिछड़ी जातियों या/और दलित जातियों से आने वाले धनी व खाते-पीते फ़ार्मरों, मँझोले व बड़े उद्यमियों, ठेकेदारों, बिल्डरों, डीलरों की ही नुमाइन्दगी करती हैं क्योंकि इनके आर्थिक संसाधन मुख्यत: इन्हीं वर्गों से आते हैं। ये सभी बड़े कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग की भी सेवा करती हैं और उनसे भी चन्दे लेती हैं, लेकिन साथ ही उन वर्गों के हितों को लेकर बड़े पूँजीपति वर्ग के साथ मोलभाव भी करती हैं, जिनकी ये मुख्य रूप से नुमाइन्दगी करती हैं, यानी कि मध्य, पिछड़ी व दलित जातियों में पैदा हुए शासक वर्ग, उच्च वर्ग और मध्य वर्ग। ये किसी भी रूप में मज़दूरों, मेहनतकशों और ग़रीब किसानों के हितों की नुमाइन्दगी नहीं करतीं, हालाँकि मँझोली, पिछड़ी और दलित जातियों के मेहनतकशों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा अनेक राज्यों में इन क्षेत्रीय या अपेक्षाकृत छोटी पार्टियों को वोट डालता है, क्योंकि उसकी जाति के कुलीन वर्ग इन पार्टियों को वोट करते हैं और उन्हें लगता है कि ये पार्टियाँ वास्तव में उनकी “जाति की पार्टी” है या उनके “जाति के हितों” का प्रतिनिधित्व करती हैं। यह वर्ग-चेतना और अपने वर्ग-हितों के प्रति सचेतनता की कमी और किसी क्रान्तिकारी विकल्प, यानी मज़दूरों-मेहनतकशों की अपनी सच्ची पार्टी, की कमी के कारण होता है।

यदि संसदीय वामपन्थी, यानी नकली कम्युनिस्ट पार्टियों, जैसे कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी), भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन, आदि की बात करें, तो हम पाते हैं कि ये पार्टियाँ बात तो मज़दूर वर्ग की करती हैं, लेकिन वास्तव में सेवा छोटे मालिकों, छोटे उद्यमियों, छोटे व्यापारियों, बड़े और मँझोले किसानों और मज़दूरों के एक बेहद छोटे-से हिस्से, यानी संगठित क्षेत्र में काम करने वाले पक्के कर्मचारियों, के वर्ग की करती हैं। साथ ही, जिन जगहों पर भी वाम मोर्चे (मुख्यत: माकपा व भाकपा) की सत्ता रही वहाँ इन्होंने बड़े पूँजीपति वर्ग की सेवा में भी कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। पश्चिम बंगाल में अपनी भूतपूर्व सरकार के दौरान इन्होंने टाटा की नैनो कार का कारख़ाना लगवाने के लिए मज़दूरों, ग़रीब किसानों और आदिवासियों के हितों पर बर्बरता से हमला किया और उनके विरोध को क्रूरता से कुचला। यही काम इस तथाकथित “कम्युनिस्ट सरकार” ने लालगढ़ में आदिवासियों और ग़रीब किसानों और नन्दीग्राम में ग़रीब किसानों के ख़ि‍लाफ़ किया। इनके मुख्यमन्त्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने मज़दूरों को नसीहत देते हुए कहा था कि पूँजीपतियों के विरुद्ध हड़तालें आदि करने का युग बीत गया और आज का युग पूँजीपतियों के साथ “हाथ मिलाकर” चलने का है। मज़दूर और मालिक कभी हाथ नहीं मिला सकते। उनके बीच एक क़रार होता है, जिसके तहत मज़दूर अपनी श्रम शक्ति मालिक को बेचने को मजबूर होता है, क्योंकि कारख़ानों, खानों-खदानों आदि का मालिकाना मालिक के पास होता है, मालिक उसकी श्रम शक्ति का दोहन कर उत्पादन करता है, मुनाफ़ा कमाता है और बदले में मज़दूर को मुश्किल से जीने लायक खुराक़ देता है। ऐसे दो वर्गों में किस प्रकार का दोस्ताना हो सकता है? लेकिन ये तथाकथित कम्युनिस्ट पार्टियाँ आज मज़दूरों को मालिकों से वर्ग सहयोग की नसीहतें दे रही हैं। इनके मुँह से यदि कभी बड़े, कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग के ख़ि‍लाफ़ दो शब्द निकलते भी हैं, तो बस इसलिए क्योंकि ये छोटे पूँजीपति वर्ग, व्यापारी व उद्यमी वर्ग की नुमाइन्दगी करते हैं और इस बात को लेकर चिन्तित रहते हैं कि यदि बड़े पूँजीपति वर्ग की बेलगाम लूट पर थोड़ी लगाम नहीं लगायी गयी तो व्यापक मेहनतकश-मज़दूर आबादी बग़ावत पर उतर आयेगी और “औद्योगिक शान्ति” और उत्पादन भंग हो जायेगा।

इसीलिए इस पार्टी के नेतागण हमेशा केन्द्रीय सरकार और बड़े पूँजीपति वर्ग के कन्धे पर बैठे बेताल के समान उनके कान में लूटने में थोड़ा संयम बरतने का मन्त्र उच्चारते रहते हैं, जबकि असली लड़ाई उस व्यवस्था के ही समूल नाश की है जिसमें देश के 84 करोड़ उत्पादक वर्गों के पास उत्पादन के साधन ही नहीं हैं, जबकि जो एक सुई तक नहीं बनाते, वे समूचे कल-कारख़ानों, खानों-खदानों और खेतों-खलिहानों के मालिक बने बैठे हैं। भाकपा (माले) लिबरेशन भी भाकपा व माकपा के समान ही एक नकली कम्युनिस्ट पार्टी है, जिसने मज़दूर वर्ग से ग़द्दारी की है और इंक़लाबी रास्ते को छोड़कर संसदवादी बन चुकी है। यह भी उन्हीं वर्गों के हितों की नुमाइन्दगी करती है, जिनकी कि भाकपा और माकपा करते हैं। यह जुमले ज़्यादा गर्म इस्तेमाल करती है, लेकिन धुर अवसरवाद में इसका कोई सानी नहीं है। छोटे पूँजीपति वर्ग, छोटे व्यापारियों, छोटे उद्यमियों, धनी और मँझोले किसानों, और संगठित क्षेत्र के कर्मचारियों में से स्थायी कर्मचारियों के हितों की नुमाइन्दगी करने के बावजूद इन संसदमार्गी पार्टियों को आम मज़दूरों और मेहनतकशों का एक हिस्सा भी वोट देता है, जिसका विकल्पहीनता के अलावा एक कारण यह भी है कि इन पार्टियों ने अपनी सुधारवादी, अर्थवादी और ग़द्दार केन्द्रीय ट्रेड यूनियनों के ज़रिये मज़दूर आन्दोलन के एक हिस्से पर अपनी जकड़बन्दी बना रखी है।

पिछले क़रीब 7 वर्षों के दौरान भारत की पूँजीवादी राजनीति में एक नयी पार्टी आम आदमी पार्टी यानी कि ‘आप’ भी प्रकट हुई है, जिसके बारे में हम मज़दूरों, मेहनतकशों को अपनी समझ साफ़ कर लेनी चाहिए। इस पार्टी की ख़ासियत यह थी कि इसने अपने शुरुआती घोषणापत्र में सभी वर्गों से सभी वायदे कर डाले। इसने मज़दूर वर्ग से वायदा किया कि यह ठेका प्रथा को समाप्त कर देगी, दिल्ली सरकार के मातहत 50 हज़ार से भी ज़्यादा ख़ाली पदों को भरेगी, श्रम क़ानूनों को लागू करवायेगी, सभी अस्थायी शिक्षकों को व अस्थायी बस चालकों व परिचालकों को नियमित किया जायेगा, आठ लाख नये रोज़गार पैदा किये जायेंगे; व्यापारियों और छोटे कारख़ाना मालिकों से इसने वायदा किया कि उन पर सेल्स टैक्स का दबाव ख़त्म कर दिया जायेगा, कर विभाग के छापे रोक दिये जायेंगे, लेबर इंस्पेक्टर व फ़ैक्टरी इंस्पेक्टरों द्वारा ”उत्पीड़न” रोक द‍िया जायेगा, धन्धा लगाने और करने में सभी बाधाएँ (पढ़ें श्रम क़ानून और टैक्स क़ानून) हटा दी जायेंगी; दिल्ली के मध्य वर्ग और निम्न मध्य वर्ग से इसने वायदा किया कि दिल्ली में लगभग 20 नये कॉलेज और 500 नये स्कूलों का निर्माण करवाया जायेगा, बिजली का बिल आधा कर दिया जायेगा, पानी फ़्री कर दिया जायेगा, फ़्री वाई-फ़ाई की सुविधा दी जायेगी, इत्यादि। लेकिन इन सभी वायदों में से जो वायदे दिल्ली के मज़दूरों और मेहनतकशों से किये गये थे, आम आदमी पार्टी की सरकार उन सभी वायदों से मुकर गयी। केवल न्यूनतम मज़दूरी में बढ़ोत्तरी की गयी, क्योंकि वह दिल्ली में 98 प्रतिशत कारख़ानों में मिलती ही नहीं है! ज़ाहिर-सी बात है, यदि कोई पार्टी छोटे और मँझोले पूँजीपतियों से वायदा करती है कि धन्धा लगाने और चलाने में सारी बाधाएँ, मुख्यत: श्रम क़ानूनों और टैक्स क़ानूनों की “बाधाएँ”, समाप्त कर दी जायेंगी, और साथ ही वह मज़दूर वर्ग से ठेका प्रथा ख़त्म करने और श्रम क़ानूनों को लागू करवाने का भी वायदा करती है, तो इनमें से एक ही पूरा हो सकता है! केजरीवाल सरकार ने छोटे पूँजीपतियों और व्यापारियों से किये गये अधिकांश वायदों को पूरा किया है, मसलन, सेल्स टैक्स के छापे रुक गये हैं, नये कारख़ाने आदि लगाने को आसान बना दिया गया है, श्रम क़ानूनों पर अमल को सोचे-समझे तौर पर ढीला कर दिया गया है। ऐसा हो भी क्यों न? स्वयं आम आदमी पार्टी के नेताओं और मन्त्रियों, जैसे कि व‍िकास गोयल, गिरीश सोनी आदि की फ़ैक्टरियाँ दिल्ली में चल रही हैं और पार्टी के नेतृत्व में व्यापारियों, छोटे और मँझोले मालिकों, प्रॉपर्टी डीलरों, दलालों आदि की भरमार है।

कुछ प्रमुख राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दलों के फ़ण्ड के स्रोतों का ब्यौरा कुछ इस प्रकार है : भाजपा को 2017 में कुल 1034.27 करोड़ रुपये का फ़ण्ड मिला। इसका सबसे बड़ा हिस्सा प्रूडेण्ट इलेक्टोरल ट्रस्ट के पास से आया, जिसका पुराना नाम सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट था। यह 2014 के चुनाव के ठीक पहले एयरटेल के मालिक ने बनाया था और इसने दर्जनों बड़ी कम्पनियों से फ़ण्ड एकत्र करके भाजपा को दिया। इन कम्पनियों में डीएलएफ़़, टॉरेण्ट पॉवर, एस्सार, हीरो, आदित्य बिड़ला ग्रुप, आदि शामिल हैं। इसने अपने कुल फ़ण्ड का 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा भाजपा को दिया। बचे हुए हिस्से से कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, शिरोमणि अकाली दल, समाजवादी पार्टी व राष्ट्रीय लोकदल को चुनावी चन्दा दिया गया। इसके अलावा, एबी इलेक्टोरल ट्रस्ट ने भी भाजपा को जमकर फ़ण्ड दिया है, जो कि आदित्य बिड़ला का है। इसके अलावा भाजपा को बड़े चन्दे देने वाले पूँजीपतियों में कैडिला हेल्थकेयर, माइक्रो लैब्स, सिपला लिमिटेड, महावीर इलेक्ट्रिकल्स आदि शामिल हैं। भाजपा के चन्दे का 95 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा पूँजीपति घरानों और बड़ी-बड़ी कम्पनियों से आया है।

कांग्रेस को भाजपा से कहीं कम फ़ण्ड मिला, यानी लगभग 200 करोड़ रुपये। लेकिन ये फ़ण्ड भी मुख्यत: पूँजीपति घरानों से ही आये हैं। इस समय पूँजीपति घरानों ने भाजपा को ज़्यादा फ़ण्ड इसलिए दिया है क्योंकि मोदी सरकार ने इन पूँजीपति घरानों को लूट-खसोट की जैसी छूट दी है, वह अभूतपूर्व है और जनता के आन्दोलनों को जिस बर्बरता से कुचलने का प्रयास किया है, वह भी अभूतपूर्व है। यही कारण है कि कांग्रेस को भाजपा की तुलना में पाँच गुना कम फ़ण्ड मिले हैं, जिसका रोना कांग्रेस रो रही है। लेकिन कांग्रेस को जो फ़ण्ड मिले हैं उनका अधिकांश भी बड़ी-बड़ी कम्पनियों और उनके चुनावी ट्रस्टों से आया है। कांग्रेस को फ़ण्ड देने वालों में प्रूडेण्ट (सत्या) इलेक्टोरल ट्रस्ट, ट्रायम्फ़ इलेक्टोरल ट्रस्ट, निरमा लिमिटेड, आदित्य बिड़ला इलेक्टोरल ट्रस्ट, ज़ाइडस हेल्थकेयर, गायत्री प्रोजेक्ट्स आदि प्रमुख हैं। कांग्रेस के फ़ण्ड का भी 90-95 प्रतिशत हिस्सा बड़े पूँजीपतियों से आया है।

आम आदमी पार्टी को 2016-17 में कुल लगभग 25 करोड़ रुपये का फ़ण्ड मिला। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा उसी सत्या या प्रूडेण्ट इलेक्टोरल ट्रस्ट का है, जिसकी हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं। इसके अलावा टीडीआई इन्फ्राटेक, आईबीसी नॉलेज पार्क, अलेग्रो कॉरपोरेट फाइनेंस, पार कम्प्यूटर साइंस इण्टरनेशनल, इण्डियन फ्रे़टवेज़, रालसन इण्डिया लिमिटेड और बहुत से मँझोले और छोटे उद्यमियों ने आम आदमी पार्टी को करोड़ों और लाखों में फ़ण्ड दिये हैं, जैसे कि सोनम सर्राफ़, वकील हाउसिंग डेवलपमेण्ट कारपोरेशन, इण्डियन डिज़ाइन्स एक्सपोर्ट, आदि।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी को कुल क़रीब 1 करोड़ 15 लाख रुपये फ़ण्ड मिला। इसका बड़ा हिस्सा पार्टी के विभिन्न राज्यों की राजकीय परिषदों से आया, जिनमें सहयोग करने वाले अधिकांश लोग छोटे उद्यमी हैं, जो कि अक्सर इस पार्टी के पदों पर भी विराजमान हैं। इसके अलावा, तमाम अल्पसंख्यक उद्यमियों के संगठनों ने भाकपा को चन्दा दिया है। लेकिन अधिकांशत: ये चन्दे निम्न पूँजीपति वर्ग, छोटे उद्यमियों, व्यापारियों और साम्प्रदायिक फ़ासीवाद के उभार से डरे हुए सेक्युलर व जनवादी शहरी मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग ने दिये हैं। इनके फ़ण्ड का एक हिस्सा निश्चित तौर पर इनकी ट्रेड यूनियन एटक के नेटवर्क से भी आता है, जिसकी बैंक व बीमा कर्मचारियों, पोस्टल व टेलीग्राफ़़ कर्मचारियों आदि में ठीकठाक पकड़ है। यह मज़दूर वर्ग का वह हिस्सा है जिसे हम कुलीन मज़दूर वर्ग की संज्ञा दे सकते हैं।

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) को 2017-18 में क़रीब 2 करोड़ 76 लाख रुपये का चुनावी चन्दा मिला। इसमें पार्टी के नेताओं द्वारा दिये गये फ़ण्ड के अलावा जो कि स्वयं खाते-पीते मध्यवर्ग, छोटे उद्यमियों, छोटे व्यापारियों, कुलीन मध्यवर्ग से चन्दे के रूप में आता है, विभिन्न छोटी कम्पनियों द्वारा दिया गया फ़ण्ड है जैसे कि सेमत्ती टेक्सटाइल, ब्रिलियण्ट स्टडी सेण्टर, ईकेके कंस्ट्रक्शन, वेल्लाप्पली ब्रदर्स, जॉस्को ज्यूलर्स, एसेट्स होम्स, कोसामट्टम फाइनेंस, जेजे हॉलीडे, होटल एक्सकैलिबर, एसबीबी एण्ड क्ले प्रोडक्ट्स, श्री बालाजी रेज़ीडेंसी, बालाजी इंजीनियरिंग सर्विसेज़ आदि। इनकी केन्द्रीय यूनियन सीटू ने भी सार्वजनिक उपक्रमों के अपने कर्मचारी सदस्यों से जुटाया गया चन्दा इन्हें दिया है।

बहुजन समाज पार्टी ने पिछले कई वर्षों से एलान किया है कि वह किसी से भी 20,000 रुपये से अधिक चन्दा नहीं लेती। लेकिन पिछले एक साल में उसे कुल 52 करोड़ रुपये के क़रीब चन्दा मिला है। इसका बड़ा हिस्सा दलित नौकरशाहों, अफ़सरों, दलित व अन्य पिछड़ी जातियों के छोटे उद्यमियों, बिल्डरों, व्यापारियों, व्यावसायियों आदि से आया है। ये दाता कौन हैं यह पता नहीं चलता है क्योंकि पार्टियों के लिए 20,000 रुपये या उससे कम दान देने वालों का नाम उजागर करना अनिवार्य नहीं है। लेकिन बसपा का प्रमुख दाता वर्ग उपरोक्त ही है।

समाजवादी पार्टी को वर्ष 2017-18 में लगभग 7 करोड़ रुपये का चन्दा प्राप्त हुआ है। चन्दा देने वालों में सत्या इलेक्टोरल ट्रस्ट (एयरटेल व अन्य), जनरल इलेक्टोरल ट्रस्ट (बिड़ला), प्रोग्रेसिव इलेक्टोरल ट्रस्ट (टाटा), आईटीसी लिमिटेड के साथ-साथ तमाम छोटे पूँजीपतियों, धनी कुलकों-फ़ार्मरों, ने चन्दा दिया है। इसके दाताओं की पूरी सूची देखें तो साफ़ हो जाता है कि यह पार्टी भी बड़े पूँजीपतियों की एक लॉबी के साथ-साथ छोटे पूँजीपतियों, व्यापारियों, धनी फ़ार्मरों, ठेकेदार कम्पनियों, छोटे व मँझोले धार्मिक अल्पसंख्यक उद्यमियों आदि की ही नुमाइन्दगी करती है।

ये सिर्फ़ कुछ उदाहरण हैं। यदि आप अन्य राष्ट्रीय पार्टियों व बड़ी क्षेत्रीय पार्टियों के फ़ण्ड के भी स्रोत देखेंगे तो पायेंगे कि इन्हें पूँजीपति वर्ग के ही किसी न किसी हिस्से – जैसे कि बड़ा कॉरपोरेट पूँजीपति वर्ग, छोटा व मँझोला पूँजीपति वर्ग, ग्रामीण पूँजीपति वर्ग यानी धनी कुलक-फ़ार्मर, धनी, मँझोला या छोटा व्यापारी वर्ग, खाता-पीता शहरी उच्च मध्य वर्ग – से ही फ़ण्ड मिलता है, चाहे वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी हो, तृणमूल कांग्रेस हो, बीजू जनता दल हो, जद (यू) हो, जद (सेकु) हो, राजद हो, इनेलो हो या द्रमुक व अन्नाद्रमुक हो। इन सभी के फ़ण्ड का 90 प्रतिशत से भी ज़्यादा हिस्सा पूँजीपति वर्ग व निम्न पूँजीपति वर्ग के ही किसी न किसी हिस्से से आता है। कुछ बड़ी कम्पनियों के इलेक्टोरल ट्रस्ट सभी बड़ी राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पार्टियों को भारी-भरक़म चन्दा देते हैं। कहने की ज़रूरत नहीं कि इन घोषित चन्दों के अलावा बहुत भारी रकम और हवाई जहाज़, हेलिकॉप्टर, गाड़ि‍याँ, मकान आदि पूँजीपतियों द्वारा अघोषित रूप से भी पार्टियों को मुहैया कराये जाते हैं। इसी के बूते ये पार्टियाँ चुनाव लड़ती हैं। दूसरा स्रोत होता है स्वयं उम्मीदवारों की धन-सम्पदा। यही कारण है कि मौजूदा लोकसभा में 82 प्रतिशत सांसद करोड़पति हैं। यानी, ये सांसद खुद ही बड़े, मँझोले या छोटे पूँजीपति हैं और इन सभी के पास भारी पूँजी और सम्पत्ति है जिसके बूते पर ये समाज के सक्रिय शोषक वर्ग का अंग हैं।

अब हम आपसे पूछते हैं: क्या पूँजीपतियों के धन पर चलने वाली और स्वयं पूँजीपतियों द्वारा चलायी जाने वाली ये पार्टियाँ हम मज़दूरों, मेहनतकशों, ग़रीब किसानों, बेरोज़गार नौजवानों और निम्न मध्य वर्ग के हितों यानी कि आम मेहनतकश जनता के हितों की नुमाइन्दगी करेंगी? ऐसा सोचना भी ख़ुद को धोखा देना होगा। निश्चित तौर पर, वे वोट माँगने हमारे पास ही आयेंगी। लेकिन वे सत्ता में आने और संसद में पहुँचने के बाद हमारे हितों की नुमाइन्दगी नहीं कर सकती हैं, क्योंकि वे आर्थिक तौर पर और सामाजिक तौर पर पूँजीपति व निम्न पूँजीपति वर्ग के ही धन पर और इन्हीं वर्गों से आने वाले नेताओं पर टिकी हैं। इसलिए हमें ज़रूरत है एक ऐसी नयी पार्टी की जो कि मेहनतकश जनता के ही संसाधनों से चलती हो, मेहनतकश जनता से आने वाले नेतृत्व और मेहनतकश जनता के संघर्षों में तपे-तपाये ऐसे नेताओं की सामूहिक अगुवाई के बूते चलती हो, जिन्होंने राजनीतिक तौर पर मेहनतकश वर्गों का पक्ष चुना है और अपनी इस पक्षधरता को जनसंघर्षों की अग्निपरीक्षा में सिद्ध किया हो। केवल ऐसी पार्टी ही आम मेहनतकश जनता के हितों के लिए लड़ सकती है और न सिर्फ़ समाजवादी व्यवस्था के अन्तिम लक्ष्य को क्रान्तिकारी रास्ते से हासिल कर सकती है, बल्कि मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के चुनावों के भीतर भी मज़दूरों और मेहनतकश वर्गों के हितों की अधिकतम सम्भव हिफ़ाज़त कर सकती है। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी की स्थापना इसी सोच और लक्ष्य के साथ की गयी है।

आज देश में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी भारतीय जनता पार्टी सत्ता में है। पाँच साल की अपनी नाकामी को छिपाने, पूँजीपतियों के तलवे चाटने की अपनी हरक़तों के बेनक़ाब होने और भ्रष्टाचार के दलदल में धँसे होने के कारण अब वह चुनावों के ठीक पहले युद्धोन्माद की लहर भड़का रही है। पिछले कई चुनावों के पहले की ही तरह इस चुनाव के पहले भी एक आतंकी हमला हो गया है! 1999 के लोकसभा चुनावों के पहले कारगिल युद्ध हुआ, 2001 में सात राज्यों के विधानसभा चुनावों के पहले संसद पर आतंकी हमला हुआ, उत्तर प्रदेश के पिछले विधानसभा चुनावों के पहले उरी हमला हुआ और अब सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव के पहले पुलवामा हमला हो गया! क्या आपके मन में यह सवाल नहीं उठता कि हर चुनाव के पहले कोई आतंकी हमला क्यों हो जाता है, ख़ासकर तब जबकि भाजपा सत्ता में हो? क्या आपके मन में यह शंका नहीं उठती कि हर चुनाव के पहले सीमा पर तनाव क्यों पैदा किया जाता है? मोदी सरकार पुलवामा हमले से जुड़े सवालों पर चुप्पी क्यों साधे हुए है? क्यों कोई भी सवाल पूछे जाने पर राष्ट्रद्रोह और ‘सेना का मनोबल’ गिराने का शोर शुरू कर दिया जा रहा है? जब पुलवामा हमले में मारे गये आम घरों के सैनिकों के घरवाले भी बालाकोट “सर्जिकल स्ट्राइक” में मारे गये आतंकियों के बारे में सबूत माँग रहे हैं, तो उन्हें भी देशद्रोही क़रार क्यों दे दिया जा रहा है? ये सारे सवाल क्या आपके मन में सन्देह नहीं पैदा करते? ज़ाहिर है, झूठ बोलने में माहिर मोदी और उसकी सरकार देश में अपने झूठों के बूते ही युद्धोन्माद भड़काने की साजि़श कर रही है ताकि चुनावों में उसकी नैया पार लग सके। जब मन्दिर के नाम पर उन्माद भड़काना काम नहीं आया तो युद्धोन्माद का कार्ड खेला जा रहा है। लेकिन ऐसे किसी भी युद्ध में देश की जनता को कुछ नहीं मिलने वाला। सरहद के दोनों ओर बैठे शासक वर्ग की सियासत की बलि सरहद के दोनों ओर ग़रीब किसानों और मज़दूरों के बेटे-बेटियाँ चुकायेंगे। हमारे दुश्मन पाकिस्तान के मज़दूर-मेहनतकश नहीं हैं, बल्कि हमारे देश में बैठे सत्ताधारी हैं।

जब आप जीने का हक़ माँगते हैं, तो आपको कुचलने कौन सामने आता है? जब आप न्यूनतम मज़दूरी माँगते हैं, तो आप पर लाठियाँ बरसाने का हुक़्म कौन देता है? जब आप रोज़गार गारण्टी क़ानून का हक़ माँगते हैं, तो आपको कौन अनसुना कर देता है? जब आप मुफ़्त चिकित्सा, रियायती दरों पर सरकारी आवास, सभी को निशुल्क व समान शिक्षा का हक़ माँगते हैं, तो आपका दमन कौन करता है? संक्षेप में, जब भी आप अपने किसी भी जायज़ हक़ के लिए लड़ते हैं, तो आपको दबाने-कुचलने पाकिस्तान नहीं आता, बल्कि स्वयं इस देश का पूँजीवादी शासक वर्ग और उसकी सरकार आती है। हमारा असली दुश्मन हमारे देश के ये मुनाफ़ाखोर और लुटेरे हैं, जिनके किसी न किसी गिरोह की नुमाइन्दगी आज की सभी पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियाँ करती हैं, जिसका ज़ि‍क्र हम ऊपर कर चुके हैं।

राफे़ल घोटाला, नोटबन्दी घोटाला, व्यापम घोटाला, जनता का पैसा गबन करने वालों को विदेश भगाने, एनपीए घोटाला, फसल बीमा घोटाला और अन्य घोटालों ने भाजपा सरकार और संघ परिवार के चाल-चेहरा-चरित्र को पूरी तरह से उजागर कर दिया है। वास्तव में, घोटालों और भ्रष्टाचार का भाजपा सरकार ने नया रिकॉर्ड क़ायम किया है। जनता का ध्यान इन चीज़ों से भटकाने के लिए ही भाजपा सरकार युद्धोन्माद और अन्धराष्ट्रवाद की लहर चलाने का प्रयास कर रही है।

पूँजीवादी लोकतन्त्र की तमाम संस्थाओं जैसे कि चुनाव आयोग, न्यायपालिका, कैग आदि में भाजपा और संघ परिवार ने योजनाबद्ध तरीक़े से अपने फ़ासीवादी लोगों को बिठाया है और इन संस्थाओं को आन्तरिक तौर पर खोखला बना दिया है। राफे़ल मसले से लेकर राम मन्दिर तक के मसले पर सर्वोच्च न्यायालय के फै़सलों पर पूरा देश हैरान है। चुनाव आयोग भाजपा के चुनाव विभाग के समान काम कर रहा है, जिस पर तमाम विपक्षी दल भी सवाल उठा रहे हैं। यह भी आज के दौर के फ़ासीवाद की ही एक ख़ासियत है, जिसमें कि पूँजीवादी लोकतन्त्र की संस्थाएँ औपचारिक तौर पर तो बनी रहती हैं, लेकिन वे अन्दर से खोखली हो जाती हैं। इस समूची स्थिति को जनसमुदायों के सामने स्पष्ट करने और इसके ख़ि‍लाफ़ लड़ने के लिए भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी प्रतिबद्ध है।

कुछ ऐसी ही स्थिति देश के तमाम शैक्षणिक और शोध संस्थानों की भी है, जिनमें योजनाबद्ध तरीक़े से भाजपा सरकार ने अपने लोगों को बिठाया है। इन शैक्षणिक संस्थाओं को योजनाबद्ध तरीक़े से वित्तपोषण से वंचित कर उनकी हत्या की जा रही है। तमाम विश्वविद्यालयों में रहे-सहे जनवादी स्पेस को ख़त्म िकया जा रहा है, ताकि विरोध की हर आवाज़ को दबाया जा सके। जेएनयू, टिस, एचसीयू, बीएचयू, डीयू, आदि में संघ परिवार द्वारा सोची-समझी साजि़श के तौर पर छात्र-युवा आन्दोलन को कुचला जा रहा है। इसका कारण यह है कि छात्र-युवा आन्दोलन हमेशा से ही देश के मज़दूर और प्रगतिशील आन्दोलन का भर्ती केन्द्र रहे हैं। मौजूदा फ़ासीवादी सत्ता इन भर्ती केन्द्रों को ही नष्ट कर देना चाहती है ताकि इंसाफ़ और बराबरी की आवाज़ को उठने से पहले ही दबा दिया जाये।

3. देश की वर्तमान सामाजिक-आर्थिक स्थिति : एक संक्षिप्त तस्वीर

आज देश में बेरोज़गारी अभूतपूर्व स्तरों पर पहुँच गयी है। फ़रवरी 2019 में बेरोज़गारी दर 7.2 प्रतिशत पर पहुँच चुकी थी। यह पिछले लगभग पाँच दशकों में बेरोज़गारी की अधिकतम दर है। सच तो यह है कि यह सरकारी दर हमें बेरोज़गारी की असली विकराल तस्वीर दिखाती ही नहीं है। चूँकि हमारे देश में बेरोज़गारी भत्ता व रोज़गार गारण्टी जैसी कोई व्यवस्था ही नहीं है, इसलिए तमाम ऐसे बेरोज़गार लोगों को भी रोज़गारशुदा लोगों में गिना जाता है, जो कि बेरोज़गारी के कारण जीविकोपार्जन हेतु कभी रेहड़ी-खोमचा लगाने, पटरी दुकानदारी करने, लेबर चौक पर खड़ा होने, पकौड़ा और पान-बीड़ी बेचने, गाि‍ड़‍याँ धोने आदि का काम करते हैं। सभी बेरोज़गार न तो आत्महत्या कर लेते हैं और न ही अपराधी बन जाते हैं। वे जीवित रहने के लिए कुछ न कुछ करते हैं और किसी तरह ज़िन्दा रहते हैं। क्या उन्हें रोज़गारशुदा माना जाये? नहीं! वे सभी बेरोज़गार की ही श्रेणी में आते हैं और यदि रोज़गार सुरक्षा की कोई सुचारू व्यवस्था देश में होती तो उनकी सही संख्या सामने आ पाती। लेकिन हमारी सरकार उन्हें ‘स्वरोज़गार’ व ‘निजी उद्यमी’ जैसी श्रेणियों के ज़रिये आँकड़ों में छिपा जाती है। यदि इन्हें जोड़ा जाये तो पता चलता है कि बेरोज़गारों की संख्या आज देश में 27 से 30 करोड़ के बीच पहुँच रही है। अगर कामों में स्त्रियों की भागीदारी की बात करें, तो एक बहुत बड़ी आबादी गाँवों और शहरों दोनों में ही वास्तव में बेरोज़गार के रूप में ही गिनी जानी चाहिए। यह भी एक प्रकार की छिपी हुई बेरोज़गारी ही है। बेरोज़गारी का मुद्दा आज हमारे देश के मज़दूरों, ग़रीब किसानों, आम मेहनतकश आबादी और नौजवानों के लिए सबसे बड़ा मुद्दा है। जब तक संविधान में संशोधन करके काम के हक़ को मूलभूत अधिकारों में शामिल नहीं किया जाता और जब तक कि रोज़गार गारण्टी के लिए सरकार क़ानून नहीं बनाती और जब तक सरकार को सभी काम करने योग्य व्यक्तियों को रोज़गार देने की जि़म्मेदारी स्वीकार करने को मजबूर नहीं किया जाता है, तब तक काम के हक़ की लड़ाई आगे नहीं जा सकती है। यह एक ऐसी माँग है जो कि समूची मेहनतकश जनता की आम माँग है, चाहे वे मज़दूर हों, ग़रीब किसान हों, निम्न मध्यवर्ग हो।

हमारे देश में आज 60 करोड़ से भी ज़्यादा मज़दूर हैं, जिनमें से 22 करोड़ से भी ज़्यादा शहरों में हैं। गाँवों में जो मज़दूर-मेहनतकश आबादी है, उसका बड़ा हिस्सा अब ग़ैर-खेतिहर पेशों में लगा है, चाहे वह उद्योग हो, सेवा क्षेत्र हो या फिर छोटे-मोटे स्वरोज़गार के धन्धे हों। इस पूरी आबादी का केवल 6 प्रतिशत ऐसा है जिसके पास पक्का रोज़गार और बुनियादी श्रम अधिकार जैसे कि न्यूनतम मज़दूरी, आठ घण्टे का कार्यदिवस आदि है। बाकी 94 प्रतिशत आबादी आम तौर पर औसतन 7-9 हज़ार रुपये महीने में ही 9-11 घण्टे प्रतिदिन काम करती है। न तो उन्हें आठ घण्टे का कार्यदिवस मिलता है, न साप्ताहिक छुट्टी मिलती है, न ईएसआई-पीएफ़ मिलता है, न कोई सामाजिक सुरक्षा योजना मिलती है और न ही स्वैच्छिक तथा डबल रेट से ओवरटाइम मिलता है। अगर राजनीतिक अधिकारों की बात करें तो इन 94 प्रतिशत मज़दूरों को आम तौर पर यूनियन बनाने का अधिकार भी नहीं मिलता है और जहाँ कहीं औपचारिक तौर पर मिलता भी है, वहाँ भी श्रम विभाग उनकी यूनियन पंजीकृत ही नहीं करता है। यह मज़दूर आबादी कुल मेहनतकश आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा है, जिसके पास अपनी कोई ज़मीन नहीं है, या फिर नाममात्र के लिए भूमि है जिस पर कि वह स्वयं खेती भी नहीं कर पाती क्योंकि इसके लिए उसके पास पर्याप्त पूँजी भी नहीं है। नतीजतन, वह यह नाममात्र की भूमि पट्टे पर देकर या तो शहरों की ओर पलायन कर जाती है या दूसरी जगहों में जाकर बड़े फ़ार्मों पर मज़दूरी करती है। यह देश का सबसे क्रान्तिकारी वर्ग है जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है और पाने के लिए सबकुछ है। यही वह वर्ग है जो कि देश में क्रान्तिकारी बदलाव में व्यापक मेहनतकश आबादी को नेतृत्व दे सकता है और उसे इसके लिए अपनी क्रान्तिकारी पार्टी में संगठित होना ही होगा।

आज देश में कुल जोतों की संख्या क़रीब 14 करोड़ है। इनमें से 86 प्रतिशत का आकार 2 हेक्टेयर से छोटा है। यानी कुल किसान आबादी, जिसके पास किसी भी मात्रा में ज़मीन है, में से 86 प्रतिशत बेहद छोटे और ग़रीब किसान हैं, जिनके पास 2 हेक्टेयर से भी कम भूमि है। लेकिन इन 86 प्रतिशत किसानों के पास देश की कुल ज़मीन में से सिर्फ़ लगभग 43 प्रतिशत ज़मीन है। यानी कि 57 प्रतिशत ज़मीन सिर्फ़ 14 प्रतिशत किसानों के पास है। दूसरे शब्दों में, ज़मीन का बड़ा हिस्सा बड़े किसानों के पास है, जिनकी संख्या बेहद कम है। जबकि व्यापक किसान आबादी का 86 प्रतिशत हिस्सा इतना ग़रीब है कि उसे दूसरे धनी किसानों के खेतों में या शहरों में जाकर मज़दूरी करनी पड़ती है। इस आबादी को वास्तव में हम अर्द्धमज़दूर कह सकते हैं और यह गाँवों में मज़दूर वर्ग का सबसे निकटतम सहयोगी वर्ग है। इसकी सबसे बुनियादी माँग क्या बनती है? पहला, समूची भूमि का राष्ट्रीकरण; दूसरा, सभी बड़े फ़ार्मों का सामूहिकीकरण व राजकीयकरण; तीसरा, काम का हक़, यानी रोज़गार की गारण्टी। केवल यही तीन माँगें हैं जो कि ग़रीब किसानों के जीवन को ग़रीबी, बदहाली, कुपोषण और भुखमरी के गर्त से निकाल सकती हैं। इसके लिए ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों को धनी किसानों और कुलकों से अलग अपने संगठन बनाने होंगे। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी इस कार्यभार को पूरा करने के लिए कटिबद्ध है।

देश में शिक्षा के हालात हर दिन के साथ बद से बदतर होते जा रहे हैं। बारहवीं पास करने वाले मात्र 7 प्रतिशत लोग ही उच्चतर शिक्षा तक पहुँच पाते हैं। वहीं हर 100 बच्चों में से केवल 70 बच्चे ही सीनियर स्कूल तक पहुँच पाते हैं। कहने के लिए साक्षरता की दर भारत में 74 प्रतिशत के क़रीब पहुँच रही है, मगर यदि स्कूली शिक्षा पूरी न कर पाने वाली आबादी को देखें तो हम पाते हैं वास्तव में शिक्षित आबादी भारत में बेहद कम है। अगर दलित और आदिवासी छात्रों की बात करें तो हम पाते हैं कि उनमें मात्र 61 से 65 प्रतिशत बच्चे ही सीनियर स्कूल तक पहुँच पाते हैं। हमारे देश में अपनी मातृभाषा में शिक्षा पाने का अधिकार अधिकांश आबादी को नहीं मिलता है। अधिकांश निजी स्कूल अंग्रेज़ी माध्यम स्कूल हैं। सरकारी स्कूलों में भी एक पदानुक्रम मौजूद है और लगभग सभी स्तरीय सरकारी स्कूल अंग्रेज़ी माध्यम हैं, जिनमें अपनी मातृभाषा को बोलने तक पर पाबन्दी लगायी जाती है। हिन्दी माध्यम और अन्य भाषाओं के जो स्कूल हैं भी उनके साथ जानबूझकर सौतेला बर्ताव किया जाता है, जिसके कारण उनका स्तर बेहद नीचे गिर जाता है। वहाँ पढ़ना या न पढ़ना एक समान हो जाता है। नतीजतन, अपनी भाषा में सोचने, बात करने, अभिव्यक्ति करने, सपने देखने तक का अधिकार देश की आम जनता से छीन लिया गया है। अगर उच्चतर शिक्षा की बात करें, तो वहाँ भी यही स्थिति है। सारी अच्छी अध्ययन सामग्री अंग्रेज़ी में है और विश्वविद्यालयों के भी पास मातृभाषा में अनुवाद हेतु या तो पर्याप्त फ़ण्ड नहीं होते और यदि होते भी हैं, तो अनुवाद किये नहीं जाते। अपनी भाषा में सोचने, लिखने, पढ़ने के अधिकार से वंचित होने के कारण हमारा देश विज्ञान, गणित, तकनोलॉजी, सामाजिक विज्ञान आदि के क्षेत्र में भी नवोन्मेषी शोध और अनुसंधान नहीं पैदा कर पा रहा है और वैज्ञानिक, गणितज्ञ, सामाजिक विज्ञानी आदि पैदा करने के बजाय विज्ञान के क्लर्क, गणित के क्लर्क, समाज विज्ञान के क्लर्क आदि पैदा कर रहा है। यह पूरे देश को पीछे धकेलने के समान है। हमारी माँग है कि सभी को नि:शुल्क और समान शिक्षा मिले और सभी को अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार हो। राजकीय भाषा जैसा दर्जा किसी भी भाषा का नहीं होना चाहिए।

किसी भी मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था में स्त्रियों का दमन कभी समाप्त नहीं हो सकता। हमारे सापेक्षिक रूप से पिछड़े पूँजीवादी देश में इस दमन, उत्पीड़न और शोषण ने सबसे बर्बर और क्रूर रूप लिये हैं। बलात्कार, एसिड फेंककर मारने, दहेज़ के लिए जला दी जाने वाली स्त्रियों की संख्या हमारे देश में सबसे ज़्यादा है। घरेलू हिंसा के सबसे अधिक मामले भी यहीं सामने आते हैं। स्त्री-विरोधी अपराधों के मामले में हमारा देश पहले स्थान पर है। काम करने वाली कुल आबादी में औरतों की संख्या घट रही है। इसका अर्थ यह नहीं कि औरतें पहले से कम काम कर रही हैं। उल्टे इसका यह अर्थ है कि औरतें सबसे अधिक घरेलू, असंगठित, कुटीर उद्योग, आदि जैसे क्षेत्रों में काम कर रही हैं, जिन्हें गिना नहीं जाता है। ये वे क्षेत्र हैं जहाँ सबसे कम मज़दूरी पर सबसे ज़्यादा काम कराया जाता है। और साथ ही हमारे सरकारी तंत्र इन्हें गिन भी नहीं पाते। इससे ऐसा लगता है कि काम करने वाली औरतें कम हो गयी हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि हमारे देश के पूँजीपतियों ने औरतों को सबसे बुरे, कठिन, ऊबाऊ, कम मज़दूरी वाले ग़ुलामी जैसे कामों को करने के लिए मजबूर कर दिया है ताकि उनकी मेहनत की बेरहम लूट को जारी रखा जा सके। जहाँ कहीं स्त्री मज़दूर वही कार्य करती हैं जो कि पुरुष मज़दूर करते हैं, वहाँ भी उन्हें समान काम के लिए समान वेतन नहीं मिलता। समाज में स्त्रियों की कमज़ोर स्थिति का पूँजीवाद पूरा इस्तेमाल करता है और इसीलिए वह पितृसत्तात्मक विचारधारा को प्रोत्साहित करता है, जिसका असर मज़दूर वर्ग के ऊपर भी होता है। नतीजतन, घर में भी स्त्रियों को पितृसत्तात्मक ग़ुलामी झेलनी पड़ती है। पुरुष मजदूरों को यह समझना होगा कि जब तक वह आधी आबादी यानी कि मज़दूर वर्गीय स्त्रियों को घर की ग़ुलामी में कैद रखेगा, तब तक वह भी पूँजीपतियों और मालिकों की ग़ुलामी करने के लिए अभिशप्त रहेगा। हर प्रकार का धार्मिक कट्टरपन्थ औरतों की इस ग़ुलामी को हर तरह से और ज़्यादा नग्न रूप में सही ठहराने और बढ़ावा देने का काम करता है। वहीं स्त्री मज़दूरों को यह समझना होगा कि एक ओर उन्हें पूँजीवादी ग़ुलामी से एक दुश्मनाना लड़ाई लड़नी है, तो वहीं उन्हें घर के भीतर और बाहर सड़कों पर भी आज़ादी की एक लड़ाई लड़नी है, लेकिन किसी दुश्मन के लिए ख़ि‍लाफ़ नहीं बल्कि उस पुरुष के साथ जो कि स्वयं पूँजी की ग़ुलामी के लिए मज़बूर है। मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी की मुक्ति के लिए स्त्रियों की मुक्ति की लड़ाई आवश्यक है, और स्त्रियों को पितृसत्ता से पूर्ण मुक्ति समाजवादी व्यवस्था में ही मिल सकती है। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी स्त्रियों और पुरुषों की समानता में यक़ीन करती है और मानती है कि इस समानता के लिए लड़े बग़ैर मज़दूर वर्ग की मुक्ति भी सम्भव नहीं है और इसीलिए वह इस लड़ाई को जुझारू तरीक़े से चलाने के लिए प्रतिबद्ध है।

दलितों और आदिवासियों की स्थिति के बारे में जो भी कहा जाये वह कम ही होगा। आरक्षण की नीति के कई दशकों बाद भी कुल ग्रामीण दलित आबादी का 71 प्रतिशत भूमिहीन खेतिहर मज़दूर या ग्रामीण मज़दूर है। खेती के क्षेत्र में कुल भूमिहीन आबादी का 48 प्रतिशत दलित है। गाँवों में दलित आबादी की औसत आय ग़ैर-दलित आबादी से 37 प्रतिशत कम है जबकि शहरों में यह प्रतिशत क़रीब 60 है। यह दिखलाता है कि आज भी जाति व्यवस्था उत्पादन और वितरण के सम्बन्धों को प्रभावित करती है। आज भी दलित आबादी को जातिगत उत्पीड़न और अपमान का सामना करना पड़ता है। आज़ादी के बाद के सात दशकों में छुआछूत और खानदानी पेशों की व्यवस्था तो बेहद कमज़ोर हुई है, हालाँकि ख़त्म नहीं हुई, मगर सजातीय विवाह की व्यवस्था अभी भी बनी हुई है और आज भी रोटी-बेटी के रिश्ते बहुत कम ही बनते हैं। भाजपा सरकार आने के बाद से उच्च जातियों के उच्च व उच्च मध्यम वर्ग की ज़्यादतियों में और दलित विरोधी उत्पीड़न की घटनाओं में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई है। उत्पीड़न और अपमान की घटनाओं का एक स्पष्ट वर्ग चरित्र है। आँकड़ों को देखें तो सौ में निन्यान्नबे मसलों में दलित-विरोधी उत्पीड़न और अपमान का शिकार मज़दूर और मेहनतकश दलित आबादी ही होती है, क्योंकि आर्थिक कारणों से उसकी सामाजिक स्थिति कमज़ोर होती है। उच्च मध्य वर्ग और मध्य वर्ग की दलित आबादी को भी जातिगत अपमान झेलना पड़ता है, क्योंकि उनकी सामाजिक हैसियत कमज़ोर होती है, लेकिन यह आबादी इस अपमान के ख़ि‍लाफ़ सड़कों पर उतरकर लड़ने को तैयार नहीं होती क्योंकि वह इस व्यवस्था की लाभप्राप्तकर्ता बन चुकी है। नतीजतन, जातिगत अपमान के हर मसले पर लड़ने की ताक़त भी मज़दूरों और मेहनतकशों की एकता के बूते पर खड़े वर्ग-आधारित जाति-विरोधी आन्दोलन के पास ही है। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी हर प्रकार के जातिगत उत्पीड़न, भेदभाव और अपमान के ख़ि‍लाफ़ जुझारू संघर्ष करने के लिए प्रतिबद्ध है और मानती है कि जाति का ख़ात्मा एक वर्गविहीन समाज की स्थापना के साथ ही हो सकता है, जिसकी पहली मंजिल समाजवादी व्यवस्था होगी।

भारत में विभिन्न राष्ट्रीयताओं का बर्बरता के साथ दमन किया जा रहा है, विशेष तौर पर, कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्यों में। इन राज्यों में आफ्स्पा लागू कर सैन्य बलों को हर प्रकार की छूट दे दी गयी है। नतीजा है वहाँ की आम जनता का बर्बर दमन और उत्पीड़न। यह इन राष्ट्रीयताओं के अलगाव को और ज़्यादा बढ़ावा दे रहा है। ज़ाहिर है कि विभिन्न राष्ट्रीयताओं के आम मेहनतकश लोगों के बीच की एकता और उनके साझा राज्य की एकता को ज़ोर-ज़बरदस्ती के आधार पर नहीं बल्कि स्वेच्छा के आधार पर ही क़ायम किया जा सकता है। ऐसे में, इन राज्यों का तत्काल विसैन्यीकरण किया जाना चाहिए और वहाँ की राष्ट्रीयताओं को अलग होने समेत बिना शर्त आत्मनिर्णय का अधिकार दिया जाना चाहिए।

विशेष तौर पर मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षा और डर का एक ऐसा माहौल पैदा हुआ है जैसा शायद कभी नहीं था। इसका कारण यह है कि किसी भी फ़ासीवादी सत्ता को अपने पीछे खड़े प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन के लिए एक काल्पनिक दुश्मन की ज़रूरत होती है, जिसे कि पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग द्वारा पैदा की गयी सभी समस्याओं के लिए जि़म्मेदार ठहराया जा सके। भाजपा और संघ परिवार मुसलमानों, ईसाइयों, िसखों व अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के रूप में देश की व्यापक टटपुँजिया आबादी के सामने एक नकली दुश्मन खड़ा करते हैं, जो कि स्वयं अपने जीवन की असुरक्षा और अनिश्चितता से परेशान है और उसके असली कारणों को न समझने के कारण एक अन्धी प्रतिक्रिया में जीती है। इसलिए बेरोज़गारी, ग़रीबी, महँगाई से लेकर आतंकवाद और देश की सुरक्षा पर जोखिम तक के लिए धार्मिक अल्पसंख्यकों को जि़म्मेदार ठहरा दिया जाता है। इसके साथ ही धार्मिक बहुसंख्यक समुदाय के एकमात्र प्रतिनिधि के तौर पर फ़ासीवादी नेता को स्थापित कर दिया जाता है। इस नेता के ख़ि‍लाफ़ जाने को देश और राष्ट्र तथा धार्मिक बहुसंख्या के ख़ि‍लाफ़ जाने का पर्याय बना दिया जाता है। मोदी के पाँच वर्षों के शासन में ठीक यही िकया गया है। हमें इस स्थिति को जनता के सामने साफ़ करना चाहिए और बताना चाहिए कि किस प्रकार उनके जीवन की समस्याओं के लिए मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था जि़म्मेदार है, न कि कोई विशिष्ट समुदाय। भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी हर धार्मिक समुदाय की आम मेहनतकश आबादी के बीच वर्गीय एकजुटता क़ायम करने और इस वर्गीय एकजुटता के आधार पर फ़ासीवादी साजि़श और हमले को नाकामयाब बनाने के लिए वचनबद्ध है।

4. भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी आपके बीच क्यों?

साथियो! हमने उपरोक्त कुछ पन्नों में देश की मौजूदा तस्वीर पेश की है। इस तस्वीर से एक बात स्पष्ट है कि एक मुनाफ़ा-केन्द्रित व्यवस्था में जिसमें कि समूचा उत्पादन और उसका वितरण समाज की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि मुट्ठी-भर मुनाफ़ाखोरों के मुनाफ़े को ध्यान में रखकर किया जाता हो, वहाँ बेरोज़गारी, ग़रीबी, कुपोषण, भुखमरी, अशिक्षा का होना लाज़ि‍मी है। ऐसी अराजक व्यवस्था में एक ओर अनाज के गोदाम भरे रहते हैं तो दूसरी ओर मेहनतकश और मज़दूर भूखे मरते हैं; कपड़ों की कम्पनियाँ अतिउत्पादन से तंग आकर कपड़े जलाती हैं, तो दूसरी ओर शीतलहरी में ग़रीब नंगे बदन फुटपाथों पर ठिठुर-ठिठुरकर मर जाते हैं; एक ओर करोड़ों मकान व अपार्टमेण्ट ख़ाली पड़े रहते हैं वहीं 18 करोड़ लोगों के सिर पर कोई छत नहीं होती। यह अराजक व्यवस्था एक ओर सामानों का अम्बार खड़ा करती है, जिसे मुनाफ़े पर बेचा नहीं जा सकता तो दूसरी ओर कुपोषित मज़दूरों-मेहनतकशों का विशाल सागर खड़ा करती है। ऐसी व्यवस्था में राजनीतिक व्यवस्था में जनतंत्र केवल उनके लिए होता है, जो पूँजीपति वर्ग, निम्न पूँजीपति वर्ग, धनी किसानों, ठेकेदारों, दलालों, नौकरशाहों, उच्च मध्यवर्ग से आते हैं। जैसे-जैसे आप सामाजिक वर्ग पदानुक्रम में नीचे जाते हैं, वैसे-वैसे जनवादी अधिकार भी कम होते जाते हैं। चुनावों की पूरी व्यवस्था ऐसी बनायी जाती है, जिसमें कि चुनाव लड़ पाने और जीत पाने की ज़्यादा सम्भावना उच्च वर्ग या उच्च वर्ग द्वारा समर्थित उम्मीदवारों की ही होती है। सभी चुनावबाज़ पार्टियाँ पूँजीपति वर्ग और बड़ी-बड़ी कम्पनियों के चन्दों पर ही चलती हैं और वे सरकार बनाने और संसद, विधानसभाओं व म्यूनिसिपैलिटी में जाने पर सेवा भी उन्हीं की करती हैं, जिसका ऊपर हम विस्तार से वर्णन कर चुके हैं। मज़दूरों और मेहनतकशों की अपनी कोई पार्टी नहीं है जो कि उनके वर्ग हितों की सच्चे मायने में नुमाइन्दगी करती हो। कोई ऐसी पार्टी ही हम मज़दूरों-मेहनतकशों के वर्ग हितों की नुमाइन्दगी कर सकती है जो कि मज़दूरों-मेहनतकशों के ही संसाधनों पर खड़ी हो और उन्हीं के राजनीतिक संघर्षों से तप-तपाकर निकले हुए नेतृत्व की अगुवाई में खड़ी की गयी हो।

भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी एक ऐसी ही पार्टी है जिसे स्वयं मज़दूरों, मज़दूर संगठनकर्ताओं और मज़दूर वर्ग के राजनीतिक संगठनकर्ताओं ने आन्दोलनों की गरमी में खड़ा किया है। यह मज़दूर वर्ग की अपनी स्वतन्त्र राजनीतिक पार्टी है जो कि मज़दूर वर्ग के ही अगुवा तत्वों द्वारा खड़ी की जा रही है। यह पार्टी मज़दूर वर्ग की अगुवा दस्ता है और समूची मेहनतकश आबादी के नेतृत्वकारी कोर की भूमिका निभाने के लिए प्रतिबद्ध है।

भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी स्वयं मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के व्यक्तियों द्वारा दिये गये आर्थिक सहयोग पर काम करती है और यह किसी भी देशी-विदेशी कम्पनी, पूँजीपति घराने, सरकार, एनजीओ, फ़ण्डिंग एजेंसी, चुनावी ट्रस्ट या किसी अन्य पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टी से किसी भी प्रकार का चन्दा या फ़ण्ड नहीं लेती। इस प्रश्न को हम आर्थिक नहीं बल्कि राजनीतिक प्रश्न मानते हैं, क्योंकि जो पार्टी मज़दूरों और मेहनतकशों के आर्थिक संसाधनों पर खड़ी होती है, केवल वही पार्टी मज़दूर और आम मेहनतकश वर्गों के वर्ग हितों की सही मायने में नुमाइन्दगी कर सकती है।

उपरोक्त कारणों से ‘भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी’ मज़दूर वर्ग का स्वतन्त्र राजनीतिक पक्ष है और यह चुनाव समेत हर राजनीतिक व सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में मज़दूर और आम मेहनतकश वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करती है। यह मज़दूर वर्ग और उसकी क्रान्तिकारी विचारधारा का मूर्त रूप और उसका अगुआ दस्ता है। इस पार्टी का निर्माण और गठन ही इसलिए किया गया है कि मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश आबादी के अन्तिम लक्ष्य यानी कि मज़दूर सत्ता और समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लक्ष्य को पूर्ण किया जाये और ऐसी समाजवादी व्यवस्था के निर्माण के समूचे क्रान्तिकारी आन्दोलन के अंग के तौर पर और उसे आगे बढ़ाने के लिए मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था के चुनावों में भी मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी के राजनीतिक पक्ष यानी कि उनके राजनीतिक वर्ग हितों की नुमाइन्दगी को पेश किया जाये। यदि ऐसा नहीं किया जाता तो मज़दूर और आम मेहनतकश वर्ग भी इस या उस पूँजीवादी या निम्न पूँजीवादी चुनावबाज़ राजनीतिक पार्टी का पुछल्ला बनने को मजबूर हो जाते हैं, जैसा कि आज हो रहा है। कभी इस पूँजीवादी पार्टी तो कभी उस पूँजीवादी पार्टी को वोट देना जनता द्वारा अपना गुस्सा प्रकट करने या सज़ा देने का बस एक ज़रिया बन गया है। लेकिन इससे क्या होगा? कुछ भी नहीं! शायद अधिक से अधिक कुछ सुधार के क़ानून लाये जायें, जिन्हें कि लागू भी नहीं किया जायेगा और वे फौरी राहत भी न दे सकेंगे। इस कुचक्र ने हमें पिछले सत्तर वर्षों में क्या दिया है? कुछ भी नहीं! सिर्फ़ भूख, बेकारी और मुफ़लिसी। इसलिए आज की ज़रूरत है मज़दूरों और मेहनतकश वर्गों की अपनी क्रान्तिकारी पार्टी जो कि हर क्षेत्र में उनके स्वतन्त्र पक्ष की नुमाइन्दगी कर सके।

इसी लक्ष्य के साथ भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में देश के विभिन्न हिस्सों में अपने मज़दूर पक्षीय उम्मीदवारों को खड़ा करने के साथ पूँजीवादी चुनावों में मज़दूर वर्ग के क्रान्तिकारी हस्तक्षेप की शुरुआत कर रही है। हम सभी मज़दूरों, ग़रीब किसानों, आम मेहनतकश लोगों, आम स्त्रियों, ग़रीब दलित और आदिवासी आबादी और निम्न मध्यवर्ग के तंगहाल, परेशानहाल लोगों से अपील करते हैं कि आने वाले चुनावों में यदि आपके क्षेत्र में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का उम्मीदवार खड़ा है, तो उसे एकजुट होकर वोट दीजिये और उसे विजयी बनाने के लिए हर सम्भव प्रयास कीजिये। हम अन्य वर्गों से भी आने वाले तमाम ऐसे व्यक्तियों से भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी को वोट और समर्थन देने की अपील करते हैं, जो इंसाफ़पसन्द, तरक्कीपसन्द और सेक्युलर व जनवादी विचारों में भरोसा रखते हैं। हम आप सभी मज़दूर-मेहनतकश भाइयों और बहनों, युवा साथियों से अपील करते हैं कि आप भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के वॉलण्टियर बनें और उसके उम्मीदवारों की विजय को सुनिश्चित करने में अपनी भूमिका निभायें। जिन क्षेत्रों में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के उम्मीदवार नहीं खड़े हैं, वहाँ हम जनता से नोटा का बटन दबाने का आह्वान करते हैं।

एक बार कल्पना करें: यदि आपके संसद क्षेत्र से मज़दूर पक्ष का उम्मीदवार जीतता है तो हम क्या-क्या कर सकते हैं। उस पूरे क्षेत्र में श्रम क़ानूनों को सख़्ती से लागू करवाना काफ़ी हद तक सम्भव बनाया जा सकता है, चाहे वह न्यूनतम मज़दूरी का मसला हो, साप्ताहिक छुट्टी का मसला हो, डबल रेट से ओवरटाइम के भुगतान का मसला हो या ईएसआई व पीएफ़ के हक़ का मसला हो। उस पूरे क्षेत्र में मज़दूरों और मेहनतकशों की बस्तियों में पीने के पानी, साफ़-सफ़ाई व शौचालय, प्रकाश व बिजली, सामुदायिक केन्द्र, अस्पताल और प्राथमिक चिकित्सा केन्द्र और स्कूलों की व्यवस्था को बेहतर करना सम्भव बनाया जा सकता है, क्योंकि अब सांसद आपका अपना मज़दूर पक्ष का साथी होगा। मज़दूरों और मेहनतकशों के हरेक हक़ो-हुक़ूक की आवाज़ को संसद के गलियारों तक पहुँचाया जा सकता है और इन हितों के ख़ि‍लाफ़ खड़े होने वाले हर पूँजीवादी प्रतिनिधि को नंगा किया जा सकता है। पुलिस और प्रशासन द्वारा मज़दूरों और मेहनतकशों के ख़ि‍लाफ़ की जाने वाली हर ज़्यादती के ख़ि‍लाफ़ कहीं ज़्यादा प्रभावी और पुरज़ोर तरीक़े से आवाज़ उठायी जा सकती है और उसे भरसक रोका भी जा सकता है। मज़दूर वर्ग और मेहनतकश वर्गों के हर दुख-तकलीफ़ और हर परेशानी में उनके साथ खड़ा होने के लिए मज़दूर वर्ग का अपना सच्चा प्रतिनिधि मौजूद होगा और इससे मज़दूर वर्ग का समूचा वर्ग संघर्ष आगे बढ़ेगा। यदि भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का उम्मीदवार विजयी होता है तो समूची सांसद निधि का पारदर्शी तरीक़े से और सामूहिक निर्णय से विकास कार्यो को पूरा करने में उपयोग हो सकेगा। साथ ही, भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी के सांसद केवल एक कुशल मज़दूर जितना वेतन ही लेंगे और बाकी वेतन को विकास निधि में ही डाल देंगे। निर्वाचन क्षेत्र में आने वाली सारी सरकारी योजनाओं को पारदर्शी तरीक़े से लागू करने के लिए उनका सार्वजनिक ऑडिट कराया जायेगा और समस्त विकास कार्य जनता की चुनी गयी कमेटियों की निगरानी में किया जायेगा। निश्चित तौर पर, संसद में मज़दूर वर्ग के कुछ प्रतिनिधि होने मात्र से मज़दूर सत्ता या समाजवाद नहीं आ जायेगा लेकिन यह भी सच है कि इस व्यवस्था के दायरे के भीतर उसके आर्थिक और राजनीतिक हक़ उसे कहीं बेहतर हद तक हासिल होंगे और साथ ही पूरी व्यवस्था के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का उसका संघर्ष भी आगे जायेगा। इसीलिए हम आपसे अपील करते हैं कि आने वाले लोकसभा चुनावों में आप पुरज़ोर तरीक़े से और संगठित व एकजुट तौर पर भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी को वोट दें, समर्थन दें और उसे जितायें।

5. चुनावों में भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी का एजेण्डा

भारत की क्रान्तिकारी मज़दूर पार्टी आने वाले लोकसभा चुनावों में निम्न एजेण्डा के साथ उतरेगी।

1. सभी अप्रत्यक्ष करों को समाप्त किया जाये और आय और उत्तराधिकार में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति पर प्रगतिशील कराधान की प्रणाली को समुचित रूप से लागू किया जाये। यानी, धनी, उच्च मध्यम व खाते-पीते मध्यम वर्गों से प्रत्यक्ष कर लिये जायें जिनकी दर बढ़ती आय के साथ बढ़ती जाये।

2. सभी बैंकों, बड़े कॉरपोरेट घरानों, व कम्पनियों का और सभी खानों-खदानों का पूर्ण राष्ट्रीकरण किया जाये। आज अगर कॉरपोरेट घरानों की कुल सम्पदा देखी जाये, तो हम पाते हैं कि उसका बड़ा हिस्सा बैंकों से, विशेषकर सरकारी बैंकों से लिये गये ऋण हैं, जो कि जनता का पैसा ही है। साथ ही, इन कम्पनियों की समूची सम्पदा मज़दूर वर्ग सामूहिक तौर पर पैदा करता है, जिन पर इन पूँजीपतियों का क़ब्ज़ा होता है। अगर पूँजीवादी नियमों से भी देखें तो मज़दूर वर्ग ने आरम्भिक निवेश जितना मुनाफ़ा इन कम्पनियों के मालिकों को बहुत पहले ही पैदा करके दे दिया है। आज इन सभी कम्पनियों की एक-एक कील पर इनमें काम करने वाले मज़दूरों और कर्मचारियों का साझा हक़ है। इसलिए इन सभी कम्पनियों और कॉरपोरेट घरानों की समूची सम्पत्ति को राष्ट्र की सम्पत्ति घोषित किया जाना चाहिए।

3. ज़मीन का राष्ट्रीकरण किया जाये और जिन भी खेतों को जोतने का काम स्वयं किसान अपनी और अपने परिवार की मेहनत से नहीं करता, बल्कि नियमित तौर पर मज़दूरों से करवाता है, उसका सामूहिकीकरण कर खेतिहर मज़दूरों व ग़रीब किसानों के समूहों को साझी खेती के लिए सौंप दिया जाये या उन्हें मॉडल सरकारी फ़ार्मों में तब्दील कर दिया जाये। ज़मीन किसी की निजी सम्पत्ति नहीं हो सकती है, यह एक प्राकृतिक संसाधन है जिस पर समूचे देश का साझा हक़ है।

4. काम का अधिकार वास्तव में जीने का अधिकार है। बिना काम के अधिकार के जीने का अधिकार महज़ एक धोखा है। काम के अधिकार को मूलभूत अधिकारों में शामिल किया जाये। इसके लिए आवश्यक संवैधानिक संशोधन किया जाये और ‘भगतसिंह राष्ट्रीय रोज़गार गारण्टी अधिनियम’ पारित किया जाये, जिसके तहत साल भर के पक्के रोज़गार की गारण्टी सरकार ले अथवा प्रति माह रु. 10,000 बेरोज़गारी भत्ता दे।

5. हर प्रकार के नियमित कार्य में ठेका प्रथा को पूर्ण रूप से समाप्त किया जाये।

6. काम के घण्टे क़ानूनी तौर पर 6 किये जाने चाहिए। 1970 के दशक में देश में होने वाले कुल उत्पादन के मूल्य में मज़दूरी का प्रतिशत 30 के क़रीब था जो अब गिरकर 11 प्रतिशत के भी नीचे आ चुका है। मज़दूर वर्ग उस समय से कहीं ज़्यादा उत्पादन कर रहा है और आज तकनोलॉजी भी उससे कहीं ज़्यादा उन्नत है, जिससे कि मज़दूर वर्ग की उत्पादकता में भारी बढ़ोत्तरी हुई है। लेकिन इसके साथ उसकी मज़दूरी नहीं बढ़ी है, बल्कि काम के घण्टे बढ़ते गये हैं। यह पूरी तरह जायज़ है कि आज कार्यदिवस की लम्बाई को 6 घण्टे कर दिया जाये। इससे भारी संख्या में नया रोज़गार भी पैदा होगा।

7. राष्ट्रीय न्यूनतम मज़दूरी कम-से-कम रु. 20,000 प्रति माह की जाये। आज इससे कम वेतन में चार सदस्यों वाला परिवार अपनी बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं कर सकता है। जिन राज्यों में जीवनयापन खर्च ज़्यादा होता है, उन राज्यों में इसे समुचित रूप से और ज़्यादा बढ़ाया जाये।

8. सभी उद्योगों में कामगारों की सुरक्षा की पूरी व्यवस्था होनी चाहिए और सभी मानक इन्तज़ाम किये जाने चाहिए।

9. ओवरटाइम की व्यवस्था को पूरी तरह समाप्त किया जाये। कम मज़दूरी के कारण मज़दूरों को “स्वैच्छिक” या जबरिया ओवरटाइम करना पड़ता है। यह मज़दूरों के जीवन को पाशविक बना देता है और उन्हें मशीन या कोल्हू के बैल में तब्दील कर देता है। मज़दूर वर्ग के इस विमानवीकरण को रोकने के लिए ओवरटाइम को पूरी तरह ख़त्म किया जाना चाहिए।

10. रात्रि कार्य (नाइट शिफ़्ट) को समाप्त किया जाये और केवल उन उद्योगों में इसकी आज्ञा दी जाये, जिन उद्योगों में यह अपरिहार्य है। उन उद्योगों में भी रात्रि कार्य की अवधि चार घण्टों से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए और इसका संचालन हर उद्योग में मज़दूरों की यूनियनों की देखरेख में होना चाहिए।

11. स्कूली उम्र (सोलह साल) से कम उम्र के नवयुवकों व बच्चों द्वारा काम कराये जाने पर पूरी तरह रोक लगायी जाये। 16 से 18 वर्ष के श्रमिकों के काम के घण्टे चार से ज़्यादा नहीं होने चाहिए।

12. उद्योग की उन सभी शाखाओं में स्त्री श्रम पर रोक हो जो कि स्त्रियों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हों। सभी स्त्री कामगारों को प्रसव के छह महीने पहले और छह महीने बाद तक पूर्ण वेतन के साथ छुट्टी दी जानी चाहिए।

13. हर शाखा में स्त्रियों को पुरुषों के समान वेतन की व्यवस्था होनी चाहिए और उनसे रात्रि कार्य लिये जाने पर रोक होनी चाहिए, उन उपक्रमों को छोड़कर जहाँ पर स्त्रियों के रात में काम करने की अपरिहार्यता हो। रात्रि कार्य की शिफ़्ट चार घण्टे से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए और उन्हें घर सुरक्षित ले जाने और ले आने की समुचित व्यवस्था नियोक्ता की जि़म्मेदारी होनी चाहिए।

14. जिन भी उपक्रमों में स्त्रियाँ काम करती हैं, वहाँ पर कारख़ानों के भीतर पालना घर व नर्सरी की समुचित व्यवस्था होनी चाहिए और स्तनपान कराने वाली स्त्रियों को कम-से-कम हर तीन घण्टे पर इसके लिए कम-से-कम आधे घण्टे का अवकाश मिलना चाहिए।

15. सभी उपक्रमों में कम-से-कम एक दिन का साप्ताहिक अवकाश अवश्य मिलना चाहिए।

16. मज़दूरों और आम मेहनतकश आबादी के लिए, जो कि किसी अन्य के श्रम का दोहन नहीं करते, राजकीय बीमा की पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए जिसके तहत हर प्रकार की विकलांगता, बीमारी, बच्चे के जन्म, जीवन-साथी की मृत्यु, अनाथ होने पर सरकार द्वारा बीमा राशि दी जानी चाहिए। इस बीमा योजना के लिए धन विशेष टैक्स लगाकर पूँजीपतियों से वसूला जाना चाहिए।

17. वस्तु के रूप में मज़दूरी के भुगतान पर पूरी रोक लगायी जाये और हर उद्योग में मज़दूरी के भुगतान की नियत मासिक तिथि तय की जानी चाहिए।

18. नियोक्ताओं द्वारा किसी भी कारण या बहाने से मज़दूरी में कोई भी कटौती करने पर पूर्ण रोक लगायी जाये।

19. श्रम विभाग में बड़े पैमाने पर भर्ती करके उसका विस्तार किया जाये। नये श्रम निरीक्षक, कारख़ाना निरीक्षक व ब्वायलर निरीक्षकों की इतनी संख्या में भर्ती की जाये कि सभी आर्थिक इकाइयों की नियमित और गहरी जाँच की जा सके। सभी निरीक्षण दलों को ‘थ्री-इन-वन’ के सिद्धान्त पर गठित किया जाये, जिसमें कि सरकार द्वारा नियुक्त निरीक्षक, मज़दूर संगठनों/यूनियनों के चुने हुए प्रतिनिधि और मालिकों के प्रतिनिधि हों, और मज़दूर प्रतिनिधियों की बहुसंख्या हो।

20. सभी औद्योगिक इकाइयों में श्रम और उत्पादन के प्रबन्धन का कार्य मज़दूरों के चुने हुए प्रतिनिधियों, प्रबन्धकों और तकनीशियनों की ‘थ्री-इन-वन’ कमेटियों को दिया जाना चाहिए जिसमें मज़दूर प्रतिनिधि बहुसंख्या में हों। उत्पादन की गति और उसके लक्ष्य इस कमेटी द्वारा ही निर्धारित किये जाने चाहिए।

21. स्त्री मज़दूरों वाले सभी उद्योगों के लिए स्त्री श्रम निरीक्षकों की व्यवस्था होनी चाहिए।

22. सभी उद्योगों के लिए साफ़-सफ़ाई और हाईजीन के कड़े नियम-क़ानून बनाये जायें जिसके अनुसार सभी औद्योगिक इकाइयों में साफ़-सुथरे बाथरूमों, शौचालय आदि की व्यवस्था हो। इसकी जाँच हेतु श्रम विभाग में एक सैनिटरी इंस्पेक्टोरेट का गठन किया जाये।

23. श्रम क़ानूनों में उपरोक्त बातों को सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक संशोधन किये जायें और उनके उल्लंघन को आपराधिक कृत्य की श्रेणी में डाला जाये और दण्डनीय अपराध बनाया जाये। केवल मामूली आर्थिक जुर्माने से मालिकों को कोई डर या समस्या नहीं है। इसलिए किसी भी श्रम क़ानून के उल्लंघन पर कम-से-कम तीन माह का ग़ैर-ज़मानती कारावास होना चाहिए।

24. घरेलू कामगारों के लिए अलग लेबर एक्सचेंज का गठन हो, जिसमें कि उनका पंजीकरण हो और किसी भी व्यक्ति को घरेलू कामगार की ज़रूरत पड़ने पर इस एक्सचेंज द्वारा घरेलू कामगार मुहैया कराये जायें। घरेलू कामगारों पर न्यूनतम मज़दूरी समेत श्रम क़ानूनों में द‍िए गए सभी अधिकार लागू हों। उनके लिए एक अलग विशेष क़ानून बनाया जाये जिसमें कि उनके सम्मान, घरों में उनके साथ बराबरी के बर्ताव और उनकी रोज़गार-सुरक्षा को सुनिश्चित किया जाये। न सिर्फ़ घरेलू कामगारों की पहचान और पंजीकरण को सुनिश्चित किया जाये, बल्कि उनके नियोक्ताओं की भी जाँच, पहचान और पंजीकरण किया जाये।

25. तथाकथित लेबर चौक के मज़दूरों के लिए भी अलग लेबर एक्सचेंज का गठन किया जाये, जिनमें उनकी दिहाड़ी न्यूनतम मज़दूरी के अनुसार और काम के घण्टे विनियमित किये जायें। उनके पहचान कार्ड बनाये जायें और किसी भी नियोक्ता को मज़दूर रखने के लिए इन्हीं एक्सचेंजों से सम्पर्क करने की व्यवस्था बनायी जाये।

26. सभी खेतिहर मज़दूरों के कार्य को श्रम क़ानूनों के मातहत लाया जाये और उनके कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त ढाँचे का निर्माण किया जाये।

27. सभी उद्योगों में औद्योगिक व श्रम अदालतों की व्यवस्था की जाये जिनके पास औद्योगिक विवादों के निपटारे और श्रम क़ानूनों का उल्लंघन करने वाले दोषियों के विरुद्ध दण्डात्मक कार्रवाई का अधिकार हो।

28. सभी स्कीम वर्करों जैसे कि आँगनवाड़ीकर्मी, आशाकर्मी, आदि को पक्का रोज़गार दिया जाये और समेकित बाल विकास योजना या ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसे विशेष मिशनों के स्थान पर इन सारे कल्याणकारी कार्यों के लिए सरकार समुचित सरकारी विभाग स्थापित करें और इन कार्यों को राज्य की नीति का अंग बनाया जाये, न कि किसी विशेष योजना का अंग।

29. विशेष आार्थिक क्षेत्र (एस.ई.ज़ेड.) का क़ानून रद्द किया जाये और सभी मौजूदा विशेष आर्थिक क्षेत्रों को समाप्त किया जाये।

30. कॉरपोरेट हितों के लिए जबरिया भूमि अधिग्रहण पर रोक लगायी जायेे और अगर जनहित के लिए भूमि अधिग्रहण अनिवार्य हो, तो वहाँ इससे प्रभावित होने वाली पूरी आबादी के समुचित पुनर्वास की पूरी व्यवस्था की जाये।

31. निजी स्कूलों व शिक्षण संस्थानों को पूर्ण रूप से समाप्त किया जाये और भारत के हरेक नागरिक के लिए प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चतर शिक्षा के स्तर तक समान एवं निशुल्क शिक्षा का प्रावधान किया जाये। चाहे किसी का भी बच्चा हो, उसे समान शिक्षा मिलनी चाहिए। स्कूली शिक्षा को उत्पादन-सम्बन्धी प्रशिक्षण से जोड़ा जाना चाहिए और यह सभी बच्चों के लिए अनिवार्य होनी चाहिए।

32. सभी को अपनी मातृभाषा में शिक्षण, कार्य, चिन्तन, व अभिव्यक्ति की पूरी आज़ादी हो। इसलिए किसी भी भाषा को राजकीय भाषा का दर्जा नहीं दिया जाना चाहिए। हर क्षेत्र में जनता को अपनी मातृभाषा में शिक्षा ग्रहण करने, सभी प्रशासनिक कार्रवाइयों, न्यायिक कार्रवाइयों में हिस्सा लेने का अधिकार होना चाहिए। अदालतों, सरकारी दफ़्तरों व सभी विभागों की कार्रवाई क्षेत्र की जनता की मातृभाषा में होनी चाहिए।

33. सभी मेहनतकश लोगों के लिए सरकारी आवास की व्यवस्था की जाये। ये आवास उन्हें भोगाधिकार के आधार पर दिये जायें। इसके लिए सभी ख़ाली पड़े निजी अपार्टमेण्टों, फ़्लैटों व मकानों को सरकार ज़ब्त करे। वैसे तो आवास की समस्या तभी पूरी तरह हल हो सकती है जबकि भूमि और मकान में निजी मालिकाने की समूची व्यवस्था समाप्त हो जाये। लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक समस्त मज़दूरों व झुग्गीवासियों को पक्के मकान भोगाधिकार के आधार पर मुहैया करना सरकार की जि़म्मेदारी बनायी जाये ताकि आवास के बुनियादी अधिकार को सुनिश्चित किया जा सके।

34. सरकार को नि:शुल्क सार्विक स्वास्थ्य देखरेख की गारण्टी करनी चाहिए जिसके तहत चिकित्सा व दवा-इलाज सरकार की जि़म्मेदारी होनी चाहिए।

35. सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राशनिंग की प्रभावी व्यवस्था का निर्माण किया जाये और हर इलाक़े में राशन की दुकानें खोली जायें।

36. नयी पेंशन स्कीम को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये और मज़दूर संगठनों से परामर्श करके एक नयी तर्कसंगत व न्यायसंगत पेंशन स्कीम लागू की जाये।

37. राज्य को धर्म, धार्मिक संस्थाओं व हर प्रकार की धार्मिक गतिविधियों से पूरी तरह स्वतन्त्र बनाया जाये।

38. धर्म को राजनीतिक व सामाजिक जीवन से पूरी तरह अलग किया जाये और इसे पूर्ण रूप से नागरिकों के निजी जीवन का मसला बनाया जाये।

39. सभी शिक्षण संस्थाओं को धर्म व धार्मिक गतिविधियों, मसलन धार्मिक प्रार्थना, धार्मिक अनुष्ठान, धार्मिक प्रतीकों, आदि, से पूरी तरह अलग किया जाये।

40. हर गाँव व शहर में नागरिकों की मुहल्ला सभाओं का गठन होना चाहिए और सभी सरकारी योजनाओं में होने वाले वित्त के आबण्टन के उपयोग का फै़सला इन सभाओं के हाथों में होना चाहिए।

41. ऋण न चुकाने वाली सभी कम्पनियों और नॉन-परफॉर्मिंग एसेट घोषित हो चुकी सभी कम्पनियों का तत्काल राष्ट्रीकरण किया जाना चाहिए और उन्हें जनता की सम्पत्ति घोषित किया जाना चाहिए।

42. सभी प्रकार के प्राकृतिक संसाधनों पर सरकार का पूर्ण नियन्त्रण होना चाहिए और उन्हें किसी भी प्रकार के क़रारनामे के मातहत दोहन के लिए कॉरपोरेट घरानों को सौंपे जाने पर तत्काल रोक लगायी जानी चाहिए।

43. सभी शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों, अनाथ बच्चों, लाचार वृद्धों की समस्त बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उपयुक्त सामाजिक सुरक्षा क़ानून बनाया जाये और सरकार की जि़म्मेदारी को सुनिश्चित किया जाये।

44. घरेलू हिंसा, उत्पीड़न आदि की शिकार अकेली स्त्रियों के लिए रोज़गार व आवास की व्यवस्था करना सरकार की जि़म्मेदारी हो और इसे सुनिश्चित करने के लिए सख्त क़ानून बनाया जाये।

45. सभी शहरों और गाँवों में ऐसे सामुदायिक केन्द्र बनाये जायें, जहाँ खेलकूद केन्द्र, व्यायामशाला, पुस्तकालय-वाचनालय व सांस्कृतिक केन्द्र मौजूद हो, जिससे सभी नागरिकों को बराबरी से शारीरिक व मानसिक विकास का अवसर मिले।

46. यूएपीए, मकोका, यूपीकोका आदि जैसे सभी दमनकारी और ग़ैर-जनवादी क़ानूनों को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये।

47. राजद्रोह के औपनिवेशिक काल के दमनकारी क़ानून को तत्काल प्रभाव से समाप्त किया जाना चाहिए। साथ ही, समस्त आईपीसी, सीआरपीसी और जेल मैनुअल सहित औपनिवेशिक काल के सभी जनविरोधी क़ानूनों व नियमों को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये। ऑफिशियल सीक्रेट्स एक्ट को तत्काल रद्द किया जाये।

48. धारा 144 को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये।

49. आफ्स्पा व डिस्टर्ब्ड एरियाज़ एक्ट को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाये।

50. आधार कार्ड की समूची योजना को रद्द किया जाना चाहिए।

51. सभी राजनीतिक बन्दियों को राजनीतिक बन्द‍ियों के सारे अधिकार मुहैया कराये जायें और काले क़ानूनों के तहत बन्द किये गये सभी राजनीतिक बन्दियों को तत्काल रिहा किया जाये।

52. एस्मा जैसे क़ानूनों के ज़रिये मज़दूरों व कर्मचारियों का हड़ताल का जनवादी अधिकार छीने जाने को ख़त्म किया जाये और एस्मा क़ानून को रद्द किया जाये।

53. वन्य सम्पदा और पर्यावरण की कॉरपोरेटों द्वारा लूट की पूरी छूट देने वाले काम्पा व ईपीए जैसे क़ानूनों को तत्काल रद्द किया जाना चाहिए और आदिवासियों को उनके जल, जंगल, ज़मीन के सामुदायिक भोगाधिकार से बेदखल करने के सभी आदेशों, नियमों और क़ानूनों को तत्काल रद्द किया जाना चाहिए।

54. मज़दूरों को यूनियन बनाने का पूर्ण अधिकार मिलना चाहिए और इसमें रुकावट डालने वाले क़ानूनों और नियमों को तत्काल प्रभाव से रद्द किया जाना चाहिए।

55. कश्मीर और उत्तर-पूर्व तथा छत्तीसगढ़ का पूर्ण विसैन्यीकरण किया जाना चाहिए

56. नागरिकता संशोधन विधेयक को तत्काल रद्द किया जाये।

57. देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू की जाये।

58. सभी चुनावी पार्टियों द्वारा चुनावी प्रचार व अन्य राजनीतिक कार्यों में धार्मिक चिन्हों, धार्मिक भावनाओं, जातिगत पहचानों और जातिगत भावनाओं के किसी भी रूप में इस्तेमाल पर पूरी रोक लगाने हेतु कठोर क़ानून बनाया जाये और इसके उल्लंघन पर सख्त दण्डात्मक कार्रवाई के प्रावधान किये जायें।

59. दंगे के दोषी व्यक्तियों, संगठनों आदि के ख़ि‍लाफ़ कठोर दण्डात्मक कार्रवाई को सुनिश्चित करने के लिए सख़्त क़ानून बनाया जाये।

60. राफ़ेल घोटाले, नोटबन्दी घोटाले, बैंकों से सम्बन्धित घोटालों सहित पिछले पाँच वर्षों के दौरान हुए तमाम बड़े घोटालों की उच्चस्तरीय जाँच करायी जाये।

61. न सिर्फ़ अस्पृश्यता बल्कि जाति के आधार पर होने वाले हर भेदभाव को तत्काल दण्डनीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए और जातिगत विवाह विज्ञापनों और जाति आधारित संघों और पंचायतों पर तत्काल रोक लगायी जानी चाहिए।

62. भारत की सभी राष्ट्रीयताओं को अलग होने समेत आत्मनिर्णय का पूर्ण अधिकार होना चाहिए। सभी राष्ट्रीयताओं के मेहनतकश वर्गों का एक साझा राज्य ज़ोर-ज़बरदस्ती के आधार पर नहीं हो सकता बल्कि उनका एक स्वैच्छिक संघ ही बन सकता है। हम स्वेच्छा से सभी राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं द्वारा अधिकतम सम्भव बड़े साझा राज्य के निर्माण के पक्ष में हैं।

63. स्त्रियों की मुक्ति को सुनिश्चित करने के लिए सभी गाँवों और शहरों में मुहल्लों व कालोनियों में पालना घर, नर्सरी और डे-बोर्डिंग की व्यवस्था की जानी चाहिए और साथ ही विशाल सामुदायिक भोजनालयों का निर्माण सरकार द्वारा करवाया जाना चाहिए, जहाँ लागत मूल्य पर भोजन उपलब्ध हो।

64. चुनाव आयोग में पंजीकृत सभी चुनावी दलों को तत्काल सूचना के अधिकार के दायरे में लाया जाना चाहिए।

65. चुनावों की प्रक्रिया से इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों का इस्तेमाल पूरी तरह से समाप्त किया जाये और वापस पेपर बैलेट की व्यवस्था को बहाल किया जाये।

66. चुनावों में पैसे की ताक़त को पूरी तरह से ख़त्म करने के लिए छोटे निर्वाचन मण्डल गठित किये जाने चाहिए, समानुपातिक प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की जानी चाहिए और चुनाव में खड़ा होने के लिए हर प्रकार की वित्तीय या सम्पत्ति-सम्बन्धी पूर्वशर्त को तत्काल समाप्त किया जाना चाहिए। चुने गये प्रतिनिधियों को तत्काल वापस बुलाने का अधिकार भी तभी वास्तव में जनता को मिल सकता है।

67. सभी सरकारी संस्थानों का सार्वजनिक ऑडिट होना चाहिए और यह ऑडिट जनता द्वारा चुनी गयी कमेटियों द्वारा होना चाहिए।

68. पुलिस और सेना को शान्ति काल में उत्पादक कार्रवाइयों में लगाया जाना चाहिए और उन्हें सभी जनवादी अधिकार जैसे कि राजनीतिक साहित्य का अध्ययन करना, यूनियन बनाना, हड़ताल करना, आदि दिये जाने चाहिए। सेना और पुलिस में अर्दलियों की व्यवस्था तत्काल समाप्त की जानी चाहिए। सेना के भीतर अधिकारियों का सैनिकों द्वारा चुनाव होना चाहिए। एक चुने हुए सैन्य अधिकारी की ही सच्ची मान्यता और प्राधिकार हो सकता है।

69. हर नागरिक के लिए सैन्य प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए। कालान्तर में जनता को सार्विक रूप से सशस्त्र किया जाना चाहिए और आगे चलकर स्थायी सेना और पुलिस की संस्था को भंग कर दिया जाना चाहिए। सैन्य सेवा में जाने वाले सभी व्यक्तियों को सैन्य सेवा के हर दिन के लिए उनके नियोक्ताओं द्वारा पूर्ण वेतन दिया जाना चाहिए।

70. हथियारों की ख़रीद और सेना के अधिकारियों के विशेषाधिकारों पर होने वाले भारी-भरक़म खर्च में कटौती की जाये।

71. वन रैंक वन पेंशन की सैनिकों की माँग को तत्काल स्वीकार किया जाये।

72. सैन्य बलों, अर्द्धसैनिक बलों और पुलिस बल में रैंक के अनुसार खान-पान व रहन-सहन में विभेद की व्यवस्था को समाप्त किया जाये।

73. किसी भी सरकारी अधिकारी या चुने हुए जन प्रतिनिधि को एक कुशल श्रमिक से ज़्यादा वेतन नहीं मिलना चाहिए। कालान्तर में सभी अधिकारियों के चुनाव की व्यवस्था होनी चाहिए और उन्हें तत्काल वापस बुलाये जाने का अधिकार भी निर्वाचकों के पास होना चाहिए। केवल तभी भ्रष्टाचार पर लगाम लगायी जा सकती है।

74. सभी सांसदों, विधायकों, पार्षदों, मन्त्रियों, नौकरशाहों आदि को मिलने वाले विशेषाधिकारों और विशेष सुविधाओं को समाप्त किया जाये।

75. समूची न्याय प्रणाली में चुनी हुई ज्यूरी की व्यवस्था को बहाल किया जाना चाहिए और वैयक्तिक न्यायाधीशों के भी जनसमुदायों द्वारा चुनाव की व्यवस्था कालान्तर में बहाल की जानी चाहिए।

76. कॉरपोरेट पूँजी से नियन्त्रित मीडिया का विराटकाय तंत्र सच को दबाने, तरह-तरह के झूठों का प्रचार करने और शोषक-उत्पीड़क सत्ता के पक्ष में सहमति निर्माण का हथियार बन गया है। दूसरी ओर, सत्ता के विरोधी जनमीडिया के साधनों को तरह-तरह से नियन्त्रित और बाधित किया जाता है। अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की मूल भावना को बरकरार रखते हुए मीडिया पर निगरानी के लिए जनता के बीच से चुने हुए प्रतिनिधियों को लेकर ऐसा निकाय बनाया जाना चाहिए जो समाचार और मनोरंजन के माध्यमों को झूठ, अन्धविश्वास और अवैज्ञानिक बातों का प्रचार करने से रोके और तथ्यपरक रिपोर्टिंग को सुनिश्चित करे। फे़क न्यूज़ (फ़र्ज़ी ख़बरों) पर प्रभावी रोक के लिए कारगर क़ानून लाया जाये। सरकारी विज्ञापनों और सब्सिडी की नीति को पारदर्शी ढंग से लागू किया जाये।

77. सभी तरह के मीडिया में काम करने वाले मीडियाकर्मियों के आर्थिक हितों, राजनीतिक अधिकारों, मसलन, संगठित होने व यूनियन बनाने, और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए एक सख़्त क़ानून बनाया जाये और इस प्रकार की व्यवस्था सुनिश्चित की जाये कि उनके कार्य में सरकार या पूँजीपति वर्ग द्वारा पैसे की ताक़त के आधार पर हस्तक्षेप न किया जा सके।

78. सरकार द्वारा विभिन्न खुफ़ि‍या, पुलिस व सैन्य एजेंसियों को बेरोकटोक नागरिकों की जासूसी और उनके निजी जीवन में हस्तक्षेप का अधिकार दे दिया गया है। इसे तत्काल रद्द किया जाये और यदि जनसुरक्षा के लिए किसी सम्भावित ख़तरे के कारण किसी व्यक्ति अथवा संस्था की निगरानी या जासूसी की आवश्यकता है तो उसके लिए जनप्रतिनिधियों के किसी चुने हुए निकाय से लिखित आज्ञा ली जानी चाहिए।

79. भारत सरकार द्वारा किये गये सारे गुप्त समझौतों को जनता के सामने उजागर किया जाये।

80. भारत सरकार को तत्काल प्रभाव से हर प्रकार के अन्तरराष्ट्रीय पेटेण्ट क़ानून सम्बन्धी सभी असमान समझौतों से बाहर आ जाना चाहिए।

81. सभी साम्राज्यवादी देशों व एजेंसियों के समस्त विदेशी क़र्ज़ों को तत्काल मंसूख किया जाये। किसी भी साम्राज्यवादी देश के साथ असमान सन्धियों और किसी भी प्रकार की सामरिक सन्धि को रद्द किया जाना चाहिए और भविष्य में भी ऐसी कोई सन्धि नहीं की जानी चाहिए।

82. भारत को फिलिस्तीनी जनता के राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार का पूर्ण समर्थन करना चाहिए और वहाँ पर मुसलमानों, यहूदियों, ईसाइयों व अन्य सभी समुदायों के लिए एक सेक्युलर व जनवादी राज्य की स्थापना का अन्तरराष्ट्रीय मंच पर पुरज़ोर समर्थन करना चाहिए और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सभी मसलों में इज़रायल के अपार्थाइड राज्य का पूर्ण बहिष्कार करना चाहिए।

83. भारत को तत्काल डब्ल्यूटीओ तथा मुक्त व्यापार के सभी समझौतों से बाहर आ जाना चाहिए।

84. भारत को कॉमनवेल्थ की सदस्यता तत्काल छोड़ देनी चाहिए।

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